Wednesday, April 17, 2024
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अध्याय -12 : द्वितीय एवं तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध

मराठों में परस्पर संघर्ष

पेशवा बाजीराव (द्वितीय) (1796-1851 ई.) अयोग्य व्यक्ति था। उसके समय में नाना फड़नवीस शासन का कार्य संभालता था। 13 मार्च 1800 को नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों में परस्पर संघर्ष प्रारम्भ हो गये। दो मराठा सरदारों- ग्वालियर के दौलतराव सिन्धिया तथा इन्दौर के यशवंतराव होलकर के बीच इस विषय को लेकर प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न हो गयी कि पेशवा पर किसका प्रभाव रहे। पेशवा बाजीराव (द्वितीय) किसी शक्तिशाली मराठा सरदार का संरक्षण चाहता था। अतः उसने दौलतराव सिन्धिया का संरक्षण स्वीकार कर लिया। बाजीराव  तथा सिन्धिया ने होलकर के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बना लिया।

होलकर के लिये यह स्थिति असहनीय थी। इस कारण 1802 ई. के प्रारम्भ में सिन्धिया एवं होलकर के बीच युद्ध छिड़ गया। जब होलकर मालवा में सिन्धिया की सेना के विरुद्ध युद्ध में व्यस्त था, तब पेशवा ने पूना में होलकर के भाई बिट्ठूजी की हत्या करवा दी। होलकर अपने भाई की हत्या का बदला लेने पूना की ओर चल पड़ा। होलकर ने पूना के निकट पेशवा और सिन्धिया की संयुक्त सेना को परास्त किया और एक विजेता की भाँति पूना में प्रवेश किया। होलकर ने राघोबा के दत्तक पुत्र अमृतराव के बेटे विनायकराव को पेशवा घोषित कर दिया। इस पर पेशवा बाजीराव (द्वितीय) भयभीत होकर बसीन (बम्बई के पास अँग्रेजों की बस्ती) चला गया। बसीन में उसने वेलेजली से प्रार्थना की कि वह उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे। वेलेजली भारत में कम्पनी की सर्वोपरि सत्ता स्थापित करना चाहता था। मैसूर की शक्ति को नष्ट करने के बाद अब मराठे ही उसके एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गये थे। अतः वह मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूंढ रहा था। पेशवा द्वारा प्रार्थना करने पर वेलेजली को यह अवसर मिल गया।

बसीन की संधि (1802 ई.)

वेलेजली ने पेशवा के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह सहायक सन्धि स्वीकार कर ले तो उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दी जा सकती है। पेशवा ने वेलेजली की शर्त को स्वीकार कर लिया। 31 दिसम्बर 1802 को पेशवा और कम्पनी के बीच बसीन की सन्धि हुई। इस संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार से थीं-

(1.) पेशवा अपने राज्य में 6,000 अँग्रेज सैनिकों की एक सेना रखेगा तथा इस सेना के खर्चे के लिए 26 लाख रुपये वार्षिक आय का भू-भाग अँग्रेजों को देगा।

(2.) पेशवा बिना अँग्रेजों की अनुमति के मराठा राज्य में किसी अन्य यूरोपियन को नियुक्ति नहीं देगा और न अपने राज्य में रहने की अनुमति देगा।

(3.) पेशवा सूरत पर से अपना अधिकार त्याग देगा।

(4.) निजाम और गायकवाड़ के विरुद्ध पेशवा के झगड़ों के पंच निपटारे का कार्य कम्पनी द्वारा किया जायेगा।

(5.) पेशवा, ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी देशी राज्य के साथ सन्धि, युद्ध अथवा पत्र-व्यवहार नहीं करेगा।

बसीन की सन्धि का महत्त्व

बसीन की सन्धि के द्वारा पेशवा ने मराठों के सम्मान एवं स्वतंत्रता को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों बेच दिया, जिससे मराठा शक्ति को भारी धक्का लगा। सिडनी ओवन ने लिखा है- ‘इस सन्धि के पश्चात् सम्पूर्ण भारत में, कम्पनी का राज्य स्थापित हो गया।’

