Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 28 : भारत में राजपूतों का उदय

पुष्यभूति राजा हर्षवर्द्धन की मृत्यु के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता पुनः भंग हो गई और देश के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। इन राज्यों के शासक राजपूत थे। इसलिये इस युग को ‘राजपूत-युग’ कहा जाता है। इस युग का आरम्भ 648 ई. में हर्ष की मृत्यु से होता है और इसका अन्त 1206 ई. में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना से होता है। इसलिये 648 ई. से 1206 ई. तक के काल को भारतीय इतिहास में ‘राजपूत-युग’ कहा जाता है।

राजपूत युग का महत्त्व

भारतीय इतिहास में राजपूत युग का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस युग में भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए। लगभग साढ़े पाँच शताब्दियों तक राजपूत योद्धाओं ने वीरता तथा साहस के साथ मुस्लिम आक्रांताओं का सामना किया और देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करते रहे। यद्यपि वे अंत में विदेशी आक्रांताओं से परास्त हुए परन्तु लगभग छः शताब्दियों तक उनके द्वारा की गई देश सेवा भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। राजपूत शासकों में कुछ ऐसे विशिष्ट गुण थे, जिनके कारण उनकी प्रजा उन्हें आदर की दृष्टि से देखती थी। राजपूत योद्धा अपने वचन का पक्का होता था और किसी के साथ विश्वासघात नहीं करता था। वह शत्रु को पीठ नहीं दिखाता था। वह रणक्षेत्र में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करना पसंद करता था। राजपूत योद्धा, निःशस्त्र शत्रु पर प्रहार करना महापाप और शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझता था। वह रणप्रिय होता था और रणक्षेत्र ही उसकी कर्मभूमि होती थी। वह देश की रक्षा का सम्पूर्ण भार वहन करता था।

राजपूत योद्धाओं के गुणों की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘यह स्वीकार करना पड़ेगा कि राजपूतों में उच्च साहस, देशभक्ति, स्वामि-भक्ति, आत्म-सम्मान, अतिथि-सत्कार तथा सरलता के गुण विद्यमान थे। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने राजपूतों के गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘राजपूत में आत्म-सम्मान की भावना उच्च कोटि की होती थी। वह सत्य को बड़े आदर की दृष्टि से देखता था। वह अपने शत्रुओं के प्रति भी उदार था और विजयी हो जाने पर उस प्रकार की बर्बरता नहीं करता था, जिनका किया जाना मुस्लिम-विजय के फलस्वरूप अवश्यम्भावी था। वह युद्ध में कभी बेईमानी या विश्वासघात नहीं करता था और गरीब तथा निरपराध व्यक्तियों को कभी क्षति नहीं पहुँचाता था।’ राजपूत राजाओं ने देश को धन-धान्य से परिपूर्ण बनाने के अथक प्रयास किये।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी राजपूत युग का बड़ा महत्त्व है। उनके शासन काल में साहित्य तथा कला की उन्नति हुई और धर्म की रक्षा का प्रयत्न किया गया। राजपूत राजाओं ने अपनी राजसभाओं में कवियों तथा कलाकारों को प्रश्रय, पुरस्कार तथा प्रोत्साहन दिया। इस काल में असंख्य मन्दिरों एवं देव प्रतिमाओं का निर्माण हुआ और मंदिरों को दान-दक्षिणा से सम्पन्न बनाया गया।

राजपूत शब्द की व्याख्या

राजपूत शब्द संस्कृत के ‘राजपुत्र’ का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। प्राचीन काल में राजपुत्र शब्द का प्रयोग राजकुमारों तथा राजवंश के लोगों के लिए होता था। प्रायः क्षत्रिय ही राजवंश के होते थे, इसलिये ‘राजपूत’ शब्द सामान्यतः क्षत्रियों के लिए प्रयुक्त होने लगा। जब मुसलमानों ने भारत में प्रवेश किया तब उन्हें राजपुत्र शब्द का उच्चारण करने में कठिनाई हुई, इसलिये वे राजपुत्र के स्थान पर राजपूत शब्द का प्रयोग करने लगे। राजपूत शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूताना के कुछ राज्यों में साधारण बोलचाल में राजपूत शब्द का प्रयोग क्षत्रिय सामन्त या जागीदार के पुत्रों को सूचित करने के लिए किया जाता है परन्तु वास्तव में यह संस्कृत के राजपुत्र शब्द का विकृत स्वरूप है जिसका अर्थ हेाता है राजवंश का।’

राजपूत शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सातवीं शताब्दी के दूसरे भाग में हुआ। उसके पूर्व कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ, इसलिये राजपूतों की उत्पति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद उत्पन्न हो गया। इस सम्बन्ध में डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूतों की उत्पति विवाद ग्रस्त है। राजपूतों की उत्पत्ति को निश्चित रूप से निर्धारत करने के लिए ऐतिहासिक विदग्धता का प्रयोग किया गया है और ब्राह्मण साहित्य तथा चारणों की प्रशस्तियों में उन्हें जो उच्च अभिजातीय स्थान प्रदान किया गया है उसने कठिनाई को अत्यधिक बढ़ा दिया है।’

राजपूतों की उत्पत्ति

राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वान् उन्हें विशुद्ध प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान बताते हैं तो कुछ उन्हें विदेशियों के वशंज। कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत मिश्रित-रक्त के हैं।

(1) प्राचीन क्षत्रियों से उत्पत्ति: अधिकांश भारतीय इतिहासकारों के अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं जो अपने को सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी मानते हैं। यह विचार भारतीय अनुश्रुतियों तथा परम्परा के अनुकूल पड़ता है। प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि प्राचीन क्षत्रिय समाज दो भागों में विभक्त था। इनमें से एक सूर्यवंशी और दूसरा चन्द्रवंशी कहलाता था। कालान्तर में इनकी एक तीसरी शाखा उत्पन्न हो गई जो यदुवंशी कहलाने लगी। इन्हीं तीन शाखाओं के अन्तर्गत समस्त क्षत्रिय आ जाते थे। इनका मुख्य कार्य शासन करना तथा आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। क्षत्रियों का यह कार्य भारतीय जाति-व्यवस्था के अनुकूल था। कालान्तर में कुल के महान् ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों के नाम पर भी वंश के नाम पड़ने लगे। इससे क्षत्रियों की अनेक उपजातियाँ बन गईं। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त क्षत्रियों की इन्हीं विभिन्न शाखाओं ने भारत के विभिन्न भागों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। ये शाखाएं सामूहिक रूप से राजपूत कहलाईं। राजपूतों का जीवन, उनके आदर्श तथा उनका धर्म उसी प्रकार का था, जो प्राचीन क्षत्रियों का था। उनमें विदेशीपन की कोई छाप नहीं थी। इसलिये अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने उन्हें प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान माना है।

(2) अग्निकुण्ड से उत्पत्ति: पृथ्वीराज रासो के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई। जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया तब समाज में बड़ी गड़बड़ी फैल गई और लोग कर्त्तव्य भ्रष्ट हो गये। इससे देवता बड़े दुःखी हुए और आबू पर्वत पर एकत्रित हुए, जहाँ एक विशाल अग्निकुण्ड था। इसी अग्निकुण्ड से देवताओं ने प्रतिहारों (पड़िहारों), परमारों (पँवारों), चौलुक्यों (सोलंकियों) तथा चाहमानों (चौहानों) को उत्पन्न किया। इसलिये ये चारों वंश अग्निवंशी कहलाते हैं।

इस अनुश्रुति के स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि यह अनुश्रुति सोलहवीं शताब्दी की है। इसके पूर्व इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इसलिये यह चारणों की कल्पना प्रतीत होती है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इन राजपूतों ने अग्नि के समक्ष, अरबों तथा तुर्कों से देश की रक्षा की शपथ ली। इसलिये ये अग्निवंशी कहलाये। कुछ अन्य इतिहासकारों की धारणा है कि ब्राह्मणों ने यज्ञ द्वारा जिन विदेशियों की शुद्धि करके क्षत्रिय समाज में समाविष्ट कर लिया था, वही अग्निवंशी राजपूत कहलाये।

अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पति मानने वाले बहुत कम विद्वान हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘यह स्पष्ट है कि कथा कोरी गल्प है और इसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यह ब्राह्मणों द्वारा उस जाति को अभिजातीय सिद्ध करने का प्रयास प्रतीत होता है, जिसका समाज में बड़ा ऊँचा स्थान था और जो ब्राह्मणों को मुक्त हस्त होकर दान देते थे। ब्राह्मणों ने बड़े उत्साह के साथ उस उदारता का बदला देने का प्रयत्न किया।’

(3) विदेशियों से उत्पत्ति: पुराणों में हैहय राजपूतों का उल्लेख शकों तथा यवनों के साथ किया गया है। इस कारण कुछ इतिहासकारों ने राजपूतों की उत्पत्ति विदेशियों से बतलाई है। कर्नल टॉड ने राजपूतों तथा मध्य एशिया की शक तथा सीथियन जातियों में बड़ी समानता पाई है। इसलिये वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राजपूत उन्हीं विदेशियों के वंशज हैं। ये जातियाँ समय-समय पर भारत में प्रवेश करती रही हैं। उन्होंने कालान्तर में हिन्दू धर्म तथा हिन्दू रीति रिवाजों को स्वीकार कर लिया। चूँकि ये विदेशी जातियाँ, शासक वर्ग में आती थीं, जिस वर्ग में भारत के प्राचीन क्षत्रिय आते थे, इसलिये उन्होेंने प्राचीन क्षत्रियों का स्थान ग्रहण कर लिया और राजपूत कहलाने लगे। टॉड के इस मत का अनुमोदन करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘ मुझे इस बात मंें कोई संदेह नहीं है कि शकों तथा कुषाणों के राजवंश, जब उन्होंने हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया तब हिन्दू जाति-व्यवस्था में क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित कर लिये गये।’ राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का समर्थन करते हुए क्रुक ने लिखा है- ‘आजकल के अनुसन्धानों ने राजपूतों की उत्पत्ति पर काफी प्रकाश डाला है। वैदिक क्षत्रियों तथा मध्य काल के राजपूतों में ऐसी खाई है जिसे पूरा करना असंभव है।’ इस मत को स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई यह है कि यदि समस्त राजदूत विदेशी थे तो हर्ष की मृत्यु के उपरान्त भारत के प्राचीन क्षत्रियों की एक जीवित तथा शक्तिशाली जाति, जिसके हाथ में राजनीतिक शक्ति थी, सहसा कहाँ, कैसे और कब विलुप्त हो गई ? इस मत को स्वीकार करने में दूसरी कठिनाई यह है कि राजपूतों का जीवन उनके आदर्श, उनका नैतिक स्तर तथा उनका धर्म विदेशियों से बिल्कुल भिन्न और प्राचीन क्षत्रियों के बिल्कुल अनुरूप है। इसलिये उन्हें विदेशी मानना अनुचित है।

(4) मिश्रित उत्पत्ति: इस मत के अनुसार विभिन्न कालखण्डों में शक, कुषाण, हूण, सीथियन गुर्जर आदि जो विदेशी जातियाँ भारत में आकर शासन करने लगीं, उन्होंने भारतीय क्षात्र-धर्म स्वीकार कर लिया, वे भारतीय क्षत्रियों में घुल-मिल गईं। भारतीय समाज में विदेशियों को आत्मसात् करने की बहुत बड़ी क्षमता थी इसलिये विदेशी जातियाँ भारतीयों में घुल-मिल गईं। इनके विलयन की सर्वाधिक सम्भावना थी, क्योंकि विदेशी शासक भी भारतीय क्षत्रियों की भाँति शासक वर्ग के थे और उन्हीं के समान वीर तथा साहसी थे। इसलिये यह स्वाभाविक प्रतीत होता है कि विदेशी शासकों एवं प्राचीन भारतीय क्षत्रिय कुलों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गये और उनके आचार-व्यवहार तथा रीति-रिवाज एक से हो गये हो। इसी से कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि राजपूत लोग निश्चय ही प्राचीन क्षत्रियों के वशंज हैं तथा उनमें विदेशी रक्त के सम्मिश्रण की भी सम्भावना है।

(5) अन्य मत: परशुराम स्मृति में राजपूत को वैश्य पुरुष तथा अम्बष्ठ स्त्री से उत्पन्न बताया है। इससे वह शूद्र सिद्ध होता है किंतु विद्वानों के अनुसार परशुराम स्मृति का यह कथन मूल ग्रंथ का नहीं है, उसे बाद के किसी काल में क्षेपक के रूप में जोड़ा गया है।

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