संकट की घड़ी में एक बार फिर सरदार पटेल ने गांधीजी को समर्थन दिया!
गांधीजी और सरदार पटेल के बीच बड़े विचित्र सम्बन्ध थे। सरदार पटेल प्रायः गांधीजी की बातों से सहमत नहीं होते थे किंतु गांधीजी जब कांग्रेस पर अथवा सरदार पटेल पर अपना व्यक्तिगत निर्णय थोप देते थे तो सरदार आंख मूंदकर उसे स्वीकार कर लेते थे। सुभाषचंद्र बोस का विरोध करने पर जब गांधीजी संकट में आ गए तब सरदार पटेल ने गांधीजी को समर्थन दिया!
ई.1939 में कांग्रेस का अधिवेशन त्रिपुरा में होना तय हुआ। त्रिपुरा सम्मेलन की अध्यक्षता के लिये अधिकांश प्रांतों से सुभाषचंद्र बोस का नाम प्रस्तावित हुआ। सुभाषचंद्र बोस पिछले साल के अधिवेशन की अध्यक्षता कर चुके थे और उनकी लोकप्रियता इस समय चरम पर थी। कांग्रेस के गांधीवादी नेता चाहते थे कि त्रिपुरा अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आजाद करें। इस समय पूरी दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध का वातावरण बन रहा था।
इसलिये सुभाषबाबू चाहते थे कि त्रिपुरा अधिवेशन की अध्यक्षता सुभाषबाबू स्वयं करें ताकि कांग्रेस कोई ढिलाई बरतते हुए वायसराय से कोई अनुचित समझौता न कर ले और त्रिपुरा अधिवेशन में कोई अनुचित प्रस्ताव पारित न कर ले। यदि सुभाषबाबू कांग्रेस के दुबारा अध्यक्ष बन जाते तो कम से कम एक साल के लिये उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व और मिल जाता जिसका उपयोग वे द्वितीय विश्वयुद्ध की छाया में वायसराय से देश की आजादी के लिये मोलभाव करने में करते।
जवाहरलाल, जमनालाल, गांधीजी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य बड़े नेताओं ने सुभाषबाबू से कहा कि वे अपना नाम वापस ले लें। सुभाषबाबू ने कहा कि अधिकांश प्रांतों से मेरा नाम प्रस्तावित हुआ है, इसलिये मैं अध्यक्ष पद का चुनाव अवश्य लड़ूंगा। मौलाना जानते थे कि सुभाषबाबू के सामने चुनाव लड़ने का क्या अर्थ है। इसलिये उन्होंने बीमारी का बहाना करके अपना नाम वापस ले लिया। गांधीजी ने डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। अब चुनाव टल नहीं सकता था। चुनाव से पहले गांधीजी और उनके अनुयायी नेताओं ने बहुत परिश्रम किया ताकि गांधीजी के प्रत्याशी को जीत मिल सके।
चुनाव से पहली रात को गांधीजी सोये नहीं और कांग्रेसियों के घर जाकर उन्हें अपने उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने के लिये मनाते रहे। जब चुनाव का परिणाम आया तो सुभाषबाबू भारी मतों से जीत गये। गांधीजी ने तिलमिलाकर घोषणा की कि यह मेरी हार है। संयम का पाठ पढ़ाने वाले गांधीजी इस हार में अपना संयम खो बैठे और उन्होंने कांग्रेस में बगावत खड़ी कर दी।
गांधीजी के कहने पर कार्यसमिति के 15 सदस्यों ने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिये। सुभाषबाबू ने कांग्रेस का विघटन रोकने का प्रयास किया परन्तु गांधीजी तथा उनके समर्थकों ने सुभाषबाबू से नाता तोड़ने का निर्णय कर लिया। सुभाषबाबू ने कांग्रेस को टूटने से बचाने के लिये अध्यक्ष पद त्याग दिया। गांधीजी के समर्थकों ने तत्काल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष चुन लिया।
इस नाजुक अवसर पर बहुत से कांग्रेसियों को आशा थी कि सरदार पटेल गांधीजी का साथ छोड़कर नेताजी सुभाषचंद्र बोस का साथ देंगे किंतु सरदार पटेल इस पूरे प्रकरण के दौरान मौन साधे रहे। उन्होंने गांधी को अपना सेनापति चुन रखा था और वे जब तक देश की प्रतिष्ठा पर आंच न आये, सेनापति का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता