Saturday, July 27, 2024
spot_img

अध्याय – 65 : क्रांतिकारी आन्दोलन – 7

क्रांतिकारी आन्दोलन की असफलता के कारण

क्रांतिकारी आंदोलन भारत को अँग्रेजी शासन से मुक्त करवाने के उद्देश्य से आरम्भ किया गया था परन्तु यह आंदोलन अँग्रेजों से सत्ता नहीं छीन सका। यद्यपि यह कहना उचित नहीं है कि भारत में क्रांतिकारी आंदोलन सफल नहीं रहा तथापि इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि भारत का क्रांतिकारी आन्दोलन, अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका!

(1.) केन्द्रीय संगठन का अभाव: क्रांतिकारियों की असफलता का मुख्य कारण उनके केन्द्रीय संगठन का अभाव था। इस कारण विभिन्न प्रान्तों के क्रांतिकारियों की गतिविधियों में सहयोग और समन्वय स्थापति नहीं हो सका। विभिन्न प्रान्तों के क्रांतिकारी अपने-अपने क्षेत्र में भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग क्रांतिकारी गतिविधियां चलाते थे जिनके माध्यम से शक्ति-सम्पन्न ब्रिटिश सत्ता का अन्त किया जाना सम्भव नहीं था।

(2.) समाज के सहयोग का अभाव: भारतीय समाज के अत्यंन्त सीमित वर्ग ने क्रांतिकारियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। उन्हें किसानों, श्रमिकों, व्यापारियों, मध्यम वर्ग तथा कांग्रेस का समर्थन नहीं मिला। समाज का उच्च वर्ग हिंसा के मार्ग से भय खाता था और खुले रूप से क्रांतिकारियों का विरोध करता था। मध्यम वर्ग अपने बच्चों को  हत्या, डकैती, लूट, तोड़-फोड़ के मार्ग पर नहीं जाने देना चाहता था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आशुतोष मुकर्जी जैसे नेताओं ने तो सरकार से क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए कठोर कदम उठाने का आग्रह किया।

(3.) साधनों का अभाव: क्रांतिकारियों के पास साधनों का अभाव हर समय बना रहा। वे बड़ी कठिनाई से अस्त्र-शस्त्र जुटा पाते थे। उन्हें गुप्त रूप से कार्य करना पड़ता था, जबकि सरकार का खुफिया विभाग इतना कुशल और जागरूक था कि क्रांतिकारियों की अधिकांश गतिविधियों का सरकार को पता लगा जाता था और सरकार क्रांतिकारियों की योजनाओं को विफल बना देती थी।

(4.) कांग्रेसी नेताओं द्वारा कड़ा विरोध: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी स्वतंत्रता का आंदोलन चला रही थी। इसके नेताओं में लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल तथा सुभाष चंद्र बोस ही ऐसे गिने-चुने कांग्रेसी थे जो क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखते थे। कांग्रेस के उदारवादी नेता तो अपने ही दल के उग्रवादी नेताओं को ही सहन करने को तैयार नहीं थे ऐसी स्थिति में वे क्रांतिकारियों को कैसे सहन कर सकते थे। बाद में जब मोहनदास गांधी कांग्रेस के नेता हो गये तब उन्होंने क्रांतिकारियों की गतिविधियों का कड़ा विरोध किया क्योंकि उनका अहिंसा का सिद्धान्त क्रांतिकारियों के किसी भी सिद्धांत से मेल नहीं खाता था। 

(5.) सरकार द्वारा क्रांतिकारियों का कठोर दमन: भारत की गोरी सरकार क्रांतिकारियों का कठोरता से दमन कर रही थी और उन्हें फांसी पर चढ़ा रही थी। इस कारण क्रांतिकारी आंदोलन को जनता का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा समर्थन कांग्रेस के अहिंसावादी आंदोलन को मिला जिसमें अधिकतम सजा पुलिस की लाठियां और कुछ दिनों की जेल थी। सरकार ने 1907 ई. में सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 1908 ई. में विद्रोही सभा अधिनियम पारित किया तथा फौजदारी कानून को अधिक कठोर बनाकर उसका सख्ती से पालन करने की आज्ञा दी। 1908 ई. एवं 1910 ई. में प्रेस अधिनियम द्वारा समाचार पत्रों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये गये। 1911 ई. में सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक सभाओं पर नियंत्रण रखने के लिये अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया। क्रांतिकारियों को फांसी, आजीवन कारावास तथा निर्वासन से कम सजा नहीं दी जाती थी। ऐसी दमनकारी नीति के सामने क्रांतिकारी अधिक समय तक टिके नहीं रह सके।

(6.) साथियों द्वारा विश्वासघात: कुछ क्रांतिकारी पकड़े जाने पर, पुलिस की ज्यादतियों का सामना नहीं कर पाते थे और अपने संगठन के गुप्त भेद पुलिस को दे देते थे। इस कारण क्रांतिकारियों की बहुत सी योजनाएं विफल हो जाती थीं तथा बड़ी संख्या में क्रांतिकारी पकड़ लिये जाते थे। कई बार जनता में से भी कोई व्यक्ति पुरस्कार के लालच में पुलिस का मुखबिर बनकर क्रांतिकारियों को पकड़वा देता था। 

राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारियों का योगदान

कांग्रेस समर्थक इतिहासकारों का मानना है कि राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि इन्हें कोई सफलता नहीं मिली परन्तु ऐसा कहना देशभक्त क्रांतिकारियों के प्रति घोर अन्याय करना है। सफलता ही किसी आंदोलन के योगदान की एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती। कांग्रेस द्वारा समर्थित खिलाफत आंदोलन (नवम्बर 1919-24 ई.), कांग्रेस द्वारा संचालित असहयोग आंदोलन (अगस्त 1920-फरवरी 1922 ई.) और कांग्रेस द्वारा प्रेरित भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.) आदि आंदोलनों के उद्देश्य पूरे नहीं हो सके थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की आजादी में इन आंदोलनों को कोई योगदान नहीं था। भारत में बंग-भंग (1905 ई.) से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.) तक चले क्रांतिकारी आंदोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार से हैं-

(1.) नौजवानों को लाठी खाने और जेल जाने की प्रेरणा: क्रांतिकारी भले ही देश को आजाद नहीं करवा पाये किंतु उन्होंने देश को तेजी से आजादी की तरफ बढ़ाया। उन्होंने अपने देश को स्वतंत्र करवाने के लिये लोगों को अपने प्राण न्यौछावर करने की प्रेरणा दी। क्रांतिकारियों द्वारा अपने प्राणों का त्याग करके जन-साधारण के के समक्ष आदर्श उत्पन्न किया ताकि वे राजनीतिक दलों द्वारा संचालित आंदोलनों में खुल कर भाग ले सकें और अपने शरीर पर पुलिस के डण्डों का वार सह सकें। हजारों नौजवान अपनी नौकरियां छोड़कर जेल जाने की हिम्मत भी इसलिये कर सके क्योंकि उनके जैसे सैंकड़ों नौजवान, देश को आजाद करवाने के लिये फांसी के फंदों पर झूल रहे थे। वे मरने के बाद फिर से जन्म लेकर अँग्रेजों को देश से भगाने की शपथ लेते थे। जब युवा क्रांतिकारियों के समूह आजादी के गीत गाते हुए फांसी के फंदों तक जाते थे तो उन युवाओं की रगों में भी खून उबलने लगता था जो क्रांति का मार्ग नहीं अपना सके थे। वस्तुतः कांग्रेस के आंदोलनों में जन साधारण का जुड़ाव क्रांतिकारियों के ही बलिदान का प्रतिफलन था।

(2.) बंग-भंग का निरस्तीकरण: क्रांतिकारियों द्वारा की गई हिंसात्मक कार्यवाहियों के बाद अनेक बार ब्रिटिश सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा। बंग-भंग के विरुद्ध केवल बंगालियों ने नहीं, अपितु देश के अन्य प्रान्तों के लोगों ने भी तीव्र आन्दोलन किया। सरकार ने इस आन्दोलन को निर्ममतापूर्वक कुचला। लाला लाजपतराय तथा बालगंगाधर तिलक को जेल में ठूँसा गया तथा प्रेस एक्ट द्वारा समाचार पत्रों का मुंह बन्द किया गया। सरकार की दमनात्मक कार्यवाहियों ने नवयुवकों को क्रांति के मार्ग पर धकेला। जब क्रांतिकारियों ने अनेक अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला तो क्रांतिकारियों के भय से ही सरकार ने बंगाल का विभाजन रद्द किया।

