अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के सबसे चमकते हुए सितारों में से एकथी महारानी लक्ष्मी बाई जिस पर प्रत्येक हिन्दू को गर्व है। महारानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों को भारतीय नारी की शक्ति से परिचित करवाया!
अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में राजपूताने के बड़े राजा न केवल क्रांति के विरोधी बने रहे अपितु अंग्रेजों को संजीवनी भी देते रहे। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, कोटा, बूंदी, झालावाड़, डूंगरपुर, बासंवाड़ा, सिरोही, प्रतापगढ़, जैसलमेर, भरतपुर तथा धौलपुर रियासतों के राजा-महाराजा नहीं चाहते थे कि यह क्रांति सफल हो। उदयपुर का महाराणा तथा करौली के महाराजा चाहते तो थे कि यह क्रांति विफल हो किंतु वे क्रांतिकारियों की सहायता करने में असमर्थ थे।
यद्यपि भारत की अधिकांश मुस्लिम रियासतें लाल किले में बैठे बहादुरशाह जफर को फिर से भारत का शासक बनाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए थीं तथापि राजपूताने की एकमात्र मुस्लिम रियासत टोंक इस क्रांति के समय अंग्रेजों की सहायता कर रही थी क्योंकि टोंक का प्रथम नवाब अमीर खाँ एक कुख्यात पिण्डारी हुआ करता था जिसे अंग्रेजों ने टोंक का नवाब बना दिया था तथा राजपूताने में एकमात्र मुस्लिम रियासत की स्थापना की थी। इस रियासत को अस्तित्व में आए अभी पचास साल ही हुए थे।
बीकानेर एवं जोधपुर के राजाओं ने क्रांतिकारी सैनिकों के भय से जंगलों में भाग गए अंग्रेज अधिकारियों के परिवारों को ढूंढ-ढूंढ कर अपने महलों में बुलवाया तथा उन्हें अभयदान दिया। वस्तुतः राजपूताना ने ही अंग्रेजी शासन को जीवन दान दिया।
राजपूताना के राजाओं के इस रवैये का कारण राजाओं एवं सामंतों के बीच चल रहे खराब सम्बन्धों को ठहराया जा सकता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने विगत चालीस सालों से सामंतों की गतिविधियों एवं उच्छृंखलताओं पर रोक लगाकर देशी राजाओं एवं महाराजाओं के राज्यों को स्थायित्व एवं सुरक्षा प्रदान की थी।
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भले ही राजपूताना के बड़े राजा कम्पनी सरकार का साथ दे रहे थे किंतु देश के अन्य हिस्सों के कुछ राजा, कम्पनी सरकार के खिलाफ थे तथा इस क्रांति में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। इनमें से महारानी लक्ष्मीबाई भी एक थी।
हम पूर्व की कड़ियों में चर्चा कर चुके हैं कि ईस्वी 1857 की क्रांति की चिन्गारी अंग्रेजों से असंतुष्ट मराठों के खेमे से ही उठी थी। क्योंकि अंग्रेजों ने ईस्वी 1851 में अंग्रेजों की पेंशन पर पल रहे पेशवा बाजीराव (द्वितीय) की मृत्यु हो जाने पर उसके दत्तक पुत्र ढोन्ढू पन्त को पेशवा मानने और पेंशन देने से मना कर दिया था। इस पर उसने राष्ट्रव्यापी क्रांति की योजना बनाई जिसमें देश के बहुत से तत्व स्वतः ही जुड़ते चले गए थे। हम एक बार पुनः मराठा शिविर की ओर चलते हैं जहाँ महारानी लक्ष्मी बाई तथा तात्या टोपे की शौर्य-गाथाएं हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं।
ईस्वी 1853 में झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई तथा अंग्रेजों ने उसके दत्तक शिशु पुत्र दामोदर राव को झाँसी का राजा मानने से मना कर दिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को 60 हजार रुपए मासिक पेंशन स्वीकार की तथा उसे अपने दत्तक पुत्र को लेकर महल खाली करके चले जाने के आदेश दिए। जब कम्पनी सरकार ने झांसी को ब्रिटिश क्षेत्र में सम्मिलित करने का निर्णय लिया तो लक्ष्मीबाई ने कहा कि वह अपनी झांसी नहीं देगी। झाँसी राज्य को समाप्त होता देखकर झाँसी के सैनिकों में भी अँग्रेजों के विरुद्ध असन्तोष व्याप्त हो गया।
5 जून 1857 को झाँसी की सेना ने विद्रोह किया तथा झाँसी में मौजूद अँग्रेज अधिकारियों को दुर्ग में घेरकर 8 जून 1857 को उनकी हत्या कर दी। आरम्भ में रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का समर्थन नहीं किया तथा सागर डिवीजन के कमिशनर को पत्र लिखकर अपनी स्थिति भी स्पष्ट की। ब्रिटिश कमिश्नर अर्सकाइन ने रानी लक्ष्मीबाई को झांसी के प्रशासन का उत्तरदायित्व सौंपा, फिर भी अँग्रेजों ने झाँसी की घटनाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई को दोषी ठहराया।
जब ओरछा तथा दतिया के शासकों ने झाँसी पर आक्रमण किया, तब भी रानी लक्ष्मीबाई अँग्रेजों से सहायता प्राप्त करना चाहती थी किन्तु अँग्रेजों ने उसे सन्देह की दृष्टि से देखा। विवश होकर रानी ने झाँसी के विद्रोहियों का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। रानी का दमन करने के लिए सर ह्यूरोज सेना लेकर बुन्देलखण्ड की ओर आया। रानी ने स्वयं सेना का संचालन किया।
ग्वालियर से तांत्या टोपे भी रानी लक्ष्मीबाई की सहायता के लिए आ पहुँचा किन्तु कुछ देशद्रोहियों ने किले के फाटक खोल दिये जिससे अंग्रेजों की सेना झांसी के किले के भीतर आ गई। अतः रानी लक्ष्मीबाई 4 अप्रैल 1858 को अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर रात के अन्धेरे में नगर से बाहर चली गई और ग्वालियर, गुना, बीना तथा बारां होती हुई राजपूताना के झालावाड़ नगर के निकट कालीसिंध नदी के किनारे तक आ पहुंची।
जब झालावाड़ के राजराणा पृथ्वीसिंह को अपने सैनिकों से ज्ञात हुआ कि महारानी अँग्रेजों से लड़ती हुई कालीसिंध के तट पर आकर ठहरी है तो राजराणा ने महारानी लक्ष्मी बाई को महल में आमंत्रित किया। महारानी महारानी लक्ष्मी बाई की दशा देखकर पृथ्वीसिंह को भारत भूमि की दुर्दशा का बोध हुआ। पृथ्वीसिंह ने महारानी को दो दिन तक अपने महल में ठहराया तथा उसे नये वस्त्र प्रदान किये।
अँग्रेजी सेनाएं महारानी लक्ष्मी बाई का पीछा करती हुई झालावाड़ तक आ पहुंचीं। इस पर महारानी को झालावाड़ छोड़ना पड़ा। महारानी बहादुरी से लड़ती हुई कालपी पहुँच गयी। ह्यूरोज भी रानी का पीछा करते हुए कालपी आ पहुँचा। कालपी में दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुआ। मई 1858 में कालपी पर अग्रेजों का अधिकार हो गया।
वहाँ से रानी ग्वालियर पहुँची तथा ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ह्यूरोज भी रानी का पीछा करता हुआ ग्वालियर पहुँचा और रानी को घेर लिया। रानी ने यहाँ से भी निकलने का प्रयास किया किन्तु उसका घोड़ा एक नाला पार करते समय वहीं गिर गया। रानी स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गई। वहीं पर उसकी देह छूट गई।
असीम धैर्य, साहस, स्वाभिमान और पराक्रम का परिचय देकर महारानी ने अँग्रेजों को खूब छकाया और अंत में मानव जाति के इतिहास में अपना नाम सबसे ऊपर लिखवा कर अमर हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान ने महारानी लक्ष्मी बाई को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है-
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता