Sunday, May 19, 2024
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अध्याय – 31 : सर्वोच्चता के लिए त्रिकोणीय संघर्ष (गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट वंश)

अवंति का गुर्जर-प्रतिहार वंश

गुर्जर-प्रतिहारों का उदय मण्डोर में हुआ तथा वे जालोर होते हुए अवन्ति तक जा पहुंचे थे। गुर्जर प्रदेश का स्वामि होने के कारण उन्हें गुर्जर-प्रतिहार कहा गया। हरिवंश पुराण में प्रतिहार शासक वत्सराज को अवंति-भू-भृत अर्थात् अवंति का राजा कहा गया है। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि दंतिदुर्ग ने एक महादान का आयोजन किया उसमें उसने गुर्जर-प्रतिहार नरेश को उज्जैन में प्रतिहार (द्वारपाल) बनाया था। इन कथनों से स्पष्ट है कि गुर्जर-प्रतिहार वंश का उदय अवंति में हुआ था। ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहार नरेशों वत्सराज तथा नागभट्ट (द्वितीय) को क्षत्रिय कहा गया है। यही अभिलेख प्रतिहार वंश को सौमित्र (लक्ष्मण) से उत्पन्न बताता है। राजेशखर प्रतिहार नरेशों महेन्द्रपाल तथा महीपाल को क्रमशः रघुकुलतिलक और रघुवंशमुकटमणि कहता है। इस वंश का संस्थापक नागभट्ट (प्रथम) (730 ई.-760 ई.) था। उसके वंशजों ने अवंति पर शासन किया। इस वंश का चौथा राजा नागभट्ट (द्वितीय) (805 ई. से 833 ई.) प्रतापी राजा था।

बंगाल का पाल वंश

इस वंश की स्थापना गोपाल नामक व्यक्ति ने की। बंगाल की जनता ने बंगाल में व्याप्त दीर्घकालीन अराजकता का अंत करने के लिये गोपाल को अपना राजा चुना। राजा बनने के पूर्व गोपाल सेनापति था। गोपाल ने 750 ई. से 770 ई. तक राज्य किया। इसके पश्चात् धर्मपाल तथा देवापाल नामक दो राजा हुए। उनके समय से पाल वंश भारत के प्रमुख राजवंशों में गिना जाने लगा।

दक्षिण का राष्ट्रकूट वंश

यह वंश प्रतिहारों एवं पालों का समकालीन था। अशोक के अभिलेखों में रठिकों का उल्लेख हुआ है। नानिका के नानाघाट अभिलेख में महारठियों का उल्लेख है। डॉ. अल्तेकर का मत है कि राष्ट्रकूट इन्हीं रठिकों की संतान थे। अभिलेखों में राष्ट्रकूटों को लट्टलूरपुरवराधीश कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वे लट्टलूर के निवासी थे। लट्टलूर सम्भवतः आज का लाटूर था। राष्ट्रकूट यदुवंशी क्षत्रियों की सन्तान माने जाते हैं। इनका मूल पुरुष रट्ट नामक व्यक्ति था जिसके पुत्र का नाम राष्ट्रकूट था। इसी से इस वंश का नाम राष्ट्रकूट वंश पड़ा। आरम्भ में राष्ट्रकूट वातापी के चालुक्यों के सामन्त के रूप में शासन करते थे परन्तु जब चालुक्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया तब राष्ट्रकूट सामन्त दन्तिदुर्ग ने चालुक्य राजा कीर्ति वर्मन को परास्त करके चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया और स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। दन्तिदुर्ग के बाद उसका चाचा कृष्णराज (प्रथम) शासक हुआ। एलोरा का विख्यात कैलाश मन्दिर उसी के शासन-काल में बना था। इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक ध्रुवराज था, जिसने 780 से 796 ई. तक शासन किया। ध्रुवराज का पुत्र गोविन्दराज (तृतीय) शक्तिशाली राजा था जिसने गंड शासक की सत्ता को समाप्त किया और काँची के राजा को भी युद्ध में परास्त किया। राष्ट्रकूट वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा इन्द्र था, जिसने 880 ई. से 914 ई. तक शासन किया। उसने अपने प्रभाव को उत्तर में गंगा नदी से दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला दिया था। उसने कन्नौज के प्रतिहार राजा महिपाल को युद्ध में परास्त किया था। उसने ‘परम-माहेश्वर’ की उपाधि धारणा की, जिससे स्पष्ट है कि वह शैव धर्म का अनुयायी था। राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम प्रतापी शासक कृष्ण (तृतीय) था। उसके बाद इस वंश का पतन आरम्भ हो गया। 973 ई. में कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप (द्वितीय) ने राष्ट्रकूट वंश का अन्त कर दिया और नये राजवंश की स्थापना की, जिसे कल्याणी का परवर्ती चालुक्य वंश कहते हैं।

कान्यकुब्ज का आयुध वंश

जिस समय उत्तरी भारत में गुर्जर-प्रतिहार वंश तथा पाल वंश अपना-अपना राज्य बढ़ाने की योजना बना रहे थे, उस समय कान्यकुब्ज में निर्बल आयुध वंश का शासन था। इस वंश का उदय यशोवर्मन की मृत्यु के बाद हुआ था। इसमें तीन राजा हुए- वज्रायुध, इन्द्रायुध तथा चक्रायुध। इन्होंने लगभग 770 ई. से लेकर 810 ई. तक शासन किया।

त्रिकोणीय संघर्ष का सूत्रपात

गुर्जर-प्रतिहारों और पालों ने कान्यकुब्ज के आयुध वंश की निर्बलता का लाभ उठाने और कान्यकुब्ज को अपने अधिकार में लेने के प्रयास किये। इसी समय दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश ने भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लिया। परिणामतः गुर्जर-प्रतिहारों, पालों तथा राष्ट्रकूटों के बीच त्रिकोणीय संघर्ष का सूत्रपात हुआ। इसे त्रिवंशीय संघर्ष भी कहते हैं।

गुर्जर-प्रतिहारों का कान्यकुब्ज पर आक्रमण

अवंति के प्रतिहार वंश का राजा वत्सराज (780 ई. से 805 ई.) अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था। उसने 783 ई. के लगभग कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया तथा वहां के शासक इन्द्रायुध को अपने प्रभाव में रहने के लिये विवश किया। इस समय बंगाल में पाल वंश का राजा धर्मपाल राज्य कर रहा था। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश की बढ़ती हुई शक्ति के प्रति उदासीन नहीं रह सकता था। अतः उसने वत्सराज को चुनौती दी। दोनों में युद्ध हुआ। इसमें वत्सराज विजयी रहा।

राष्ट्रकूट आक्रमण

इसी समय राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और वत्सराज को पराजित कर दिया। राधनपुर तथा वनी डिण्डोरी अभिलेखों के अनुसार वत्सराज को पराजित होकर मरुस्थल में शरण लेनी पड़ी। वत्सराज को परास्त करने के बाद राष्ट्रकूट नरेश धु्रव ने बंगाल नरेश धर्मपाल को भी परास्त किया। संजन अभिलेख तथा सूरत अभिलेख के अनुसार धु्रव ने धर्मपाल को गंगा-यमुना के दोआब में परास्त किया। बड़ौदा अभिलेख कहता है कि धु्रव ने गंगा-यमुना के दोआब पर अपना अधिकार कर लिया था।

धर्मपाल का प्रभुत्व

उत्तर भारत की विजय के बाद राष्ट्रकूट नरेश धु्रव वापस चला गया। उसके जाने के बाद धर्मपाल ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया और कान्यकुब्ज पर आक्रमण करके उसके राजा इन्द्रायुध को सिंहासन से उतार दिया तथा चक्रायुध को कान्यकुब्ज की गद्दी पर बैठाया। धर्मपाल ने कान्यकुब्ज में एक विशाल दरबार किया जिसमें उसने भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति, गंधार और कीर के राजाओं को आमंत्रित किया। यहां अवंति से तात्पर्य वत्सराज से है। डॉ. मजूमदार के अनुसार ये समस्त राज्य धर्मपाल के अधीन थे। इस प्रकार धर्मपाल कुछ समय के लिये उत्तरी भारत का सर्वशक्तिशाली सम्राट बन गया। गुजराती लेखक सोढल ने उदयसुंदरीकथा में धर्मपाल को उत्तरापथस्वामिन् कहा है।

नागभट्ट (द्वितीय) तथा गोविंद (तृतीय) का संघर्ष

850 ई. में वत्सराज की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र नागभट्ट (द्वितीय) (805 ई. से 833 ई.) सिंहासन पर बैठा। इस समय दक्षिण में राष्ट्रकूट शासक गोविंद (तृतीय) (793 ई. से 814 ई.) शासन कर रहा था। उसने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया तथा प्रतिहार नरेश नागभट्ट (द्वितीय) को परास्त किया। राधनपुर ताम्रलेख के अनुसार गोविंद (तृतीय) के भय से नागभट्ट (द्वितीय) विलुप्त हो गया जिससे उसे स्वप्न में भी युद्ध दिखाई नहीं पड़े।

धर्मपाल और गोविंद (तृतीय) का संघर्ष

संजन ताम्रपत्र के अनुसार बंगाल नरेश धर्मपाल तथा उसके संरक्षित कन्नौज नरेश चक्रायुध ने स्वयं ही गोविंद (तृतीय) की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार गोविंद (तृतीय) के नेतृत्व में एक बार फिर राष्ट्रकूट वंश ने उत्तरी भारत को पदाक्रांत किया। धु्रव की भांति गोविंद (तृतीय) ने भी उत्तरी भारत को अपने राज्य में नहीं मिलाया। विजय अभियान पूरा करके वह अपने राज्य को लौट गया।

नागभट्ट की कन्नौज विजय

गोविंद (तृतीय) के दक्षिण को लौट जाने के बाद नागभट्ट (द्वितीय) ने कन्नौज पर आक्रमण करके चक्रायुध को परास्त कर दिया तथा कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसके बाद कन्नौज प्रतिहार राज्य की राजधानी बन गया।

नागभट्ट के हाथों धर्मपाल की पराजय

चक्रायुध की पराजय का समाचार पाकर धर्मपाल ने नागभट्ट के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। दोनांे पक्षों में मुंगेर में युद्ध हुआ जिसमें धर्मपाल परास्त हो गया। ग्वालियर अभिलेख, बड़ौदा अभिलेख तथा जोधपुर अभिलेख नागभट्ट की विजय की पुष्टि करते हैं। इस प्रकार त्रिवंशीय संघर्ष में अंततोगत्वा नागभट्ट को सर्वाधिक लाभ हुआ। वह उत्तरी भारत का सर्वशक्तिशाली सम्राट बन गया।

मिहिरभोज की उपलब्धियाँ

नागभट्ट (द्वितीय) के बाद उसका पुत्र रामभद्र (833 ई. से 836 ई.) प्रतिहारों के सिंहासन पर बैठा। उसके समय की उपलब्धियों के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती है। उसके बाद उसका पुत्र मिहिरभोज प्रथम (836 ई. से 885 ई.) प्रतिहारों का राजा हुआ। वह अपने समय का प्रतापी राजा सिद्ध हुआ। मिहिरभोज (प्रथम) ने राष्ट्रकूट राज्य के उज्जैन प्रदेश पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया परंतु उज्जैन पर प्रतिहारों का अधिकार अधिक समय तक नहीं रह सका। बगुभ्रा दानपत्र से विदित होता है कि गुजरात के राष्ट्रकूट धु्रव ने मिहिरभोज को परास्त कर दिया था।

अमोघवर्ष के बाद उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय (878 ई.-914 ई.) राष्ट्रकूटों का राजा हुआ। उसके समय में राष्ट्रकूटों की प्रतिहारों से वंशानुगत शत्रुता चलती रही। इस शत्रुता का विशेष कारण मालवा था। दोनों ही इस क्षेत्र पर अधिकार करना चाहते थे। इस संघर्ष के सम्बन्ध में दोनों ही पक्षों के अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें दोनों ने ही अपनी-अपनी विजय का दावा किया है जिससे अनुमान होता है कि उनके बीच एक से अधिक अनिर्णित युद्ध हुए।

मिहिरभोज का पालों से युद्ध

इस समय बंगाल में पाल वंश का देवपाल (910 ई.-950 ई.) पराक्रमी नरेश शासन कर रहा था। उसके शासन काल में प्रतिहार-पाल संघर्ष चलता रहा। ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि मिहिरभोज ने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को परास्त किया। कहला अभिलेख पाल नरेश मिहिरभोज की विजय का उल्लेख करते हुए कहता है- मिहिरभोज के सामन्त गुणाम्बोधिदेव ने गौड़-लक्ष्मी का हरण कर लिया। बदल अभिलेख का कथन है कि पाल नरेश ने गुर्जरनाथ (मिहिरभोज) का दर्प नष्ट कर दिया। इन परस्पर विरोधी दावों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पालों और प्रतिहारों के बीच हुए इस युद्ध का भी स्पष्ट निर्णय नहीं हो सका था।

सुलेमान का विवरण

इस काल में अरब यात्री सुलेमान भारत आया। उसके वर्णन से प्रकट होता है कि रुहमी (पाल नरेश) की बल्लहरा (राष्ट्रकूट) और गुज (गुर्जर-प्रतिहार) से शत्रुता थी। राष्ट्रकूट सेना और प्रतिहार सेना की अपेक्षा पाल सेना बहुसंख्यक थी।

महेन्दपाल (प्रथम) और नारायण पाल का संघर्ष

मिहिरभोज के बाद उसके पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम (885 ई.-910 ई.) ने शासन किया। पाल वंश का नारायण पाल (854 ई.-908 ई.) उसका समकालीन था। मिहिरभोज के अभिलेख उत्तर प्रदेश के पूर्व में प्राप्त नहीं होते किंतु महेन्द्रपाल (प्रथम) के तीन अभिलेख बिहार में और एक अभिलेख बंगाल में प्राप्त हुआ है। इनके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महेन्द्रपाल ने बंगाल नरेश नारायणपाल को पराजित कर बंगाल के कुछ भागों और बिहार पर अधिकार कर लिया था। नारायणपाल का कोई भी अभिलेख उसके शासन के 17वें वर्ष से लेकर 37वंे वर्ष तक मगध में नहीं मिला है परंतु 908 ई. में उसका एक अभिलेख मगध (उदन्तपुर) में मिलता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नारायणपाल ने फिर से मगध पर अधिकार कर लिया था।

अमोघवर्ष तथा नारायणपाल का संघर्ष

सिरुर अभिलेख का कथन है कि अंग, बंग, मगध तथा वेंगी के राजा राष्ट्रकूट अमोघवर्ष (814 ई.-878 ई.) के अधीन थे। इस आधार पर डॉ. मजूमदार का मत है कि अमोघवर्ष ने पाल नरेश नारायणपाल को पराजित किया था परंतु इस मत के पक्ष में कोई अन्य प्रमाण नहीं है। पाल शासक नारायणपाल, अमोघवर्ष के पुत्र तथा उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय (878 ई. से 914 ई.) का भी समकालीन था। उत्तर पुराण से ज्ञात होता है कि कृष्ण (द्वितीय) के हाथियों ने गंगा नदी का पानी पिया था। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने मत स्थिर किया है कि कृष्ण (द्वितीय) ने बंगाल पर आक्रमण किया था और उसके राजा नारायणपाल को परास्त किया था परंतु अन्य प्रमाणों के अभाव में यह मत संदिग्ध है।

महीपाल (प्रथम) का पांच राष्ट्रकूट राजाओं से संघर्ष

महेन्द्रपाल के पश्चात् उसका पुत्र भोज द्वितीय (910 ई.-913 ई.) प्रतिहारों का राजा हुआ। उसे उसके भाई महीपाल (प्रथम) ने पराजित करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया। महीपाल (प्रथम) को विनायकपाल तथा हेरम्बपाल भी कहते हैं। उसने 913 ई. से 945 ई. तक शासन किया। वह प्रतिहार वंश का प्रतापी शासक सिद्ध हुआ। उसके समय दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय (914 ई.-922 ई.) का शासन था। काम्बे दानपत्र से ज्ञात होता है कि इन्द्र ने मालवा पर आक्रमण किया। उसके हाथियों ने अपने दांतों के घातों से भगवान् कालप्रिय के मंदिर के प्रांगण को विषम बना दिया। तत्पश्चात् यमुना को पार करके शत्रु नगर महोदय (कान्यकुब्ज) पर आक्रमण किया तथा उसे नष्ट कर दिया। महीपाल भाग खड़ा हुआ। इन्द्र के सेनापति नरसिंह चालुक्य ने प्रयाग तक उसका पीछा किया और अपने घोड़ों को गंगा और यमुना के संगम में नहलाया।

इन्द्र (तृतीय) के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष (द्वितीय) (922 ई.-923 ई.) राष्ट्रकूटों का राजा हुआ। उसका भाई गोविंद (चतुर्थ) (923 ई.-936 ई.) उसे गद्दी से उतार कर स्वयं राजा बन गया। वह विलासी राजा था। उसके काल में राष्ट्रकूट शक्ति का हा्रस होने लगा। 936 ई. में गोविंद (चतुर्थ) के चाचा अमोघवर्ष तृतीय (936 ई.-939 ई.) ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार इन्द्र (तृतीय) से लेकर अमोघवर्ष (द्वितीय), गोविंद (चतुर्थ) और अमोघवर्ष (तृतीय) तक चार राष्ट्रकूट राजा, प्रतिहार नरेश महीपाल के समकालीन थे। इनकी कमजोरी का लाभ उठाकर महीपाल ने कन्नौज पर पुनः अधिकार कर लिया। क्षेमीश्वर के नाटक चण्डकौशिकम् में महीपाल की कर्नाट् विजय का उल्लेख है। डॉ. मजूमदार का मत है कि कर्नाटांे से आशय राष्ट्रकूटों से है। देवली और कर्हाद अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष (तृतीय) के युवराज कृष्ण (तृतीय) ने गुर्जर को परास्त करके उससे कालिंजर तथा चित्रकूट छीन लिये। संभवतः यह गुर्जर महीपाल (प्रथम) था। इस प्रकार प्रतिहार राजा महीपाल (प्रथम) ने पांच राष्ट्रकूट राजाओं से संघर्ष किया।

अलमसूदी का विवरण

अरब यात्री अलमसूदी लिखता है कि प्रतिहार नरेश बऊर (महीपाल प्रथम) और बल्हर (राष्ट्रकूट नरेश) में शत्रुता थी और बऊर ने राष्ट्रकूटों से अपनी रक्षा के लिये दक्षिण में एक प्रथक् सेना रखी थी।

महीपाल (प्रथम) के पाल राजाओं से सम्बन्ध

पाल वंश के दो राजा राज्यपाल तथा गोपाल (द्वितीय) प्रतिहार नरेश महीपाल (प्रथम) के समकालीन थे। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन दोनों के अधीन बंगाल और मगध थे। इनके समय में संभवतः पालों तथा प्रतिहारों के बीच शांति बनी रही।

त्रिवंशीय संघर्ष का अंत

महीपाल (प्रथम) जीवन भर लड़ता रहा था, निश्चित रूप से उसकी शक्ति का बहुत ह्रास हुआ होगा। अंत में वह कृष्ण (तृतीय) से परास्त हो गया था। इस कारण उसके पश्चात् प्रतिहार वंश में अनेक निर्बल राजा हुए। वे अपने राज्य की रक्षा नहीं कर सके तथा शनैःशनैः उनके राज्य का विलोपन हो गया।

बंगाल में भी नारायणपाल के पश्चात् पाल वंश पतनोन्मुख था। अतः यह वंश भी प्रतिहारों की निर्बलता का लाभ नहीं उठा सका। 1001 ई. में जब महमूद गजनवी का भारत पर आक्रमण हुआ तो पाल वंश के राजा राज्यपाल ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। इस पर चंदेल राजा गण्ड ने राज्यपाल पर आक्रमण करके उसे दण्डित किया। इस प्रकार ये राज्य इतने कमजोर हो गये कि उनमें परस्पर लड़ने की भी शक्ति नहीं रही।

राष्ट्रकूट राजा कृष्ण (तृतीय) (939 ई.-968 ई.) पराक्रमी राजा था किंतु इस बात के निश्चित प्रमाण नहीं मिलते कि उसने उत्तर भारत में अपने राज्य का प्रसार किया। कृष्ण (तृतीय) के पश्चात् राष्ट्रकूट राज्य की अवनति होने लगी और शनैःशनैः वह भी छिन्न-भिन्न हो गया।

इस प्रकार गुर्जर-प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट राजा 783 ईस्वी से लेकर भारत में महमूद गजनवी के आक्रमण आरम्भ होने तक परस्पर लड़कर एक दूसरे को क्षीण एवं दुर्बल बनाते रहे और अंत में तीनों ही नष्ट हो गये और त्रिवंशीय संघर्ष का अंत हुआ।

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