Friday, April 19, 2024
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अध्याय – 41 : अँग्रेजी शासन की पहली शताब्दी में हुए विद्रोह

अठारहवीं शताब्दी के मध्य में ईस्ट इण्डिया कम्पनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति में लग गई। उसे भारतीय शासकों एवं उनके परिवारों की फूट का लाभ मिला किंतु फिर भी स्थान-स्थान पर कम्पनी तथा उसके अधिकारियों को भारी विरोध एवं विद्रोहों का सामना करना पड़ा। कम्पनी का पथ अंगारों से भरा था जिस पर चलने के लिये दीर्घ कालीन योजना एवं असीम धैर्य की आवश्यकता थी। भारत के दुर्भाग्य से अंग्रेजों में ये दोनों गुण विद्यमान थे।

गंगा घाटी तथा दोआब के विद्रोह

1757 ई. की प्लासी विजय के बाद कलकत्ता में अँग्रेजों का आधार पर्याप्त सुदृढ़ हो गया और उनके लिये गंगा घाटी तथा दो-आब पर सैनिक नियंत्रण रखना सरल हो गया। फिर भी इस क्षेत्र में अँग्रेजों का तीव्र विरोध हुआ। 1778 ई. में जब वॉरेन हेस्टिंग्ज ने बनारस के राजा चेतसिंह से अधिक कर की माँग की तब राजा चेतसिंह ने इसका विरोध किया। 1781 ई. में जब वॉरेन हेस्टिग्ज ने चेतसिंह को बन्दी बनाने का प्रयास किया, तब चेतसिंह के सैनिकों और अधिकारियों ने उसकी रक्षा की तथा उसे भाग निकलने में सहायता दी। 1798 ई. में लार्ड वेलेजली ने अवध के नवाब वजीर अली को उसके चाचा साहिब अली के पक्ष में गद्दी त्यागने के लिए कहा, तब वजीर अली ने ब्रिटिश रेजीडेन्ट पर हमला करके उसकी हत्या कर दी और स्वयं भूमिगत हो गया। 1801 ई. में उसने अपनी छोटी सेना के साथ गोरखपुर में ब्रिटिश सेना से मुकाबला किया किन्तु उसे बन्दी बना लिया गया।

सन्यासी विद्रोह

1769-70 ई. में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। लोगों ने इस अकाल के लिये कम्पनी की नीतियों को दोषी माना। इसलिये शंकराचार्य के अनुयायियों और गिरि सम्प्रदाय के सन्यासियों ने जन-साधारण से मिलकर कम्पनी की कोठियों तथा खजानों पर आक्रमण किये। सरकार ने सन्यासियों को दबाने के लिये सेना भेजी किंतु अकाल से प्रभावित जमींदार, किसान, कारीगर तथा सैनिक भी सन्यासियों से मिल गये और उन्होंने कम्पनी के गोदामों तथा खेतों में खड़ी फसलों को लूटना आरम्भ कर दिया। यह आंदोलन 1780 ई. तक चला। वारेन हेस्टिंग्ज ने इसे मजबूती से कुचल दिया।

मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों के विद्रोह

गंगा घाटी और दो-आब की अपेक्षा मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों में हुए विद्रोहों को दबाने में अँग्रेजों को अधिक कठिनाई हुई। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान और मद्रास प्रेसीडेंसी के अधिकारियों के बीच, दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जो भी विजयी होता उसे पूर्वी घाट के सेनापतियों, जिन्होंने विजयनगर साम्राज्य के अन्तिम वर्षों में, घाट के जंगलों तथा पहाड़ियों में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया था, को नियन्त्रण में रखना होता था। टीपू सुल्तान ओर अँग्रेजों के बीच हुए संघर्ष में अँग्रेज विजयी रहे किन्तु इस विजय के बाद उन्हें पूर्वी घाट के सेनापतियों को दबाने के लिये लम्बा अभियान चलाना पड़ा। 1799 ई. से 1801 ई. की अवधि में अँग्रेजों को एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में रामनाथपुरम्, तिरूनेलवेली, डिंडुगल, कन्नड़ तथा मैसूर की सेनाओं ने अँग्रेजों से लोहा लिया। वे लोग इस संग्राम के माध्यम से भारत को अँग्रेजों से मुक्त कराकर उन्हें वापिस उसी समुद्र में धकेल देना चाहते थे, जिससे होकर वे आये थे। उनकी गुरिल्ला युद्ध पद्धति, उस प्रदेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी। स्थानीय ग्रामीणों ने भी उन्हें हर प्रकार की सहायता दी। अमिलदारों की सरकारें स्थापित कर दी गईं और फ्रांस से सहायता हेतु सम्पर्क किया गया किन्तु यूरोप में युद्ध की गम्भीर स्थिति को देखते हुए नेपेालियन बोनापार्ट से सहायता की आशा करना व्यर्थ था। अँग्रेजों के लिए इस संघर्ष को दबाना कठिन हो गया। अंत में अँग्रेजों ने किलों को ध्वस्त करके बड़ी संख्या में लोगों को बंदी बना लिया और उनके नेताओं को मार डाला।

1792 से 1798 ई. की अवधि में मलाबार के शासकों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह किया किन्तु अन्ततः वे पराजित हुए। 1805 ई. में त्रावणकोर को अँग्रेजों ने अपना सहायक राज्य बना लिया। इस पर त्रावणकोर के दीवान ने रेजीडेन्ट के मकान पर हमला बोल दिया किन्तु अँग्रेजों ने दीवान और उसके सैनिकों को पकड़ लिया। 1817 ई. में मध्य भारत में अँग्रेजों ने मराठों को परास्त करने के बाद सागर और दमोह पर अधिकार कर लिया। वहाँ के कई ठाकुरों की जमीनें छीन ली गईं। 1842 ई. में जब अँग्रेजों की अफगानिस्तान में पराजय हुई तब इन ठाकुरों ने उत्साहित होकर विद्रोह का झण्डा बुलंद किया किंतु यह विद्रोह अधिक दिनों तक नहीं टिक सका। 1875 ई. में बुंदेलों में फिर से असंतोष भड़का। उसे भी दबा दिया गया।

राजपूताना के विद्रोह

1803-05 ई. की अवधि में भरतपुर, अलवर, जोधपुर आदि राज्यों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ सहायक संधियाँ कीं। भरतपुर ने लेक के विरुद्ध होलकर को सहायता देकर सहायक संधि को तोड़ दिया। इस कारण अंग्रेजों को भरतपुर पर आक्रमण करना पड़ा। जोधपुर के राजा मानसिंह ने राज्य की आंतरिक स्थितियों से उबरने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि की किंतु वह अँग्रेजों का घोर विरोधी था। इस कारण अजमेर के पोलिटिकल एजेण्ट ने जोधपुर के विरुद्ध सैनिक अभियान किया। मानसिंह व्यर्थ के रक्तपात से बचने के लिये किला छोड़कर बाहर आ गया और कम्पनी के रेजीडेण्ट को किले की चाबियां सौंप दीं। अँग्रेजी सेना एक माह तक किले में रहकर लौट गई।

1817-18 ई. में राजपूताना के शासकांे ने अँग्रेजों से नये सिरे से अधीनस्थ सहायक सन्धियाँ कीं। अँग्रेज अधिकारियों द्वारा इन राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप किये जाने से अँग्रेजों के विरुद्ध असंतोष उत्पन्न हो गया। जयपुर में जब अँग्रेजों ने राजमाता को अधिकारच्युत करने का प्रयास किया तो जयपुर में कप्तान ब्लैक की हत्या कर दी गई। कोटा में अँग्रेजों ने महाराव किशोरसिंह के विरुद्ध फौजदार झाला जालिमसिंह और उसके उत्तराधिकारियों के दावों का समर्थन किया, जिससे हाड़ा राजपूतों ने अपने राजा किशोरसिंह के पक्ष में अँग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र उठा लिये। महाराव किशोरसिंह ने हाड़ा राजपूतों को साथ लेकर अँग्रेजों से युद्ध किया, जिसमें दो अँग्रेज अधिकारी मारे गये। अन्त में हाड़ा राजपूत पराजित हो गये। अँग्रेजों ने राजपूताना के सामन्तों को अधिकार विहीन करने का प्रयास किया जिससे सामन्ती वर्ग भी अँग्रेजों का घोर विरोधी हो गया।

मिदनापुर एवं तराई क्षेत्र के विद्रोह

आधुनिक उड़ीसा के सुदूर उत्तरी भाग में स्थित मिदनापुर के जंगलों में अँग्रेजों और किसानों के बीच कई संघर्ष हुए। पुराने शासकों ने तराई क्षेत्रों तथा मिदनापुर के पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को घाटवाली के माफी पट्टे दे रखे थे। इन पट्टों के बदले में वे घाटक्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखते थे। अँग्रेजों ने माफी के पट्टों को रद्द कर करके वहाँ सेना की नई भर्ती की। इस कारण रैयत से आजीविका का साधन छिन गया। 1799 ई. में मिदनापुर क्षेत्र में राजस्व वसूली में रियायत नहीं देने से बड़ा विद्रोह हुआ। अँग्रेेजों ने इस विद्रोह को कुचलने के बाद जंगल-महालों को मिदनापुर से अलग करके अलग जिला बना दिया। बंगाल एवं बिहार के बीच स्थित भागलपुर से लेकर राजमहल पहाड़ियों तक फैले हुए तराई क्षेत्र में 1870 ई. से 1903 ई. तक छोटे-बड़े कई विद्रोह हुए। 

ब्रह्मपुत्र घाटी के विद्रोह

इसी अवधि में ब्रह्मपुत्र घाटी के रंगपुर के सीमावर्ती क्षेत्र में उपद्रव भड़का। अकाल के समय में भी यहाँ से अधिक लगान की मांग की जाने लगी, जिससे क्रुद्ध होकर यहाँ की हिन्दू और मुसलमान रैयत ने 1783 ई. में लगान वसूली का ठेका लेने वाले इजारेदार और उसके एजेण्टों के विरुद्ध विद्रोह किया। पांच सप्ताह तक इजारेदार देवीसिंह कुछ न कर सका और उसकी एक न चली। रैयत में एक नौजवान धीरज नारायण था जिसके पिता ने 25 वर्ष पूर्व नवाब के कर वसूल करने वाले कारिन्दों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया था। रैयत में एक नौजवान नूरूलद्दीन था। रैयत ने इन दोनों नौजवानों को अपना नेता चुन लिया। उन्होंने रंगपुर के सीमावर्ती क्षेत्र में अपनी सरकार स्थापित कर ली। धीरज नारायण को नवाब और नूरूलद्दीन को बख्शी बनाया गया। यद्यपि उन्होंने एक व्यक्ति को अपना नवाब मान लिया किन्तु उनका कहना था कि अपने नेता हम स्वयं हैं और हम न्याय लेकर रहेंगे। उन्होंने न केवल लगान देना बन्द किया बल्कि विद्रोह का खर्चा पूरा करने के लिए डींग खर्च भी वसूल करने लगे। लगभग दस हजार लोगों ने एकत्रित होकर कचहरी और कोतवाली पर हमला कर दिया। उन्होंने कम्पनी के अनाज भण्डार को जला दिया और देवीसिंह के एक एजेन्ट को मार डाला। बाद में वहाँ के अँग्रेज कलेक्टर ने उन्हें क्षमा करने का वादा नहीं निभाया तब एक बार पुनः विद्रोह फूट पड़ा। इस बार विद्रोहियों को निर्ममता से मारा गया तथा उन्हें रंगपुर से निर्वासित कर दिया गया। यद्यपि यह विद्रोह देवीसिंह के द्वारा अधिक लगान मांगने पर हुआ था, फिर भी अँग्रेजों की सहायता के कारण देवीसिंह का कुछ भी नुकसान नहीं हुआ।