अँग्रेज इतिहासकारों ने इस सन्धि का महत्त्व आवश्यकता से अधिक बताया है। इस सन्धि का सबसे बड़ा दोष यह था कि अब अँग्रेजों का मराठों से युद्ध होना प्रायः निश्चित हो गया, क्योंकि वेलेजली ने मराठों के आन्तरिक झगड़ों को तय करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया था। वेलेजली ने कहा था कि इससे शान्ति तथा व्यवस्था बनी रहेगी किन्तु इस संधि के बाद सबसे व्यापक युद्ध हुआ। वेलेजली ने सन्धि का औचित्य बताते हुए कहा था कि अँग्रेजों को मराठों के आक्रमण का भय था किन्तु जब मराठे स्वयं अपने झगड़ों में उलझे हुए थे, तब फिर अँग्रेजों पर आक्रमण करने का प्रश्न ही नहीं था। वास्तविकता यह थी कि वेलेजली भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने पर तुला हुआ था और वह मराठों को ऐसी सन्धि में उलझा देना चाहता था, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का मार्ग खुल जाये। अतः बसीन की सन्धि ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं।

द्वितीय आँग्ल-मराठ युद्ध (1803-1805 ई.)

बसीन की सन्धि के बाद मई 1803 में बाजीराव (द्वितीय) को अँग्रेजों के संरक्षण में पुनः पेशवा बनाया गया। मराठा सरदार इसे सहन करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य को भुलाककर अँग्रेजों के विरुद्ध एक होने का प्रयत्न किया। सिन्धिया और भौंसले तो एक एक हो गये, किन्तु सिन्धिया व होलकर की शत्रुता अभी ताजी थी। अतः होलकर पूना छोड़कर मालवा चला गया। गायकवाड़ अँग्रेजों का मित्र था। अतः उसने भी इस अँग्रेज विरोधी संघ में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार अँग्रेजों के विरुद्ध सैनिक अभियान करने के लिये केवल सिन्धिया व भौंसले ही बचे। उन्होंने अँग्रेजों से युद्ध करने की तैयारी आरम्भ कर दी। जब वेलेजली को इसकी सूचना मिली तो उसने 7 अगस्त 1803 को मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक सेना अपने भाई आर्थर वेलेजली तथा दूसरी जनरल लेक के नेतृत्व में मराठों के विरुद्ध भेजी।

देवगढ़ की संधि (1803 ई.)

आर्थर वेलेजली ने सर्वप्रथम अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् अजन्ता व एलोरा के निकट असाई नामक स्थान पर सिन्धिया व भौंसले की संयुक्त सेना को परास्त किया। असीरगढ़ व अरगाँव के युद्धों में मराठा पूर्ण रूप से परास्त हुए। अरगाँव में परास्त होने के बाद 17 दिसम्बर 1803 को भौंसले ने अँग्रेजों से देवगढ़ की सन्धि कर ली। इस सन्धि के अन्तर्गत भौंसले ने वेलेजली की सहायक सन्धि की समस्त शर्तें स्वीकार कर लीं किंतु राज्य में कम्पनी की सेना रखने सम्बन्धी शर्त स्वीकार नहीं की। वेलेजली ने इस शर्त पर जोर नहीं दिया। इस सन्धि के अनुसार कटक तथा वर्धा नदी के निकटवर्ती क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिये गये।

सुर्जी-अर्जन की संधि (1803 ई.)

जनरल लेक ने उत्तरी भारत की विजय यात्रा आरम्भ की। उसने सर्वप्रथम अलीगढ़ पर अधिकार किया। तत्पश्चात् दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। जनरल लेक ने भरतपुर पर आक्रमण किया और भरतपुर के शासक से सहायक सन्धि की। भरतपुर के बाद उसने आगरा पर अधिकार किया। अन्त में लासवाड़ी नामक स्थान पर सिन्धिया की सेना पूर्णतः परास्त हुई। सिन्धिया को विवश होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि करनी पड़ी। 30 दिसम्बर 1803 को सुर्जीअर्जन नामक गाँव में यह सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुसार सिन्धिया ने दिल्ली, आगरा, गंगा-यमुना का दोआब, बुन्देलखण्ड, भड़ौंच, अहमदनगर का दुर्ग, गुजरात के कुछ जिले, जयपुर व जोधपुर अँग्रेजों के प्रभाव में दे दिये। उसने कम्पनी की सेना को भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। अँग्रेजों ने सिन्धिया को उसके शत्रुओं से पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया।

सिन्धिया व भौंसले ने बसीन की सन्धि को भी स्वीकार कर लिया। इन सफलताओं से उत्साहित होकर वेलेजली ने घोषणा की- ‘युद्ध के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है। इससे सदैव शान्ति बनी रहेगी।’ किन्तु वेलेजली का उक्त कथन ठीक नहीं निकला, क्योंकि शान्ति शीघ्र ही भंग हो गई।

होलकर से युद्ध

होलकर अब तक इन घटनाओं से उदासीन था। उसने सिन्धिया व भौंसले के आत्मसमर्पण के बाद अँग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया और अप्रैल 1804 में संघर्ष छेड़ दिया। उसने सर्वप्रथम राजपूताना में कम्पनी के मित्र राज्यों पर आक्रमण किया। यह आक्रमण अँग्रेजों के लिए चुनौती था। 16 अप्रेल 1804 को लार्ड वेलेजली ने जनरल लेक को लिखा कि जितनी जल्दी हो सके, जसवंतराव होलकर के विरुद्ध युद्ध आरम्भ किया जाये। ऑर्थर वेलेजली के नेतृत्व में दक्षिण की ओर से तथा कर्नल मेर के नेतृत्व में गुजरात की ओर से होलकर के राज्य पर आक्रमण किया गया। इस कार्य में दक्षिण भारत तथा गुजरात की अन्य राजनीतिक शक्तियों की सहायता ली गयी किंतु होलकर ने इस मिश्रित सेना को बुरी तरह परास्त किया। वेलेजली ने कर्नल मॉन्सन के नेतृत्व में राजपूताने की तरफ एक सेना भेजी। कर्नल मॉन्सन राजपूूताने के भीतर तक घुस गया। 17 जुलाई 1804 को मोन्सन ने चम्बल के किनारे होलकर को घेर लिया। होलकर ने कोटा के निकट मुकन्दरा दर्रे के युद्ध में कर्नल मोन्सन में कसकर मार लगायी तथा अँग्रेज सैन्य दल को लूट लिया। अँग्रेजों का तोपखाना और बहुत सी युद्ध सामग्री मराठों के हाथ लगी।

मॉन्सन आगरा की ओर भाग गया। तत्पश्चात् होलकर ने भरतपुर पर आक्रमण करके वहाँ के शासक रणजीतसिंह से सन्धि कर ली। यद्यपि महाराजा रणजीतसिंह ने अँग्रेजों से भी सहायक सन्धि कर रखी थी किन्तु इस समय उसने अँग्रेजों की सन्धि को ठुकराकर होलकर का समर्थन किया। यहाँ से होलकर दिल्ली की ओर गया। उसने दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया। दिल्ली पर होलकर के दबाव को कम करने के लिए अँग्रेजों ने जनरल मूरे को होलकर की राजधानी इन्दौर पर आक्रमण करने भेजा। मूरे ने इन्दौर पर अधिकार कर लिया। जब होलकर को इन्दौर के पतन की सूचना मिली तो वह दिल्ली का घेरा उठाकर इन्दौर की ओर रवाना हुआ। कर्नल बर्न, मेजर फ्रैजर और जनरल लेक की सेनाओं ने होलकर का पीछा किया। होलकर की सेनाओं ने डीग के पास हुई लड़ाई में मेजर फ्रैजर को मार डाला। डीग के दुर्ग पर होलकर का अधिकार हो गया किंतु 23 दिसम्बर 1804 को अँग्रेजों ने होलकर को परास्त करके डीग पर अधिकार कर लिया। इस पर होलकर को भाग कर भरतपुर के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। भरतपुर के राजा रणजीतसिंह ने होलकर तथा उसकी सेना को अपने यहाँ शरण दी। गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली चाहता था कि होलकर अँग्रेजों को सौंप दिया जाये किंतु महाराजा रणजीतसिंह ने अपनी शरण में आये व्यक्ति के साथ विश्वासघात करने से मना कर दिया। अँग्रेजों ने भरतपुर पर चार आक्रमण किये किंतु भरतपुर को जीता नहीं जा सका। इसके बाद फर्रूखाबाद में एक और युद्ध हुआ जिसमें होलकर परास्त होकर पंजाब की तरफ भाग गया। यद्यपि ईस्ट इण्डिया कम्पनी इस युद्ध में विजयी रही किंतु होलकर की शक्ति को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका। भरतपुर में मिली असफलता के कारण इंग्लैण्ड में वेलेजली की कटु आलोचना हुई। 1805 ई. में वेलेजली को त्यागपत्र देकर इंग्लैण्ड लौट जाना पड़ा।

लॉर्ड कार्नवालिस से लॉर्ड मिण्टो तक

वेलेजली के बाद 1805 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस को पुनः भारत भेजा गया किन्तु यहाँ आने के कुछ माह बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गयी। अतः जार्ज बार्लो को गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। कार्नवालिस व जार्ज बार्लो दोनों ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया और मराठों के प्रति उदारता की नीति अपनाई। फलस्वरूप 22 नवम्बर 1805 को सिन्धिया से एक नई सन्धि की गई, जिसके अनुसार उसे ग्वालियर व गोहद के दुर्ग तथा उसका उत्तरी चम्बल का भू-भाग लौटा दिया। कम्पनी ने राजपूत राज्यों को संरक्षण में लेने का विचार त्याग दिया। फलस्वरूप राजपूत राज्यों पर पर पुनः मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया। 7 जनवरी 1806 को होलकर के साथ सन्धि करके उसके अधिकांश क्षेत्र लौटा दिये गये। 1807 ई. में लॉर्ड मिण्टो गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। उसने भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। कार्नवालिस, जार्ज बार्लो तथा लॉर्ड मिण्टो, इन तीनों गवर्नर जनरलों की नीतियों के कारण मराठों ने अपनी शक्ति पुनः संगठित कर ली। इधर पिण्डारी भी, जो आरम्भ से मराठों के सहयोगी थे, अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे।

लॉर्ड हेस्टिंग्ज तथा तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1816-1818 ई.)

1813 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर आया। वह 1823 ई. तक भारत में रहा। यद्यपि पेशवा 1802 ई. में ही बसीन की सन्धि द्वारा अँग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुका था किन्तु अब वह इस अधीनता से मुक्त होना चाहता था। इसलिये उसने 1815 ई. में सिन्धिया, होलकर एवं भौंसले से गुप्त रूप से बातचीत आरम्भ की। पेशवा ने अपनी सैन्य शक्ति को दृढ़ करने का प्रयास किया। इस समय पेशवा तथा गायकवाड़ के बीच खण्डनी (खिराज) के सम्बन्ध में झगड़ा चल रहा था। इस सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गायकवाड़ का एक मंत्री गंगाधर शास्त्री, अँग्रेजों के संरक्षण में पूना आया। पेशवा अँग्रेजों के विरुद्ध गायकवाड़ का सहायोग चाहता था, किन्तु गंगाधर शास्त्री अँग्रेजों का घनिष्ठ मित्र था, अतः उसने पेशवा से सहयोग करने से इन्कार कर दिया। ऐसी स्थिति में पेशवा के एक विश्वसनीय मंत्री त्रियम्बकजी ने धोखे से गंगाधर शास्त्री की हत्या करवा दी। पूना दरबार में ब्रिटिश रेजीडेन्ट एलफिन्सटन की त्रियम्बकजी से व्यक्तिगत शत्रुता थी, अतः रेजीडेण्ट ने पेशवा से माँग की कि त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर उसे अँग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाये। पेशवा ने बड़ी हिचकिचाहट के साथ 11 सितम्बर 1815 को त्रियम्बकजी को अँग्रेजों के हवाले कर दिया। त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर थाना भेज दिया गया किंतु एक वर्ष बाद त्रियम्बकजी थाना से निकल भागने में सफल हो गया। एलफिन्सटन ने पेशवा पर आरोप लगाया कि उसने त्रियम्बकजी को भगाने में सहायता दी है।

पूना की संधि (1817 ई.)