 (3.) राजधानी का परिवर्तन: बंगाल के क्रांतिकारियों ने पूरे देश के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। उन्हें हथियार और धन उपलब्ध करवाया तथा हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। रास बिहारी बोस ने महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब तथा दिल्ली ही नहीं अपितु जापान में जाकर क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। यही कारण था कि बंगाल के क्रांतिकारियों से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार 1911 ई. में अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले गई। यहाँ भी रास बिहारी बोस के साथियों ने गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग के जुलूस पर उस समय बम फैंका जब वे हाथी पर बैठकर ब्रिटिश राज की नई राजधानी में प्रवेश कर रहे थे।

(4.) पूर्ण स्वराज्य की मांग: कांग्रेस 1885 ई. में अपनी स्थापना से लेकर 1929 ई. तक औपनिवेशिक राज्य (डोमिनियन स्टेटस) का सपना पाले हुए थी जबकि क्रांतिकारियों ने 1905 में बंग-भंग के बाद ही पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया। गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करते समय 1920 ई. में कहा था कि- ‘यदि देश मेरे पीछे चले तो मैं एक वर्ष के भीतर स्वराज्य ला दूँगा।’ क्रांतिकारियों ने गांधी के नये प्रयोग को देखने के लिए दो वर्ष तक अपनी गतिविधियों को स्थगित रखा किन्तु जब गांधी का असहयोग आन्दोलन असफल सिद्ध हुआ तब क्रांतिकारियों को विश्वास हो गया कि अहिंसात्मक तथा संवैधानिक आन्दोलनों से सरकार कुछ भी देने वाली नहीं है। 8 अप्रेल 1929 को बहरी सरकार को जनता की आवाज सुनाने के लिए सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली में बम का धमाका किया। ये दोनों क्रांतिकारी चाहते तो आसानी से भाग सकते थे किंतु वे वहीं खड़े हो गये ताकि पुलिस उन्हें बंदी बना ले। इस बम धमाके के बाद भारत ने आजादी की ओर तेजी से कदम बढ़ाये। जनवरी 1930 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया।

(5.) भारतीय सेनाओं में विद्रोह: क्रांतिकारी सदस्य निरंतर प्रयास करते रहते थे कि भारतीय सैनिक, विदेशी शासकों के विरुद्ध हथियार उठायें। अंत में 1946 ई. में जल-सेना और नौ-सेना में सशस्त्र विद्रोह हुए। भारतीय सैनिकों ने कई अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला। यही वह बिंदु था जब गोरी सरकार ने भारत को सदैव के लिये छोड़ने का निर्णय लिया। इस सफलता का श्रेय केवल दो ही तत्त्वों को दिया जा सकता है- क्रांतिकारियों की प्रेरणा तथा विद्रोही सैनिकों की हिम्मत। इस सफलता का श्रेय अकेली कांग्रेस को किसी भी प्रकार नहीं दिया जा सकता। 

(6.) गांधीजी को समुचित उत्तर: गांधीजी ने बम की पूजा शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने क्रांतिकारियों तथा उनके कृत्यों की घोर निन्दा की। इस पर क्रांतिकारियों ने बम का दर्शन नामक पर्चा जारी किया। इस पर्चे में गांधी को उनकी बातों का समुचित उत्तर दिया गया- ‘कांग्रेस ने 1928 ई. में ब्रिटिश सरकार से कई बातें करने को कहा परन्तु सरकार ने उनकी तनिक भी परवाह नहीं की और राष्ट्र का अपमान भी किया। इसलिए सरकार की नीति का विरोध करने और राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए हमने वायसराय की ट्रेन के नीचे बम रखा। लॉर्ड इरविन द्वारा सम्पूर्ण देश का अपमान किये जाने पर भी गांधीजी 23 दिसम्बर 1929 को वायसराय से मुलाकात करने वाले थे। इसलिए हमने उसी दिन वायसराय की ट्रेन के नीचे बम रखा ताकि गांधी की वायसराय से भेंट न हो। वायसराय के बच जाने एवं गांधी तथा वायसराय की भेंट हो जाने पर भी क्या लाभ हुआ? स्वशासन, औपनिवेशिक स्वराज्य, आत्म-निर्णय का अधिकार आदि मांगें गुलामी की निशानी हैं। क्रांतिकारियों ने तो 25 वर्ष पहले ही पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया था, जबकि कांग्रेस ने केवल इस वर्ष स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया….. गांधीजी अहिंसात्मक आन्दोलन से ब्रिटिश शासकों के मन में परिवर्तन लाना चाहते हैं किन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ है। अतः प्रेम और अहिंसा से ब्रिटिश जाति को जीतने की आशा करना व्यर्थ है।’

(7.) कांग्रेस के नेताओं से अधिक प्रसिद्धि: इसमें कोई संदेह नहीं कि भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला आदि बहुत से क्रांतिकारियों को कांग्रेस के दिग्गज नेताओं से भी अधिक प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता प्राप्त हुई। फांसी के फंदे पर झूलने वाले क्रांतिकारी, युवा दिलों की धड़कन बन गये। लोग अपने बच्चों को इन क्रांतिकारियों के किस्से, महानायकों के किस्सों की भांति सुनाने लगे। कांग्रेस के अध्यक्ष एवं कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले पट्टाभि सीतारमैया ने बेहिचक स्वीकार किया है- ‘कराची में कांग्रेस अधिवेशन के समय सरदार भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही सर्वप्रिय हो चुका था जितना गांधीजी का। कराची अधिवेशन के कुछ दिनों पूर्व ही सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी। इसलिए कांग्रेस ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदानों की सराहना में एक प्रस्ताव पारित किया।’ 

(8.) कांग्रेस से भी अधिक उपलब्धियाँ: वस्तुतः क्रांतिकारियों की कुछ सफलताएं तो कांग्रेस की सफलताओं से भी बहुत आगे थीं। गांधीजी ने जनता में जागृति फैलाने का कार्य किया जबकि क्रांतिकारियों ने जनता में जागृति और क्रांति दोनों फैलाने का कार्य किया। क्रांतिकारी आन्दोलन ने कांग्रेस के आंदोलन को मजबूती प्रदान की तथा उसके लिये पूरक आंदोलन के रूप में कार्य किया। ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों से बहुत घबराती थी इसलिये वह कांग्रेस को राजनीतिक अधिकार प्रदान करती थी। जब सरकार वैधानिक आन्दोलन को कुचलने के लिए भारतीयों पर जुल्म करती तो क्रांतिकारी इसका प्रत्युत्तर बम और बंदूकों से देते थे। इसलिए सरकार कांग्रेस की कुछ बातें मान लेती थी तथा क्रांतिकारियों को कुचलने की नीति जारी रखती थी। क्रांतिकारियों का मार्ग अत्यंत कठिन था। कांग्रेस ने भारत की जनता से करोड़ों रुपयों का चंदा एकत्रित किया जबकि क्रांतिकारियों के पास आर्थिक संसाधनों का अभाव रहता था। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने लिखा है- ‘हमारी जाति की मुरझाई हुई मनोवृत्ति पर शहीदों के खून की वह वर्षा काफी उत्तेजक सिद्ध हुई। जिस वन्देमातरम् के कहने पर लोग मारे जाते थे, जन आन्दोलन जब एक स्वप्न था, उस जमाने में इन लोगों ने जो हिम्मत की, उसे कोई अन्धा, मूर्ख, कायर भले ही छोटा बताये, किन्तु हमारी जाति के मन पर उसका जो असर पड़ा, वह बहुत महत्त्वपूर्ण था।’

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि क्रांतिकारी आन्दोलन के अभाव में, कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता संदिग्ध थी। दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों का उदाहरण हमारे सामने है। यदि गोरी सरकार, सत्याग्रहों, असहयोग तथा उपवासों से डर कर आजादी देती तो इन देशों को अपनी स्वतंत्रता के लिये उतना रक्त नहीं बहाना पड़ता जितना कि उन्होंने बहाया। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन का उतना ही महत्त्व है जितना कांग्रेस द्वारा चलाये गये संवैधानिक आन्दोलन का।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source