हाथीखेड़ा का विद्रोह

1824 ई. में रंगपुर के दक्षिण में मैमनसिंह इलाके में किसानों का विद्रोह भड़क उठा। इस क्षेत्र के जमींदार विगत बीस वर्षों से अपनी जमींदारियों की सीमाओं के पुनर्निधारण के लिए झगड़ रहे थे। ब्रह्मपुत्र नदी के बहाव में परिवर्तन होते रहने से जमीन के आकार में परिवर्तन होता रहता था। इसके बावजूद रैयत से भारी लगान वसूल किया जाता था। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो रही थी। 1820 ई. से जमींदारों ने हाथीखेड़ा में बेगार को अनिवार्य कर दिया। किसानों ने बेगार करने से मना कर दिया। इस विद्रोह को हाथीखेड़ा का विद्रोह कहा जाता है। ब्रिटिश सरकार बर्मा के विरुद्ध चल रहे युद्ध में यहाँ से सेना भेजना चाहती थी। अतः ब्रिटिश सरकार ने यहाँ के जमींदारों से सड़कें बनाने को कहा। जमींदारों ने अपनी रैयत से मुफ्त मजदूरी (बेगार) करा कर सड़क का निर्माण कराना चाहा। किसानों ने टीपू नामक फकीर को अपना नेता बनाया। टीपू के पिता स्वर्गीय करमशाह के कुछ हिन्दू व कुछ मुसलमान अनुयायी थे। ये लोग अपने आपको पागलपंथी कहते थे। लोगों में अफवाह फैल गई कि अँग्रेजों व जमींदारों का शासन समाप्त होने वाला है और टीपू का शासन आरम्भ होने वाला है। अतः ब्रिटिश सेना के पहुंचने पर सशस्त्र किसानों ने उसका विरोध किया। इन किसानों को आदेश था कि वे जमींदारों को राजस्व अदा न करें। किसानों ने जमींदारों के मकानों पर आक्रमण किया और उनके जुल्मों के विरुद्ध अँग्रेजों से सहायता मांगी। 1825 ई. में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ किन्तु बर्मा युद्ध के समाप्त होते ही सड़क का निर्माण रुक गया तथा अँग्रेजों ने किसानों से वायदा किया कि वे लगान वसूली पर पुनः विचार करेंगे। इस पर विद्रोह शान्त हो गया। 1827 ई. में टीपू को गिरफ्तार कर लिया गया। 1833 ई. में जब किसानों ने देखा कि लगान वसूली में कोई रियायत नहीं दी जा रही है, तब पुनः सशस्त्र विद्रोह आरम्भ हो गया। बाद में रैयत ने मैमनसिंह में अपना एक कानूनी प्रतिनिधि और स्थायी प्रतिनिधि मण्डल नियुक्त करके ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास प्रकट किया।

अहोम विद्रोह

प्रथम बर्मा युद्ध के समय कम्पनी ने अहोम होकर अपनी सेना भेजी। युद्ध के बाद अँग्रेजों ने चालाकी से अहोम प्रदेश पर अधिकार करना चाहा। इस पर 1828 ई. में अहोम लोगों ने गोमधर कुंवर को अपना राजा घोषित कर रंगपुर पर चढ़ाई करने की योजना बनाई किंतु सरकार ने इसे विफल कर दिया। 1830 ई. में रूपचंद कोनार के नेतृत्व में पुनः रंगपुर पर आक्रमण की तैयारी की किंतु सरकार ने इसे भी विफल कर दिया। 1833 ई. में सरकार ने उत्तरी असम पुरंदरसिंह को और राज्य का एक हिस्सा अहोम राजा को दे दिया।

