इस्लाम का अर्थ
इस्लाम अरबी भाषा के ‘सलम’ शब्द से निकला है जिसका अर्थ होता है आज्ञा का पालन करना। इस्लाम का अर्थ है आज्ञा का पालन करने वाला। इस्लाम का वास्तविक अर्थ है खुदा के हुक्म पर गर्दन रखने वाला। व्यापक अर्थ में इस्लाम एक धर्म का नाम है, जिसका उदय सातवीं शताब्दी में अरब में हुआ था। इस धर्म के मानने वाले ‘मुसलमान’ कहलाते हैं। मुसलमान शब्द मुसल्लम-ईमान का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। मुसल्लम का अर्थ है पूरा और ईमान का अर्थ है दीन या धर्म। इसलिये मुसलमान उन लोगों को कहते है जिनका दीन इस्लाम में पूरा विश्वास है।
अरब का प्राचीन धर्म
इस्लाम का उदय होने से पहले, अरब वालों के धार्मिक विचार प्राचीन काल में हिन्दुओं के समान थे। वे भी हिन्दुओं की भाँति मूर्ति पूजक थे और उनका अनेक देवी-देवताओं में विश्वास था। जिस प्रकार हिन्दू लोग कुल-देवता, ग्राम-देवता आदि में विश्वास करते थे उसी प्रकार इन लोगों के भी प्रत्येक कबीले का एक देवता होता था, जो उसकी रक्षा करता था। अरब वालों में अन्धविश्वास भी कूट-कूट कर भरा था। उनकी धारणा थी कि भूत-प्रेत वृक्षों तथा पत्थरों में निवास करते हैं और मनुष्य को विभिन्न प्रकार के कष्ट देने की शक्ति रखते हैं। मक्का में काबा नामक प्रसिद्ध स्थान है जहाँ किसी समय 360 मूर्तियों की पूजा होती थी। यहाँ अत्यंत प्राचीन काल से एक काला पत्थर मौजूद है। अरब वालों का विश्वास था कि इस पत्थर को ईश्वर ने आसमान से गिरा दिया था। इसलिये वे इसे बड़ा पवित्र मानते थे और इसके दर्शन तथा पूजन के लिए काबा जाया करते थे। यह पत्थर आज भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है। काबा की रक्षा का भार कुरेश नामक कबीले के ऊपर था, कुरेश कबीले में मुहम्मद साहब का जन्म हुआ जिन्होंने अरब की प्राचीन धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध बहुत बड़ी क्रान्ति की और एक नये धर्म को जन्म दिया, जो इस्लाम-धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मुहम्मद साहब का परिचय: मुहम्मद साहब का जन्म 570 ई. में मक्का के एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम अब्दुल्ला था। उनकी माता का नाम अमीना था। मुहम्मद साहब के जन्म से पहले ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। जब वे छः साल के हुए तो उनकी माता की भी मृत्यु हो गई। जब वे आठ साल के हुए तो उनके दादा की भी मृत्यु हो गई। बारह साल की आयु से उन्होंने अपने चाचा के साथ व्यापार के काम में हाथ बंटाना आरम्भ किया।
मुहम्मद साहब बाल्यकाल से ही बड़े मननशील थे। वे सरल जीवन व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे एक ईश्वर तथा प्रार्थना में उनका विश्वास बढ़ता गया। चालीस वर्ष की अवस्था तक उनके जीवन में कोई विशेष घटना नहीं घटी। एक दिन उन्हें फरिश्ता जिबराइल के दर्शन हुए जो उनके पास ईश्वर का पैगाम अर्थात् संदेश लेकर आया। यह संदेश इस प्रकार से था- ‘अल्लाह का नाम लो, जिसने सब वस्तुओं की रचना की है।’ इसके बाद मुहम्मद साहब को प्रत्यक्ष रूप में ईश्वर के दर्शन हुए और यह संदेश मिला- ‘अल्लाह के अतिरिक्त कोई दूसरा ईश्वर नहीं है और मुहम्मद उसका पैगम्बर है।’
अब मुहम्मद साहब ने अपने मत का प्रचार करना आरम्भ किया। उन्हांेने अपने ज्ञान का पहला उपदेश अपनी पत्नी खदीजा को दिया। उन्होंने मूर्तिपूजा तथा बाह्याडम्बरों का विरोध किया। अरब वासियों ने उनके विचारों का स्वागत नहीं किया और उनका विरोध करना आरम्भ कर दिया। विवश होकर 28 जून 622 ई. को उन्हें अपनी जन्मभूमि मक्का को छोड़ देना पड़ा। वे मदीना चले गये। यहीं से मुसलमानों का हिजरी संवत् आरम्भ होता है। हिजरी अरबी के हज्र शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है जुदा या अलग हो जाना। चूंकि मुहम्मद साहब मक्का से अलग होकर मदीना चले गये इसलिये इस घटना को ‘हिजरत’ कहते है। मदीना में मुहम्मद साहब का स्वागत हुआ। वे वहाँ पर नौ वर्ष तक रहे। उनके अनुयायियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। 632 ई. में मुहम्मद साहब का निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी खलीफा कहलाये।
मुहम्मद साहब का उपदेश
मुहम्मद साहब ने जिस धर्म का प्रचार किया उसके उपदेश ‘कुरान’ में संकलित हैं। कुरान अरबी भाषा केे ‘किरन’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है निकट या समीप। इस प्रकार कुरान वह ग्रन्थ है, जो लोगों को ईश्वर के निकट ले जाता है। मुहम्मद साहब का एक ईश्वर में विश्वास था, जिसका न आदि है न अन्त, अर्थात् न वह जन्म लेता है और न मरता है। वह सर्वशक्तिमान्, सर्वद्रष्टा तथा अत्यन्त दयावान है। मुहम्मद साहब का कहना था कि चूंकि समस्त इंसानों को अल्लाह ने बनाया है इसलिये समस्त इंसान एक समान है। मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों से कहा था- ‘सच्चे धर्म का यह तात्पर्य है कि तुम अल्लाह, कयामत, फरिश्तों, कुरान तथा पैगम्बर में विश्वास करते हो और अपनी सम्पत्ति को दीन-दुखियों को खैरात में देते रहो।’ अल्लाह अरबी के ‘अलह’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है पाक या पवित्र, जिसकी पूजा करनी चाहिए। कमायत अरबी के ‘कयम’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है खड़ा होना। कयामत अर्थात् प्रलय के दिन मुर्दों को अपनी कब्रों से निकल कर खड़ा होना पड़ेगा। कयामत का वास्तविक अर्थ है दुनिया का मिट जाना। फरिश्ता का शाब्दिक अर्थ होता है मिलाप या एक चीज का दूसरी चीज से मेल। खुदा के पास से पैगाम लेकर जो फरिश्ता हजरत मुहम्मद के पास उतरा था, उसका नाम जिबराइल था। फरिश्ते वे पवित्र आत्माएँ हैं, जो ईश्वर तथा मनुष्य में सामीप्य स्थापित करती हैं। कुरान में मुहम्मद साहब के उपदेशों का संग्रह है। चूंकि मुहम्मद साहब ने लोगों को ईश्वर का पैगाम दिया इसलिये वे पैगम्बर कहलाते हैं। कुरान के अनुसार प्रत्येक मुसलमान के पांच कर्त्तव्य हैं- कलमा, नमाज, जकात, रमजान तथा हज। कलमा अरबी भाषा के ‘कलम’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है शब्द। कलमा का अर्थ होता है ईश्वर वाक्य अर्थात् जो कुछ ईश्वर की ओर से लिखकर आया है कलमा है। नमाज का अर्थ खिदमत या बंदगी करना है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- नम तथा आज। नम का अर्थ होता है ठण्डा करने वाली या मिटाने वाली और आज का अर्थ होता है वासनाएँ अथवा बुरी इच्छाएँ। इस प्रकार नमाज उस प्रार्थना को कहते हैं जिससे मनुष्य की बुरी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। नमाज दिन में पाँच बार पढ़ी जाती है- प्रातःकाल, दोपहर, तीसरे पहर, संध्या समय तथा रात्रि में। शुक्रवार को समस्त मुसलमान इकट्ठे होकर नमाज पढ़ते हैं। जकात का शाब्दिक अर्थ होता है ज्यादा होना या बढ़ना परन्तु इसका व्यावहारिक अर्थ होता है भीख या दान देना। चूंकि भीख या दान देने से धन बढ़ता है इसलिये जो धन दान दिया जाता है उसे ‘जकात’ कहते हैं। प्रत्येक मुसलमान को अपनी आय का चालीसवाँ हिस्सा खुदा की राह में, अर्थात् दान में दे देना चाहिए। रमजान चाँद का नौवाँ महीना होता है। रमजान अरबी में ‘रमज’ शब्द से बना है; जिसका अर्थ होता है शरीर के किसी अंग को जलाना। चूंकि इस महीने में रोजा या व्रत रखकर शरीर को जलाया जाता है इसलिये इसका नाम ‘रमजान’ रखा गया है। रोजा में सूर्य निकलने के बाद और सूर्यास्त के पहले खाया-पिया नहीं जाता। रोजा रखने से बरकत (वृद्धि) होती है और कमाई बढ़ती है। हज का शाब्दिक अर्थ होता है इरादा परन्तु इसका व्यावहारिक अर्थ होता है मक्का में जाकर बन्दगी करना। प्रत्येक मुसलमान का यह धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवन में कम से कम एक बार मक्का जाकर बन्दगी करे।
इस्लाम के अनुयायी दो सम्प्रदायों में विभक्त हैं- शिया और सुन्नी। शिया का शाब्दिक अर्थ होता है गिरोह परन्तु व्यापक अर्थ में शिया उस सम्प्रदाय को कहते हैं जो केवल अली को मुहम्मद साहब का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता है, पहले तीन खलीफाओं को नहीं। सुन्नी शब्द अरबी के ‘सुनत’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है मुहम्मद के कामों की नकल करना। सुन्नी उस सम्प्रदाय को कहते है, जो प्रथम तीन खलीफाओं को ही मुहम्मद साहब का वास्तविक उतराधिकारी मानता है, मुहम्मद साहब के दामाद अली को नहीं। शिया सम्प्रदाय का झण्डा काला होता है और सुन्नी सम्प्रदाय का सफेद।
खलीफाओं का उत्कर्ष
खलीफा अरबी के ‘खलफ’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है लायक बेटा अर्थात् योग्य पुत्र परन्तु खलीफा का अर्थ है जाँ-नशीन या उत्तराधिकारी। मुहम्मद साहब की मृत्यु के उपरान्त जो उनके उत्तराधिकारी हुए, वे खलीफा कहलाये। प्रारम्भ में खलीफा का चुनाव होता था परन्तु बाद में यह पद आनुवंशिक हो गया। मुहम्मद साहब के मरने के बाद अबूबकर, जो कुटम्ब में सर्वाधिक बूढ़े तथा मुहम्मद साहब के ससुर थे, प्रथम खलीफा चुन लिए गये। वे बड़े ही धर्मपरायण व्यक्ति थे। उनके प्रयास से मेसोपोटमिया तथा सीरिया में इस्लाम धर्म का प्रचार हुआ। अबूबकर के मर जाने पर 634 ई. में उमर निर्विरोध चुन लिये गये। उन्होंने इस्लाम के प्रचार में जितनी सफलता प्राप्त की उतनी सम्भवतः अन्य किसी खलीफा ने न की। उन्होंने इस्लाम धर्म के अनुयायियों की एक विशाल तथा योग्य सेना संगठित की और साम्राज्य विस्तार तथा धर्म प्रचार का कार्य साथ-साथ आरम्भ किया। जिन देशों पर उनकी सेना विजय प्राप्त करती थी वहाँ के लोगों को मुसलमान बना लेती थी और वहाँ पर इस्लाम का प्रचार आरम्भ हो जाता था। इस प्रकार थोड़े ही समय में फारस, मिस्र आदि देशों में इस्लाम का प्रचार हो गया।
उमर के बाद उसमान खलीफा हुए परन्तु थोड़े ही दिन बाद उनकी विलास प्रियता के कारण उनकी हत्या कर दी गई और उनके स्थान पर अली खलीफा चुन लिये गये। कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। इस प्रकार गृह युद्ध आरम्भ हो गया और इस्लाम के प्रचार में भी शिथिलता आ गई। अन्त में अली का वध कर दिया गया। अली के बाद उनका पुत्र हसन खलीफा चुना गया परन्तु उसमें इस पद को ग्रहण करने की योग्यता न थी। इसलिये उसने इस पद को त्याग दिया। अब सीरिया का गवर्नर मुआविया, जो खलीफा उमर के वंश का था, खलीफा चुन लिया गया। हसन ने मुआविया के पक्ष में खलीफा का पद इस शर्त पर त्यागा था कि खलीफा का पद निर्वाचित होगा, आनुवांशिक नहीं परन्तु खलीफा हो जाने पर मुआविया के मन में कुभाव उत्पन्न हो गया और वह अपने वंश की जड़ जमाने में लग गया। उसने मदीना से हटकर दमिश्क को खलीफा की राजधानी बना दिया। चूंकि वह उमर के वंश का था, इसलिये दश्मिक के खलीफा उमैयद कहलाये।
मुआविया लगभग बीस वर्ष तक खलीफा के पद पर रहा। इस बीच में उसने अपने वंश की स्थिति अत्यन्त सुद्धढ़ बना ली। हसन के साथ उसने जो वादा किया था उसे तोड़ दिया और अपने पुत्र यजीद को अपना उतराधिकारी नियुक्त किया। इससे बड़ा अंसतोष फैला। इस अंसतोष का नेतृत्व अली के पुत्र तथा हसन के भाई इमाम हुसैन ने ग्रहण किया। उन्होंने अपने थोड़े से साथियों के साथ फरात नदी के पश्चिमी किनारे के मैदान में उमैयद खलीफा की विशाल सेना का बड़ी वीरता तथा साहस के साथ सामना किया। इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख को तलवार के घाट उतार दिये गये। जिस मैदान में इमाम हुसैन ने अपने प्राणों की आहुति दी, वह कर्बला कहलाता है। कर्बला दो शब्दों से मिलकर बना है- कर्ब तथा बला। कर्ब का अर्थ होता है मुसीबत और बला का अर्थ होता है दुःख। चूंकि इस मैदान में मुहम्मद साहब की कन्या के पुत्र का वध किया गया था इसलिये इस मुसीबत और दुःख की घटना के कारण इस स्थान का नाम कर्बला पड़ गया। मुहर्रम मुसलमानों के वर्ष का पहला महीना है। चूंकि इस महीने की दसवीं तारीख को इमाम हुसैन की हत्या की गई थी इसलिये यह शोक और रंज का महीना माना जाता है। मुसलमान लोग मुहर्रम का त्यौहार मनाते हैं।
इमाम हुसैन के बाद अब्दुल अब्बास नामक व्यक्ति ने इस लड़ाई को जारी रखा। अन्त में वह सफल हुआ और उसने उमैयद वंश के एक-एक व्यक्ति का वध करवा दिया। अब्बास के वंशज अब्बासी कहलाये। इन लोगों ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। बगदाद के खलीफाओं में हारूँ रशीद का नाम बहुत विख्यात है, जो अपनी न्याय-प्रियता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। अन्त में तुर्कों ने बगदाद के खलीफाओं का अन्त कर दिया। खलीफाओं ने मिस्त्र में जाकर शरण ली। खलीफाओं ने इस्लाम की एक बहुत बड़ी सेवा की। उन्होंने इस्लाम का दूर-दूर तक प्रचार किया। इन्हीं लोगों ने भारत में भी इसका प्रचार किया।
इस्लाम का राजनीति स्वरूप
इस्लाम आरम्भ से ही राजनीति तथा सैनिक संगठन से सम्बद्ध रहा। मुहम्मद साहब के जीवन काल में ही इस्लाम को सैनिक तथा राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया था। जब 622 ई. में मुहम्मद साहब मक्का से मदीना गये तब वहाँ पर उन्होंने अपने अनुयायियों की एक सेना संगठित की और मक्का पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने सैन्य-बल से मक्का में सफलता प्राप्त की। मुहम्मद साहब न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिये गये वरन् वे राजनीति के भी प्रधान बन गये और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गये। इस प्रकार मुहम्मद साहब के जीवन काल में इस्लाम तथा राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के उपरान्त जब खलीफाओं का उत्कर्ष हुआ, तब भी इस्लाम तथा राजनीति में अटूट सम्बन्ध बना रहा क्योंकि खलीफा भी न केवल इस्लाम के अपितु राज्य के भी प्रधान होते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य का शासन कुरान के अनुसार होने लगा। इससे राज्य में मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव बढ़ा। राज्य ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया जिसके फलस्वरूप अन्य धर्म वालों के साथ अन्याय तथा अत्याचार किया जाने लगा। खलीफा उमर ने अपने शासन काल में इस्लाम के अनुयायियों को सैनिक संगठन में परिवर्तित कर दिया। इसका परिणम यह हुआ कि जहाँ कहीं खलीफा की सेनायें विजय के लिये गईं, वहाँ पर इस्लाम का प्रचार किया गया। यह प्रचार शान्ति पूर्वक सन्तों द्वारा नहीं वरन् राजनीतिज्ञों और सैनिकों द्वारा बलात् तलवार के बल से किया गया। परिणाम यह हुआ कि जहाँ कहीं इस्लाम का प्रचार हुआ वहाँ की धरा रक्त-रंजित कर दी गई।
इस्लामी सेनाध्यक्ष युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये ‘जेहाद’ अर्थात् धर्म युद्ध का नारा लगाते थे। धर्म युद्ध प्रायः ऐसा भयंकर रूप धारण कर लेता था कि दानवता ताण्डव करने लगती थी और मजहब के नाम पर घनघोर अमानवीय कार्य किये जाते थे। शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी इस्लाम की कट्टरता का स्वरूप अभी समाप्त नहीं हुआ।