Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 49 : भारत में राजनीतिक संगठनों का उदय – 1

बंगाल प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संगठनों का उदय

उन्नीसवीं सदी का भारत हर तरफ से द्वंद्वों एवं संघर्षों में फंसा हुआ था। देश किसानों के आंदोलन, सामाजिक सुधार आंदोलन, आदिवासियों के आंदोलन, सन्यासियों के आंदोलन, सैनिक असंतोष जैसे द्वंद्वों एवं संघर्षों में फंसा हुआ था। इन आंदोलनों एवं समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले विचारों के कारण चारों ओर उत्तेजना का वातावरण बना गया था। लोग अपने पुराने विचारों को त्याग रहे थे, नई शिक्षा एवं नये विचार ग्रहण कर रहे थे। वे बेकारी और गरीबी से उबरना चाहते थे। आजादी चाहते थे। नागरिक अधिकारों में वृद्धि चाहते थे। इसलिये धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन आरम्भ होने के साथ-साथ अराजनीतिक एवं राजनीतिक संस्थाओं का भी उदय हुआ। भारत के अराजनीतिक संगठनों में 1828 ई. में स्थापित अकादमिक एसोसिएशन, 1830 ई. में स्थापित कलकत्ता ट्रेड ऐसोसिएशन, 1834 ई. में स्थापित बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स आदि संस्थायें प्रमुख थीं इन संस्थाओं का भारत की राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। फिर भी इन संगठनों ने शिक्षाविदों तथा व्यापारियों आदि प्रमुख सामाजिक वर्गों को संगठित होने का रास्ता दिखाया। शीघ्र ही भारत में राजनीतिक संस्थायें भी प्रकट होने लगीं।

ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार द्वारा भारत में तीन प्रेसिडेंसियां- बंगाल प्रेसीडेंसी, बम्बई प्रेसीडेंसी तथा मद्रास प्रेसीडेंसी की स्थापना की गई थी। प्रशासनिक मुख्यालयों की दृष्टि से इनकी तुलना आज की राज्य सरकारों से की जा सकती है। कम्पनी सरकार की राजधानी कलकत्ता में थी जिसकी तुलना देश की केन्द्र सरकार से की जा सकती है। चूंकि नागरिक अधिकार सरकार से अनुरोध करके, या संघर्ष करके लिये जा सकते थे, इसलिये स्वाभाविक था कि ब्रिटिश शासित क्षेत्र विशेषकर उसके प्रेसीडेंसी मुख्यालयों पर ही इन राजनीतिक संस्थाओं का उदय होता।

यह ध्यान देने वाली बात है कि उन्नीसवीं सदी की अराजनीतिक एवं राजनीतिक संस्थाओं का उदय केवल ब्रिटिश भारत में हुआ। विभिन्न राजाओं, नवाबों एवं जागीरदारों द्वारा शासित भारत जिसे रियासती भारत कहते थे, इन संस्थाओं से अलग था। रियासती भारत की जनता राजाओं, जागीरदारों एवं ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंटों द्वारा बुरी तरह शोषित की जा रही थी किंतु अभी उसमें राजनीतिक चेतना कोसों दूर थी।

बंगाल प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संगठनों की स्थापना

कम्पनी सरकार की राजधानी कलकत्ता होने के कारण कलकत्ता में ही सर्व प्रथम राजनीतिक संगठनों का उदय हुआ। माना जाता है कि 1833 ई. के चार्टर एक्ट में कुछ धारायें राजा राममोहन राय की प्रेरणा से जोड़ी गई थीं। इस प्रकार राजा राम मोहन राय को ब्रिटिश भारत का पहला राजनीतिक आंदोलनकारी कहा जा सकता है। उन्हीं की प्रेरणा से 1836 ई. में बंगभाषा प्रकाशक सभा की स्थापना हुई। इसे भारत की पहली राजनीतिक संस्था कहा जा सकता है।

लैंड होल्डर्स सोसायटी (जमींदारी एसोसियेशन)

राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का पहला काम लैंड होल्डर्स सोसायटी ने किया। इसे जमींदारी एसोसियेशन भी कहते थे। इसकी स्थापना 1838 ई. में कलकत्ता में हुई। यह भारत के गैर सरकारी अँग्रेजों और भारतीय जमींदारों की संयुक्त संस्था थी। इसे जमींदारों के हितों की सुरक्षा के लिये स्थापित किया गया था परन्तु यह, समाज के अन्य वर्गों के प्रतिनिधित्व का भी दावा करती थी। इस संस्था के भारतीय सदस्यों में प्रसन्नकुमार ठाकुर, राजा राधाकान्त देव, राजा कालीकृष्ण, द्वारकानाथ ठाकुर और रामकमल सेन प्रमुख थे। अँग्रेज सदस्यों में थियोडोर डिफेंस, विलियम कॉब हैरी, विलियम थियोबाल्ड और जी. ए. प्रिंसेप प्रमुख थे। यह संस्था भारत में भारतीयों के लिये उन्हीं अधिकारों की मांग करती थी, जो ब्रिटेन में ब्रिटिश जनता को प्राप्त थे। इस संगठन ने कलकत्ता में हलचल मचा दी। देशी समाचार पत्रों ने इस संस्था का स्वागत किया तथा कट्टरपंथी अँग्रेजी समाचार पत्रों ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य के लिये खतरा बताया। लैंड होल्डर्स सोसायटी ने अपनी गतिविधियाँ इंग्लैण्ड में भी बढ़ाने का प्रयास किया। उसकी गतिविधियों से चिंतित होकर कई अँग्रेज, सरकार को यह सलाह देने लगे कि इस संगठन के मुकाबले में जमींदारों का दूसरा संगठन खड़ा किया जाये। 1838 ई. में लैंड होल्डर्स सोसायटी ने कम्पनी सरकार को एक ज्ञापन देकर माफी की जमीन छीनना बन्द करने का अनुरोध किया। ज्ञापन पर बीस हजार से ज्यादा लोगों के हस्ताक्षर थे। सोसायटी ने सरकार के समक्ष अन्य माँगें भी रखीं जिनमें मुख्य थीं- अदालतों में बंगला भाषा का प्रयोग, स्टाम्प ड्यूटी में कमी, फौजदारी मुकदमों में गवाहों के भोजन की व्यवस्था और भारतीय कुलियों को मॉरीशस भेजना बन्द करना। यह संस्था केवल सात-आठ वर्षों में निष्क्रिय हो गई।

पेट्रियाटिक एसोसिएशन

पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना 9 फरवरी 1839 को कलकत्ता में भारतीयों और यूरेशियनों (एंग्लो-इंडियन्स) ने मिलकर की। इसके अध्यक्ष सी. आर. फेनविक, तेजपुर कलेक्टर के हेड क्लर्क थे। इस संगठन का उद्देश्य कम्पनी सरकार के अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाना था। पेट्रियाटिक एसोसिएशन 1833 ई. के चार्टर एक्ट को पूरी तरह लागू करवाना चाहता था। संगठन का कहना था कि कम्पनी सरकार, यूरेशियनों और भारतीयों को वे अधिकार और सुविधाएं नहीं देती जो उन्हें महारानी विक्टोरिया की प्रजा की हैसियत से मिलनी चाहिये। उन्हें न तो उच्च सरकारी नौकरियाँ दी जाती हैं और न कानून-कायदे बनाने में उनकी राय ली जाती है। फेनविक ने कहा कि कोई भी राष्ट्र ऐसे महान् अपराधों के सामने चुपचाप आत्मसमर्पण नहीं करेगा। कुछ दिनों बाद इस संगठन ने अपना नाम बदलकर यूनाइटेड इण्डिया एसोसिएशन रख लिया। कुछ समय बाद यह निष्क्रिय हो गया।

देश-हितैषिणी सभा

इस संगठन की स्थापना 3 अक्टूबर 1841 को कलकत्ता में की गई। इसके संस्थापकों में हिन्दू कॉलेज के कुछ पुराने छात्र और देशी समाचार पत्रों के कुछ संचालक थे। भारतीय और अँग्रेज, दोनों ही इस संगठन के सदस्य हो सकते थे। संगठन के स्थापना दिवस पर एक भाषण में कहा गया- ‘राजनीतिक स्वाधीनता के भोग से हमारा वंचित होना हमारे दुःख और पतन का कारण है। नागरिक स्वाधीनता के चले जाने से सुख उसी प्रकार चला जाता है जैसे काया के चले जाने से आत्मा।’

संगठन का मानना था कि भारत के तत्कालीन शासक भारतीयों को राजनीतिक अधिकार कदापि नहीं देंगे। वे भारत का आर्थिक शोषण कर रहे हैं। सभा ने कम्पनी के शोषण के विरुद्ध भारतवासियों की एकता और देशप्रेम पर जोर दिया और ब्रिटिश इंडिया सोसायटी के साथ मिलकर काम करने की सलाह दी। देश हितैषिणी सभा भी कम्पनी सरकार के अत्याचारों से भारत को छुटकारा दिलवाना चाहती थी और ब्रिटिश संसद के माध्यम से न्याय प्राप्त करना चाहती थी। अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं की भांति यह संस्था भी शीघ्र ही समाप्त हो गई।

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी की स्थापना 20 अप्रैल 1843 को कलकत्ता में हुई। इसके अध्यक्ष जॉर्ज थॉम्पसन लन्दन की ब्रिटिश इंडिया सोसायटी के सक्रिय सदस्य थे। इस संगठन के सचिव प्यारीचन्द्र मित्र, अपने समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक थे। यह भारतीयों और गैर-सरकारी अँग्रेजों का सम्मिलित संगठन था। इस संगठन ने देश में प्रशासन, पुलिस विभाग, न्यायपालिका, नगरपालिका आदि में सुधार करवाने में रुचि ली और पत्रिकाएँ प्रकाशित करवाकर सरकार की कमियों को उजागर किया। संगठन ने सार्वजनिक महत्व के विषयों पर अधिक ध्यान दिया और समय-समय पर कम्पनी सरकार और ब्रिटिश सरकार को आवेदन भिजवाये। इस सोसाइटी ने बंगाल में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की दयनीय स्थिति को सुधारने की मांग की तथा समाज सुधार पर ध्यान दिया। स्त्री शिक्षा पर जोर दिया और विधवा-विवाह का समर्थन किया। इन कार्यों के कारण बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी को एक तरफ तो कम्पनी सरकार का और दूसरी तरफ पुराने विचारों के जमींदारों के विरोध का सामना करना पड़ा। इसके सचिव प्यारीचन्द्र मित्र जमींदारी प्रथा की आलोचना करते थे और किसानों के अधिकारों की मांग करते थे। इस कारण जमींदार परिवार इस संगठन से अलग हो गये। जनतान्त्रिक कार्यक्रमों के कारण संगठन को राजद्रोह के प्रचार के अभियोग का सामना करना पड़ा। इस कारण अँग्रेज सदस्यों ने भी संगठन से सम्बन्ध तोड़ लिया। 1846 ई. के बाद यह सोसायटी निष्क्रिय हो गई।

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना 31 अक्टूबर 1851 को कलकत्ता में हुई। इसके अधिकांश सदस्य लैंड होल्डर्स और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी के सक्रिय सदस्य रह चुके थे। राजा राधाकान्त देव इस नये संगठन के अध्यक्ष और देवेन्द्रनाथ ठाकुर सचिव चुने गये। इसके स्थापना दिवस पर कहा गया कि इस संस्था का लक्ष्य अपनी शक्ति भर प्रत्येक उचित उपाय से ब्रिटिश भारत के शासन की दक्षता को बढ़ाना और उसमें सुधार करना और इस तरह ग्रेट ब्रिटेन तथा भारत के सामान्य हितों को आगे बढ़ाना एवं पराधीन भारत के देशी निवासियों की स्थिति सुधारना होगा। इस संस्था ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1853 ई. चार्टर के नवीनीकरण के सम्बन्ध में संसद को महत्त्वपूर्ण स्मृति-पत्र दिये जिनमें भारत के प्रशासन के जनतन्त्रीकरण और उसमें भारतीयों के प्रतिनिधित्व की माँग की गई। संस्था ने मांग की कि विधान सभा में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाये। बड़े अधिकारियों का वेतन कम किया जाये। नमक कर समाप्त किया जाये। संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप 1853 के चार्टर एक्ट में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 6 सदस्य कानून बनाने के लिये जोड़ दिये गये। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने 1856 ई. में ब्रिटिश संसद से अनुरोध किया कि केन्द्र और प्रेसीडेन्सियों में ऐसी सस्थाएँ बनाई जायें जो विधान सभाओं का काम करें और उनमें भारतीयों के प्रतिनिधि भी हों।

1857 की क्रांति ने ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन को गहरा झटका दिया किन्तु कुछ समय बाद वह पुनः सक्रिय हो गया। 1860 ई. में उसने पुनः भारत में विधान सभाओं की स्थापना की माँग को जोर-शोर से उठाया। संस्था ने 1861 ई. के कौंसिल एक्ट में भी संशोधन की मांग उठाई। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने 1875 ई. तक चले सिविल सर्विस आन्दोलन को समर्थन दिया। उसने इंग्लैण्ड और भारत में सिविल सर्विस परीक्षा एक साथ लेने की मांग की। जब 1865 ई. में सिविल सर्विस परीक्षा की आयु 22 साल से घटाकर 21 साल कर दी गई तो ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने जोरदार विरोध किया। 1860-61 ई. में इसने नील की खेती से सम्बन्धित विवादों के कारणों की जाँच के लिये जाँच आयोग बैठान की मांग की। 1860 ई. में इस ऐसोसियेशन ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये धन एकत्रित किया। 1860 ई. में जब सरकार ने आयकर लगाया तो संस्था ने इसका भी विरोध किया।

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन उस समय भारत का सबसे प्रभावशाली संगठन था। सरकार भी उसका सम्मान करती थी। उसकी शाखाएँ बंगाल और उसके बाहर फैली हुई थीं। यह संस्था मूलतः जमींदारों का संगठन थी किंतु इसे व्यापक बनाने के लिये बुद्धिजीवियों और मध्यमवर्ग के लोगों को भी संगठन की सदस्यता दी गई। 1860 ई. से संगठन में जमींदारों और बुद्धिजीवियों में मतभेद उभरने लगे। बुद्धिजीवियों का आरोप था कि एसोसिएशन के जमींदार सदस्य किसानों और आम जनता के हितों की उपेक्षा करते हैं। उन्हें सिर्फ अपने वर्ग के हितों की चिन्ता रहती है। उनका यह आरोप भी था कि एसोसिएशन समय के साथ आगे बढ़ने और अत्यन्त उपयोगी लोगों का सहयोग लेने से इन्कार करता है। बुद्धिजीवियों ने संगठन में सुधार लाने के कई प्रयास किये किन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस कारण उन लोगों का एसोसिएशन से मोह भंग होता चला गया और वे एसोसिएशन से अलग होते गये। इस कारण संगठन का जनाधार कम हो गया। 1880 ई. तक वह कुछ जमींदारों का संगठन मात्र रह गया जिससे उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

इण्डियन लीग

अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक और मालिक शिशिर कुमार घोष ने 25 सितम्बर 1875 को इण्डियन लीग की स्थापना की। इस संगठन ने मध्यम वर्ग को आकर्षित करने के लिये मात्र पाँच रुपये वार्षिक चन्दा रखा। इस संगठन का उद्देश्य लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना और राजनीतिक शिक्षा को बढ़ावा देना था। इसकी स्थापना की सभा के प्रस्ताव में कहा गया कि यह संस्था महारानी की प्रजा के समस्त वर्गों का प्रतिनिधित्व करना चाहती है। इण्डियन लीग ने अक्टूबर 1875 में बंगाल सरकार को एक स्मृति-पत्र देकर कलकत्ता की नगरपालिका के प्रशासन में सुधार और चुनाव की प्रथा जारी करने का अनुरोध किया। उसने प्रिन्स ऑफ वेल्स के कलकत्ता आगमन की स्मृति में तकनीकी विज्ञान की शिक्षा देने वाला एक स्कूल खोलने के लिये लगभग डेढ़ लाख रुपया एकत्र किया और इस योजना के लिये छोटे लाट टेंपुल का आशीर्वाद प्राप्त किया। 1876 ई. के आरम्भ में बंगाल सरकार ने नगर पालिका विधेयक पेश किया जिसमें नाममात्र के लिये चुनाव की प्रथा को माना गया तथा नगर पालिका के कमिशनरों पर सरकारी नियंत्रण का प्रावधान रखा गया। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने नये विधेयक का जोरदार विरोध किया परन्तु इण्डियन लीग ने टेंपुल के इस विधेयक का स्वागत किया। लीग का मानना था कि चुनाव की प्रथा चाहे जितनी सीमित हो, एक बार लागू हो जाने से उसका प्रसार होकर रहेगा और विधान सभा भी एक दिन लागू होकर रहेगी परन्तु लोगों को लीग का यह दृष्टिकोण पसन्द नहीं आया। इण्डियन लीग का अँग्रेजों के प्रति सम्मोहन इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब टेंपुल बंगाल से बदल कर बम्बई प्रेसीडेन्सी का गवर्नर बना तो लीग के प्रमुख नेता उसे अभिनन्दन-पत्र देने बम्बई गये। इसी प्रकार, 1 जनवरी 1877 को दिल्ली दरबार के अवसर पर एक मानपत्र वायसराय लिटन को दिया गया जिसमें महारानी विक्टोरिया के कैसरे हिन्द की उपाधि धारण करने पर खुशी प्रकट की गई।

शिशिर कुमार घोष के अनियमित कार्यों से लीग के अन्य नेता रुष्ट हो गये और उन्होंने लीग से त्याग-पत्र देकर नई संस्था बनाने का निश्चय किया। इस पर लीग ने भी अपने संगठन में फेर बदल किया। अध्यक्ष शम्भूचन्द्र मुखर्जी को हटाकर, नरम दल के कृष्णमोहन बनर्जी को अध्यक्ष बनाया गया परन्तु इससे मामला सुलझ नहीं पाया। 1876 ई. में कलकत्ता मे भूतपूर्व वायसराय नार्थब्रुक की शोक सभा में उनकी मूर्ति बनाने का प्रस्ताव आया। गरम दल वालों ने इसका विरोध किया। इसके चलते लीग के गरम नेताओं और नरम नेताओं में झगड़ा हो गया। 1876 ई. में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना ने इण्डियन लीग के भविष्य को नष्ट कर दिया। लीग के अध्यक्ष कृष्णमोहन बनर्जी अपने समर्थकों के साथ इण्डियन एसोसिएशन में सम्मिलित हो गये। सिर्फ कुछ लोग शिशिर कुमार घोष के नेतृत्व वाली लीग में बने रहे परन्तु इण्डियन लीग की प्रतिष्ठा गिर जाने से लीग ने अपना जनाधार खो दिया।

इण्डियन एसोसिएशन

आनन्द मोहन बसु ने समान विचारों वाले प्रमुख लोगों के साथ मिलकर 26 जुलाई 1876 को कलकत्ता में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना की। इस संगठन की कार्यकारिणी में 28 सदस्य रखे गये और आनन्दमोहन बसु को इसका सचिव नियुक्त किया गया। इस संगठन को वकीलों, पत्रकारों और शिक्षकों का जोरदार समर्थन मिला। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा अन्य युवा नेता इस संगठन को अखिल भारतीय संगठन बनाना चाहते थे और सारे भारत को संगठित कर एक मंच पर लाना चाहते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार इण्डियन एसोसिएशन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से थे-

(1.) देश में जनमत की एक शक्तिशाली संस्था का गठन करना।

(2.) सामान्य राजनीतिक हितों के आधार पर भारतीय जनता को एक करना।

(3.) हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को बढ़ाना।

(4.) सार्वजनिक आन्दोलनों में जनसामान्य की भागीदारी बढ़ाना।

इण्डियन एसोसिएशन में जमींदारों के स्थान पर मध्यम वर्ग की प्रधानता थी। मध्यम वर्ग में भी अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की प्रधानता थी। उनमें से अनेक इंग्लैण्ड से शिक्षा प्राप्त करके आये थे जो अपने देश में भी जनतन्त्र लाना चाहते थे। वे इस दिशा में धीरे-धीरे कदम उठाना चाहते थे। जनतन्त्र की स्थापना के लिये वे आन्दोलन भी चाहते थे परतु क्रान्तिकारी कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे। वे अपने आन्दोलनों के द्वारा सरकार पर दबाव डालकर कुछ अधिकार हासिल करना चाहत थे। उन्होंने आन्दोलन, दबाव और समझौते का सुधारवादी मार्ग अपनाया। इण्डियन एसोसिएशन ने उन सवालों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जिन पर अधिकांश भारतीय सहमत थे, यथा- सिविल सर्विस आन्दोलन, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट, इल्बर्ट बिल आन्दोलन इत्यादि। अपने काम को आगे बढ़ाने के लिये एसोसिएशन ने लाहौर, मेरठ, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ आदि स्थानों पर शाखाएँ भी स्थापित कीं।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘इण्डियन एसोसिएशन का आदर्श महान् था। वह राजधानी कलकत्ता में एक शक्तिशाली केन्द्रीय संगठन स्थापित करना चाहती थी जिसकी शाखाएँ सारे भारत में हों। उसके पास बहुत ही बुद्धिमान, योग्य और कर्मठ नेता तथा कार्यकर्ता भी थे पर इस कार्य के लिये आवश्यक धन का अभाव था। यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अपनी जिन्दगी के प्रथम दस वर्षों में उसकी वार्षिक आय 2,000 रुपये से अधिक नहीं हुई।’

आर्थिक कठिनाई के उपरान्त भी एसोसिएशन ने अखिल भारतीय संगठन और भारतीय जनता का प्रवक्ता बनने का पूरा प्रयास किया। इण्डियन एसोसिएशन द्वारा सम्पादित प्रमुख गतिविधियाँ इस प्रकार से थीं-

(1.) 1876 ई. से किसानों के अधिकार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कामों का सम्पादन तथा किसानों का पक्ष लेकर मालगुजारी विधेयक का समर्थन।

(2.) 1879 ई. तक सिविल सर्विस आन्दोलन का सफलता पूर्वक संचालन।

(3.) 1879 ई. से स्थानीय स्वायत्त शासन आन्दोलन का संचालन।

(4.) 1883 ई. में एसोसिएशन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की गिरफ्तारी और सजा के विरुद्ध आन्दोलन का संचालन।

(5.) 1884 ई. में बंगाल में नया स्वायत्त शासन कानून लागू होने पर इण्डियन एसोसिएशन द्वारा लोगों से चुनावों में भाग लेने का अनुरोध।

(6.) नगर पालिकाओं के अध्यक्ष गैर-सरकारी व्यक्ति होने की मांग।

(7.) इल्बर्ट बिल के पक्ष में सारे बंगाल में जबरदस्त आन्दोलन का संचालन।

(8.) आर्म्स एक्ट को रद्द कराने के लिये आन्दोलन का संचालन।

इण्डियन एसोसिएशन ने सार्वजनिक प्रश्नों को लेकर जन-आन्दोलन चलाये और वे एक सीमा तक सफल भी रहे। अँग्रेजों का भी मानना था कि एसोसिएशन ने इंग्लैण्ड के राजनीति मंचों के उपयोग के विचार को बहुत तेजी से ग्रहण कर लिया है।

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