खासी विद्रोह

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बर्मा युद्ध में सेना भेजने के लिये असम और सिलहट के बीच एक सैनिक मार्ग बनाने की योजना बनाई तथा सैनिक मार्ग के लिये खासी पहाड़ियों के कामरूप और सिलहट पर अधिकार कर लिया। खासियों के राजा तीरतसिंह ने अँग्रेजों के इस कदम का विरोध किया और 1829-32 ई. में सरकार के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध आरम्भ कर दिया। उसने खासी, गारो, खामटी और सिंगपो लोगों की सहायता से उत्तर-पूर्वी सीमा पर चढ़ाई कर दी। सरकार ने सेना भेजकर आदिवासियों को हरा दिया और तीरतसिंह को पकड़ लिया। उससे कहा गया कि यदि वह ब्रिटिश शासन को स्वीकार कर ले तो उसका राज्य वापस लौटाया जा सकता है किंतु तीरतसिंह ने जवाब दिया- ‘एक साधारण स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में मर जाना अच्छा है, पर गुलाम होकर राजा होना अच्छा नहीं।’ इस पर राजा तीरसिंह को खासी राज्य से निर्वासित करके ढाका भेज दिया गया।

तमिल के कल्लारों के विद्रोह

मदुरै क्षेत्र के कल्लार लोग शताब्दियों से गाँवों में और राजमार्गों पर चौकीदारी का काम करते थे। उनमें से कुछ लोग दक्षिण भारत के 1799-1801 ई. के विद्रोह में अँग्रेजों के विरुद्ध हुए विद्रोह में सम्मिलित हुए थे। अतः उन्हें दण्डित करने के लिए अँग्रेजों ने उनके पुश्तैनी काम पर प्रतिबन्ध लगा दिया और उन्हें जरायमपेशा जाति घोषित कर दिया।

पायकों के विद्रोह

उड़ीसा तट की पहाड़ियों में खुर्द क्षेत्र के पायकों (पैदल सैनिकों) ने 1817 ई. में विद्रोह किया। इस कारण उनसे माफी की भूमि (कर-मुक्त जमीन) छीन ली गई।

मुक्तादारों के विद्रोह

आन्ध्र में गंजम, विशाखापट्टम, और गोदावरी जिलों के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले मुक्तादारों (जमीदारों के मालगुजारी वसूल करने वाले सैनिक) ने विद्रोह किया क्योंकि अनेक पुराने जमींदारों की जमीनें नव-धनाढ्यों ने खरीद ली थी। 1844 ई. में जब कोल्हापुर नगर का शासन संभालने के लिए नये अधिकारी की नियुक्ति की गई तो वहाँ के किलेदारों ने उसका विरोध किया तथा उसे बन्दी बनाकर सरकारी दस्तावेज जला दिये और सरकारी खजाना लूट लिया।

आर्थिक कारणों से हुए विद्रोह

सरकार द्वारा नमक पर एकाधिकार स्थापित कर लेने से नमक उत्पादक क्षेत्रों में जबरदस्त आक्रोश हुआ। जब अँग्रेजों ने बर्मा को अधीन कर लिया, तब बीस वर्ष तक वहाँ कोई जुर्म नहीं हुआ किन्तु उसके बाद वहाँ चालीस वर्ष तक बराबर जुर्म होते रहे, क्योंकि इस दौरान किसानों की जमीनें छीनकर शहरों में रहने वाले जमींदारों को बांट दी गईं। इससे किसान दिन-प्रतिदिन गरीब होते चले गये। ब्रिटिश भारत में तथाकथित जुर्म उन किसानों एवं आदिवासियों द्वारा किये गये थे, जो गरीब हो गये थे या जिन्हें धोखे से बर्बाद किया गया था। जब ये जुर्म व्यापक क्षेत्र में फैल जाते थे तब उन्हें विद्रोह तथा उपरद्रव कहा जाता था। एक अनुमान के अनुसार 1783 ई. से 1900 ई. तक ग्रामीण क्षेत्रों में 110 उपद्रव हुए। इन उपद्रवों के पीछे जो शिकायतें थी उनका सम्बन्ध भू-राजस्व व्यवस्था, राजस्व की वसूली में बरती गई कठोरता और अनाज की बिक्री को नियमित करने से मना कर देने से था। 1844 ई. में बिक्री कर दुगुना किये जाने के विरोध में हजारों लोगों ने तीन दिन तक प्रदर्शन किया। सरकार ने आदेश वापस ले लिया। 1848 ई. में नाप-तौल के मानकीकरण के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। मुद्रा सम्बन्धी मामलों में नये तरीके अपनाने के विरुद्ध कई नगरों में व्यापारियों ने हड़ताल की। 1810-11 ई. में बनारस में गृह-कर के विरोध में विरोध प्रदर्शन हुए।

अफीम और नील के किसानों द्वारा विद्रोह

बंगाल में ब्रिटिश अधिकारी बलपूर्वक अफीम की खेती करवाते थे। इसलिए बंगाल की बहुसंख्यक रैयत ब्रिटिश प्रशासकों से नाराज थी। कुछ लोग जमींदारों द्वारा लगाये गये अवैध करों से भी पेरशान थे। ऐसी स्थिति में फैराजी सुधारक नेता शरियतुल्ला के पुत्र दूधू मियां ने किसानों को विद्रोह के लिए संगठित किया। उसने बारसाल, जैसोर, पाबना, माल्दा और ढाका में खलीफा नियुक्त कर दिये। उसने किसानों को स्वयं अपनी पंचायतें गठित करने और ब्रिटिश न्यायालयों का बहिष्कार करने के लिये उकसाया। 1831 ई. में कलकत्ता के निकट बारसाल में टीटू मीर ने, जो एक जुलाहा था तथा एक जमींदार का लठियल रह चुका था, किसानों को विद्रोह के लिए संगठित किया। टीटू मीर को सैयद अहमद बरेलवी से, अँग्रेजों से स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की प्रेरणा मिली थी। बारसाल विद्रोह जमींदारों द्वारा लगाये गये दाड़ी कर और अँग्रेजी शासन के विरुद्ध था। किसानों ने एक नील फैक्ट्री पर हमला करके सारे दस्तावेज नष्ट कर दिये। 1837 ई. में फिर से विद्रोह हुए जिससे अँग्रेज काफी आतंकित हो गये। क्योंकि यह विद्रोह उस समय हुए जब अफगान सीमा पर स्वतंत्र राज्य स्थापित करने हेतु सैयद अहमद के नेतृत्व में एक बड़ा वहाबी आंदोलन चल रहा था। 1843 ई. और 1847 ई. में भी विद्रोह हुए। 1861 ई. में एक बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह का प्रचार दीनबन्धु मित्रा द्वारा लिखे गये नाटक नील दर्पण द्वारा हुआ। एक अँग्रेज अधिकारी ने उस नाटक का अँग्रेजी में अनुवाद किया।

साम्प्रदायिक कारणों से विद्रोह

1766 ई. और 1791 ई. में जब मालाबार पर हैदरअली और टीपू सुल्तान का शासन था, तब मलाबार के हिन्दू जमींदार, जिन्हें जम्मी कहा जाता था, मुसलमानों के हमलों से तंग आकर दक्षिण की ओर भाग गये। उनकी जमींनों पर मोपला किसानों (मुसलमान किसानों) ने कब्जा कर लिया। 1796 ई. में जब यह क्षेत्र अँग्रेजों के नियंत्रण में आ गया तब जम्मी वापिस लौट आये और उन्होंने अपनी जमीनों पर अधिकार मांगा। अँग्रेजों ने जम्मियों को उनकी जमीनें लौटा दीं तथा उन्हें यह अधिकार दिया कि वे लोग उनकी जमीन पर खेती करने वाले किसानों अर्थात् रैयत को अपनी इच्छानुसार बेदखल कर सकते हैं। जम्मियों को यह अधिकार मलाबार क्षेत्र पर शासन करने वाले मैसूर के हिन्दू राजाओं के समय में भी मिला हुआ था। जम्मियों ने अपनी जमीनों पर अधिकार मिलते ही मनमाने ढंग से लगान की दरें बढ़ा दीं तथा जिन किसानों ने लगान नहीं दिया, उन्हें जमीनों से बेदखल कर दिया। इससे मोपला काश्तकारों ने जम्मियों के विरुद्ध हिंसक विद्रोह किया। 1836 ई. से 1840 ई. के मध्य जम्मियों पर सोलह बड़े आक्रमण हुए। 1840 ई. में यह विद्रोह चरम पर पहुंच गया। जिन लोगों ने इन हमलों में भाग लिया, उनमें से अधिकांश लोग सैयद अली और उसके पुत्र सैयद फजल से प्रभावित होने के कारण धार्मिक उन्माद से ग्रस्त थे। 1851 ई. में मोपलाओं का पुनः विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के बाद सैयद फजल मलाबार से चला गया। 1854 ई. में अँग्रेजों ने अपराधियों के विरुद्ध कठोर कानून बनाये। इससे 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्रोहों की संख्या कम हो गई।

धार्मिक एवं सामाजिक कारणों से हुए विद्रोह

1813 ई. से पूर्व भारत में ईसाई मिशनरियों के आगमन पर रोक लगी हुई थी तथा उन्हें भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति नहीं दी गई थी। 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति दी गई, तब भी उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सरकारी संरक्षण नहीं दिया गया। इस कारण मिशनरी पादरी, शिक्षा के माध्यम से अपने धर्म का प्रचार करने लगे। 1854 ई. के बाद जब गैर-ईसाई निजी स्कूलों को अनुदान देने का निर्णय लिया गया, तब ईसाई मिशनरी स्कूलों को भी सरकारी अनुदान दिया जाने लगा। जब सती-प्रथा को एक कानून द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया तब कई हजार हिन्दुओं ने इस कानून के विरोध में कलकत्ता में प्रदर्शन किया। इस अवधि में विलियम बैंटिक द्वारा एक कानून बनाया गया जिसके अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा धर्म-परिवर्तन कर लेने पर वह अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। यह अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई धर्म-प्रचार को प्रोत्साहन था। 1856 ई. में एक कानून द्वारा विधवा-विवाह की अनुमति दे दी गई। जब ब्रह्मा मेरिजेज एक्ट और सहवास-वय अधिनियम पारित किये गये तब मध्यम वर्ग के भारतीयों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करके तथा याचिका देकर विरोध प्रकट किया। विरोध प्रदर्शन करने वाले यद्यपि समाज सुधारों के पक्ष में थे किन्तु वे यह नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार, कानून बनाकर सुधारों को लागू करे। 1837-38 ई. में जब अँग्रेजी भाषा को सरकारी भाषा बनाया गया, तब हजारों मुसलमानों ने इसका विरोध किया।

निष्कर्ष

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन की पहली शताब्दी में भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग कारणों से विद्रोह हुए किंतु उनके मूल में कुछ कारण बिल्कुल स्पष्ट और एक जैसे थे। अँग्रेजों की नई प्रशासनिक व्यवस्था के कारण लोगों को उनके परम्परागत कामों से हटाया जा रहा था। भू-राजस्व में वृद्धि करके किसानों से जमीनें छीनी जा रही थीं। अधिकांश विद्रोह उस स्थिति में हुए जिनमें अकाल की स्थिति होने पर भी राजस्व में छूट नहीं दी गई थी और राजस्व वसूली में पूरी सख्ती बरती गई थी। 1857 ई. तक आते-आते समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं था जिसमें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असन्तोष की भावना न हो। यही कारण है कि 1857 ई. में भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्यापक सशस्त्र क्रांति हुई।

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