Saturday, October 12, 2024
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अध्याय – 61 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 3

पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

1904 ई. में जोतीन्द्र मोहन चटर्जी और कुछ नौजवानों ने मिलकर एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय रुड़की में स्थापित किया गया। यहीं पर लाला हरदयाल, अजीतसिंह और सूफी अम्बा प्रसाद भी इस संगठन से जुड़े। इससे पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों में हलचल आई। पंजाब के क्रांतिकारी, लाला हरदयाल के नेतृत्व में काम करते थे और लाला लाजपतराय भी समय-समय पर उनकी सहायता करते रहते थे। उन्हीं दिनों पंजाब सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम द्वारा भूमि की चकबन्दी को हतोत्साहित किया तथा सम्पत्ति के विभाजन के अधिकारों में भी हस्तक्षेप का प्रयास किया। इससे पंजाब की जनता में आक्रोश फैल गया। क्रांतिकारियों ने स्थान-स्थान पर घूमकर संदेश दिया कि आप लोगों ने 1857 ई. में अँग्रेजों का राज बचाया था। आज वही अँग्रेज आपको नष्ट कर रहे हैं। अब समय आ गया है जब आप क्रांति करें, अँग्रेजों पर धावा बोल दें और स्वतंत्र हो जायें।

गांव के लोगों से कहा जाता था कि अँग्रेज आपके कपास और गन्ने के बढ़ते उद्योगों को नष्ट करना चाहते हैं। उन्होंने आप लोगों का सोना-चांदी लेकर बदले में कागज के नोट थमा दिये हैं। जब अँग्रेज चले जायेंगे तो कागजी नोटों के बदले में रुपया कौन देगा? इस प्रचार में आर्य समाज की गुप्त समितियों का भी हाथ था। ब्रिटिश अधिकारी, लाला लाजपतराय को क्रांतिकारी आन्दोलन का मस्तिष्क और अजीतसिंह को उनका दाहिना हाथ कहते थे। 9 मई 1907 को लाहौर में लालाजी को बंदी बना लिया गया। इससे पंजाब की जनता का आक्रोश तीव्र हो उठा। सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम को निरस्त करके जन-आक्रोश को कम किया। नवम्बर में लालाजी को भी मांडले से लाहौर वापस लाकर रिहा कर दिया गया। इसके बाद कुछ समय के लिए पंजाब में क्रांतिकारियों की गतिविधियों को भी विराम लग गया।

पंजाब में बंगाली क्रांतिकारियों का आगमन

1908 ई. में लाला हरदयाल के भारत छोड़कर यूरोप चले जाने के बाद उनके क्रांतिकारी संगठन का नेतृत्व दिल्ली के मास्टर अमीरचन्द और लाहौर के दीनानाथ ने संभाला। थोड़े दिनों बाद दीनानाथ का सम्पर्क विख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से हुआ। 1910 ई. में रासबिहारी बोस,  जे. एन. चटर्जी के साथ लाहौर आ गये। उन्होंने लाला हरदयाल के गुट का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। रासबिहारी ने पंजाब के विभिन्न भागों में गुप्त समितियां स्थापित कीं। इन समितियों में सम्मिलित होने वाले नवयुवकों को विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता था। रासबिहारी बोस ने पंजाब की गुप्त समितियों को मजबूत बनाने के लिए बंगाल से क्रांतिकारी अमरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के माध्यम से बसन्त विश्वास और मन्मथ विश्वास नामक दो नवयुवकों को पंजाब बुलवाया। बंगाल के क्रांतिकारियों ने पंजाब की गुप्त समितियों को आर्थिक सहायता भी भिजवाई।

क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन

1909 ई. में पंजाब में फिर से क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ आरम्भ हुईं। लाहौर से बड़ी संख्या में क्रांतिकारी साहित्य प्रकाशित हुआ जो लोगों को अँग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिये उकसाता था। लालचन्द फलक, अजीतसिंह, उनके दो भाई किशनसिंह एवं सोवरनसिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद आदि कट्टर क्रांतिकारी इस साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण करवाते थे। लालचन्द ने लाहौर में, वंदेमातरम् बुक एजेन्सी और अजीतसिंह ने भारत माता बुक एजेन्सी खोल रखी थी। जब सरकार को क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण की गोपनीय सूचना मिली तो उसने धर-पकड़ आरम्भ की किंतु अजीतसिंह और अम्बाप्रसाद समय रहते फरार हो गये। सोवरनसिंह सख्त बीमार थे, अतः उनके ऊपर से मुकदमा हटा लिया गया। लालचन्द फलक को चार वर्ष की और किशनसिंह को 10 माह की जेल हुई। कुछ सम्पादकों को भी राजद्रोहपूर्ण लेख लिखने के अपराध में सजा दी गई। पेशवा में एक लेख के लिए जिया उल हक को पांच साल का काला पानी , बेदारी में एक लेख के लिए मुंशी रामसेवक को सात साल का काला पानी दिया गया। सरकार की की कठोर कार्यवाही से पंजाब में क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण लगभग बंद हो गया। बहुत कम मात्रा में छपने वाला क्रांतिकारी साहित्य, क्रांतिकारी संगठनों के विशेष सदस्यों में ही वितरित होता था।

लाहौर षड़यंत्र केस

17 मई 1913 को लाहौर के लारेन्स बाग में कुछ अँग्रेज, शराब पीकर सार्वजनिक स्थल पर दुष्ट प्रदर्शन कर रहे थे। बसंत विश्वास ने उन पर बम फैंका। बसंत का निशाना चूक गया और बम एक भारतीय सरकारी अर्दली पर जा गिरा जो उस समय साइकिल पर बैठकर वहाँ से जा रहा था। इस प्रकरण में बसंत विश्वास को फांसी हो गई। इसे लाहौर षड़यंत्र केस कहते हैं।

कोमागाटामारू प्रकरण

1913 ई. में कनाडा में लगभग चार हजार भारतीय रहते थे, जिनमें सिक्खों की संख्या सर्वाधिक थी। बहुत से भारतीय बर्मा, हांगकांग और शंघाई होते हुए कनाडा तथा अमेरिका जाते थे। भारतीयों की बढ़ती संख्या से कनाडा सरकार चिन्तित हो गई। उसने भारतीयों को कनाडा में आने से रोकने के लिए एक कानून बनाया जिसके अनुसार वही भारतीय कनाडा में उतर सकता था जो भारत से किसी जहाज से सीधा आया हो। उन दिनों कोई भी जहाज भारत से सीधा कनाडा नहीं जाता था। अतः इस नये कानून से कनाडा जाने वाले भारतीयों के लिये मार्ग बंद हो गया। अमृतसर के एक व्यापारी ने गुरुनानक स्टीम नेवीगेशन कम्पनी की स्थापना की और एक जापानी जहाज किराये पर लिया, जिसका नाम कोमागाटामारू था। इस जहाज में कनाडा जाने के इच्छुक 376 भारतीयों को बैठा दिया गया।

22 मई 1914 को कोमागाटामारू जहाज कनाडा के मुख्य बंदरगाह बैंकूवर पहुँचा किन्तु कनाडा सरकार ने जहाज के यात्रियों को उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज को लौट जाने के आदेश दिये। बाबा गुरुदत्त सिंह ने आदेश को मानने से मना कर दिया; क्योंकि जहाज में यात्रियों के लिए भोजन-पानी नहीं था। अनेक यात्री बीमार भी थे। कनाडा पुलिस ने जहाज को लौटाने के लिए यात्रियों पर उबलता हुआ पानी फेंका। इसके उत्तर में यात्रियों ने कनाडा पुलिस पर जलते हुए कोयले फेंके। भारतीयों के जहाज को खदेड़ने के लिए कनाडा का एक जंगी बेड़ा आ गया। विवश होकर कोमागाटामारू जहाज को वापिस भारत की ओर लौटना पड़ा। मार्ग में ब्रिटिश सरकार ने इस जहाज को कहीं भी ठहरने की अनुमति नहीं दी। भोजन-पानी और दवाईयों के अभाव में जहाज के यात्रियों को अमानवीय कष्ट सहन करने पड़े। 29 सितम्बर 1914 को यह जहाज कलकत्ता के बजबज बन्दरगाह पहुँचा।

भारत सरकार को जहाज पर सवार यात्रियों की विद्रोही गतिविधियों के बारे में ज्ञात हो चुका था। बाबा गुरुदत्त सिंह स्वयं क्रांतिकारी थे तथा उनकी लाल हरदयाल के क्रांतिकारी आन्दोलन से बड़ी सहानुभूति थी। अतः भारत सरकार ने, बाबा गुरुदत्त सिंह सहित समस्त यात्रियों को बंदी बनाने के लिये उन्हें बलपूर्वक सरकारी गाड़ी में चढ़ाने का प्रयास किया किंतु यात्रियों ने सरकार की कार्यवाही का विरोध किया। इस पर पुलिस ने गोलियां चलाईं। यात्रियों ने भी पुलिस पर गोलियां चलाईं। इस संघर्ष में 18 सिक्ख मारे गये। बाबा गुरुदत्त सिंह घायल हो गये। बचे हुए यात्री गोलियों की बौछारों में से बाबा को उठाकर भाग गये। सरकार ने बाबा गुरुदत्त सिंह को पकड़वाने वाले के लिए भारी पुरस्कार घोषित किया किन्तु उनका पता नहीं लग सका।

तोशामारू प्रकरण

29 अक्टूबर 1914 को तोशामारू नामक जहाज कलकत्ता पहुंचा। इसमें हांगकांग, शंघाई, मनीला आदि स्थानों से आये 173 भारतीय सवार थे। इनमें से अधिकतर सिक्ख थे। भारत सरकार को सूचना दी गई कि ये लोग भारत में पहुंचकर उपद्रव करेंगे। इसलिये सरकार ने 100 यात्रियों को जहाज से उतरते ही बंदी बना लिया। शेष यात्री पंजाब पहुंच गये। ये लोग 21 फरवरी 1915 की क्रांति की योजना में भाग लेने आये थे किंतु इस क्रांति की योजना का भेद खुल जाने से योजना असफल हो गई।

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