एलफिन्सटन ने पेशवा की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से पेशवा पर एक नई सन्धि करने हेतु दबाव डाला और उसे धमकी दी कि यदि वह नई सन्धि करने पर सहमत नहीं होगा तो उसे पेशवा के मनसब से हटा दिया जायेगा। पेशवा ने भयभीत होकर 13 जून 1817 को अँग्रेजों से नई सन्धि की जिसे पूना की सन्धि कहते हैं। इस सन्धि के अन्तर्गत पेशवा ने मराठा संघ के अध्यक्ष पद को त्याग दिया, सहायक सेना के खर्च के लिए 33 लाख रुपये वार्षिक आय के भू-भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दिये। साथ ही नर्बदा नदी के उत्तर में स्थित अपने राज्य के समस्त भू-भाग एवं अहमदनगर का दुर्ग अँग्रेजों को समर्पित कर दिये। पेशवा ने त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर अँग्रेजों को सौंपने का वचन दिया और जब तक त्रियम्बकजी को अँग्रेजोें के सुपुर्द न कर दिया जाय, उस समय तक त्रियम्बकजी के परिवार को अँग्रेजों के पास बन्धक के रूप में रखना स्वीकार किया। पेशवा ने अँग्रेजों की अनुमति के बिना, किसी अन्य देशी राज्य से पत्र-व्यवहार न करने का वचन दिया।

पेशवा की किर्की पराजय (1817 ई.)

इस समय तक समस्त मराठा सरदार अँग्रेजों से अपमानजनक सन्धियाँ कर चुके थे और अब उनसे मुक्त होना चाहते थे। पेशवा भी पूना की सन्धि के अपमान की आग में जल रहा था। अतः जब 5 नवम्बर 1817 को सिन्धिया ने अँग्रेजों से सन्धि की, उसी दिन पेशवा ने पूना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। एलफिन्सटन किसी प्रकार जान बचाकर भागा तथा पूना से चार मील दूर किर्की नामक स्थान पर ब्रिटिश सैनिक छावनी में शरण ली। पेशवा की सेना ने किर्की पर आक्रमण किया किन्तु पेशवा परास्त हो गया तथा सतारा की ओर भाग गया। इस प्रकार नवम्बर 1817 में पूना पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया।

अप्पा साहब भौंसले की पराजय (1817 ई.)

पेशवा द्वारा युद्ध आरम्भ कर दिये जाने पर कुछ मराठा सरदारों ने भी कम्पनी से युद्ध करने का निश्चय किया। नवम्बर 1817 में अप्पा साहब भौंसले ने नागपुर के पास सीताबल्दी नामक स्थान पर कम्पनी की सेना पर आक्रमण किया किंतु परास्त हो गया। दिसम्बर 1817 में उसने नागपुर में कम्पनी की सेना पर आक्रमण किया किंतु वह पुनः परास्त हुआ और पंजाब होता हुआ, शरण प्राप्त करने के लिए जोधपुर चला गया। जोधपुर के राजा मानसिंह ने, जो स्वयं अँग्रेजों का विरोधी था, अप्पा साहब को शरण दे दी। अप्पा साहब 1840 ई. तक जोधपुर में रहा तथा वहीं उसकी मृत्यु हुई।

होलकर की पराजय (1817 ई.)

ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा होलकर की सेना के बीच 21 दिसम्बर 1817 को महीदपुर के मैदान में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में होलकर की सेना परास्त हुई। जनवरी 1818 में दोनों पक्षों के बीच मन्दसौर की सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुसार होलकर ने सहायक सन्धि स्वीकार कर ली, राजपूत राज्यों से अपने अधिकार त्याग दिये तथा बून्दी की पहाड़ियों व उसके उत्तर के समस्त प्रदेश कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिये। इस प्रकार होलकर भी कम्पनी की अधीनता में चला गया।

पेशवा के पद की समाप्ति (1818 ई.)

पेशवा बाजीराव (द्वितीय) अब भी सतारा में रह रहा था। जनवरी 1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पेशवा के विरुद्ध एक सेना भेजी। जनवरी 1818 में कोरगांव के युद्ध में तथा फरवरी 1818 में अष्टी के युद्ध में पेशवा बुरी तरह परास्त हुआ। मई 1818 में उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। अँग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त करके पेशवा को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठुर भेज दिया। पेशवा का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। सतारा का छोटा-सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। पेशवा के मंत्री त्रियम्बकजी को आजीवन कारावास की सजा देकर चुनार के किले में भेज दिया गया। इस प्रकार लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।

तृतीय मराठा युद्ध का महत्त्व

यह मराठों का अन्तिम राष्ट्रीय युद्ध था। इस युद्ध में मिली पराजय ने मराठा शक्ति का सूर्य सदा के लिए अस्त कर दिया। एक-एक करके समस्त मराठा सरदारों ने अँग्रेजों के समक्ष घुटने टेक दिये। मराठा संघ ध्वस्त हो गया। भारत में अँग्रेजों की प्रतिद्वन्द्विता करने वाला कोई नहीं रहा। पेशवा, होलकर, सिन्धिया और भौंसले अपने राज्यों के अधिकांश भू-भाग खो बैठे। राजपूत राज्य मराठों के प्रभुत्व से निकलकर अँग्रेजों के प्रभुत्व में चले गये। रेम्जे म्यूर ने इस युद्ध के औचित्य को सिद्ध करते हुए लिखा है- ‘कम्पनी की ओर से यह कोई आक्रामक युद्ध नहीं था तथा जिन क्षेत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ था, वह भविष्य में शान्ति बनाये रखने के लिए आवश्यक था।’

वेलेजली ने मराठा शक्ति पर प्रहार कर उसे क्षीण कर दिया था, लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को धराशायी कर दिया। इसलिए कहा जाता है कि लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने वेलेजली के कार्य को पूरा किया। इस युद्ध के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत की सर्वशक्ति सम्पन्न सत्ता बन गई।

मराठों के पतन के कारण

अधिकांश अँग्रेज इतिहासकारों के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत का शासन मुगल बादशाह से प्राप्त किया था किंतु भारतीय इतिहासकारों का मत है कि अँग्रेजों ने भारत का राज्य मुगलों से नहीं, अपितु मराठों से प्राप्त किया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में उत्पन्न हुई राजनीतिक शून्यता को मराठे ही भरने का प्रयास कर रहे थे। जिस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने अस्तित्त्व के लिए फ्रांसीसियों से संघर्ष कर रही थी, उस समय मराठे निर्णायक शक्ति के रूप में उभर चुके थे। मराठे भारत के प्रायः समस्त भागों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल कर रहे थे। कम्पनी के भीषण प्रहारों से मराठा शक्ति लड़खड़ाने लगी। लॉर्ड वेलेजली एवं लॉर्ड हेस्टिंग्ज के आक्रमणों से मराठा संघ चूर-चूर हो गया। मराठों ने अँग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। उनमें अँग्रेजों का विरोध करने का साहस नहीं रहा। मराठा राज्य और पेशवा पद समाप्त हो गया। मराठों के इस भयावह पतन के कई कारण थे-

(1.) मराठा संघ में एकता का अभाव

मराठों का राज्य, एक राज्य न होकर राज्यों का संघ था। प्रत्येक शक्तिशाली सरदार अपने राज्य में स्वतंत्र था। पानीपत के युद्ध (1761 ई.) के बाद मराठा संघ में विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हुई। पेशवा माधवराव (प्रथम) (1761-1772 ई.) के समय तक मराठा राज्यों में एकता बनी रही किन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह एकता समाप्त हो गयी। मराठा सरदारों पर पेशवा का नियन्त्रण शिथिल हो गया। सिन्धिया, होलकर, भौंसले और गायकवाड़ स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार करने लगे और एक दूसरे से युद्ध भी करने लगे। सिन्धिया और होलकर की प्रतिद्वन्द्विता अन्त तक चलती रही। बड़ौदा का शासक गायकवाड़ बहुत पहले ही अँग्रेजों से मैत्री कर चुका था। इसलिए वह आंग्ल-मराठा युद्धों में तटस्थ रहा। भौंसले भी अपना राग अलग अलापता रहा। इस कारण मराठा संघ पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया और अँग्रेजों को उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने तथा उन्हें परास्त करने का अवसर मिल गया।

(2.) योग्य मराठा नेतृत्व का विलोपन

18वीं शताब्दी के अंत तक लगभग समस्त प्रबल मराठा सरदारों की मृत्यु हो गई। महादजी सिन्धिया की 1794 ई. में, अहिल्याबाई होलकर की 1795 ई. में, तुकोजी होलकर की 1797 ई. में और नाना फड़नवीस की 1800 ई. में मृत्यु हो गयी। पेशवा बाजीराव (द्वितीय) अयोग्य था। दौलतराव सिन्धिया एवं जसवन्तराव होलकर अत्यंत स्वार्थी व महत्त्वाकांक्षी थे। उनमें योग्यता और चरित्र दोनों की कमी थी। दूसरी और अँग्रेजों को एलफिन्सटन, मॉल्कम, वेलेजली तथा लॉर्ड हेस्टिंग्ज जैसे योग्य राजनीतिज्ञों का नेतृत्व प्राप्त हुआ। फलस्वरूप मराठे ईस्ट इण्डिया कम्पनी से परास्त हो गये।

(3.) मराठों में कूटनीति का अभाव

मराठा सरदारों में कूटनीतिक योग्यता का नितांत अभाव था। भारत में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जिससे उन्होंने शत्रुता मोल न ले ली हो। राजपूत, जाट और सिक्ख जो मुगल सत्ता के क्षीण होने पर केन्द्रीय सत्ता से मुक्त होना चाहते थे, उनमें से हर एक से मराठों ने शत्रुता बांध ली। उन्होंने मुगल सल्तनत के अस्तित्त्व को बनाये रखने के लिये अहमदशाह अब्दाली से टक्कर ली। इस कारण उन्हें राजपूतों, सिक्खों और जाटों का सहयोग नहीं मिला और वे 1761 ई. के युद्ध में बुरी तरह काट डाले गये।

(4.) नाना फड़नवीस की त्रुटिपूर्ण नीतियाँ

नाना फड़नवीस की स्वार्थपूर्ण नीतियों ने मराठों के पतन की गति को बढ़ा दिया। नाना के लिए निजाम और टीपू ही मुख्य शत्रु थे। सालबाई की सन्धि के बाद नाना ने टीपू के विरुद्ध ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सहयोग दिया। टीपू के पतन के बाद दक्षिण भारत में शक्ति संतुलन बिगड़ गया। अब दक्षिण में केवल ईस्ट इण्डिया कम्पनी ही मराठों की एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गयी। इसलिये दोनों शक्तियों का एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हो जाना स्वाभाविक था। नाना फड़नवीस ने अपना दबदबा बनाये रखने के लिये किसी अन्य मराठा सरदार के महत्त्व को बढ़ने नहीं दिया। उसने महादजी सिन्धिया की सलाह को नहीं माना तथा उस पर कभी विश्वास भी नहीं किया। जबकि महादजी उत्तर भारत में महत्त्वपूर्ण सफलताएं अर्जित कर रहा था। नाना ने अल्पवयस्क पेशवा माधवराव (द्वितीय) को राज्यकार्य एवं युद्ध सम्बन्धी उचित प्रशिक्षण दिलवाने की व्यवस्था नहीं की। इस प्रकार नाना फड़नवीस की स्वार्थपूर्ण नीतियों ने मराठा संघ को दुर्बल किया। मराठा इतिहासकार सरदेसाई ने लिखा है- ‘यदि नाना फड़नवीस सत्ता व धन के पीछे नहीं पड़ता तो इतिहास में उसका स्थान और भी ऊँचा होता।’

(5.) प्रजा से अलगाव

मराठों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को संगठित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, परिवहन, और नागरिकों की नैतिक उन्नति के लिए कुछ नहीं किया। मराठों का प्रधान लक्ष्य मुगल बादशाह, अवध तथा बंगाल के नवाबों, राजपूत राज्यों तथा विभिन्न स्थानीय शासकों पर आतंक स्थापित करके उनसे चौथ एवं सरदेशमुखी प्राप्त करना था। प्रजा से सीधा जुड़ाव नहीं होने से उन्हें योग्य एवं ईमानदार कर्मचारी नहीं मिल सके। जिससे प्रशासन में सर्वत्र भ्रष्टाचार फैल गया। मराठा सरदार तथा उनके मंत्री अपने स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ सके। अतः जिस समय उनका अँग्रेजों से संघर्ष आरम्भ हुआ, उस समय तक मराठा, क्षत्रपति शिवाजी के  आदर्शों से भटक चुके थे। उत्तरी भारत से लूटमार में प्राप्त हुई सम्पत्ति ने उन्हें विलासप्रिय बना दिया। इस कारण मराठा सरदारों का नैतिक पतन हो गया। प्रजा का समर्थन न होने से उनका राज्य समाप्त होने में अधिक समय नहीं लगा।

(6.) आर्थिक व्यवस्था के प्रति उदासीनता

मराठों ने अपने राज्य की अर्थ व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने राज्य में कृषि, उद्योग और व्यापार को उन्नत करने का प्रयास ही नहीं किया। राज्य में उचित कर व्यवस्था के अभाव में राज्य को उचित आय प्राप्त नहीं हो सकी। उत्तरी भारत के जिन प्रदेशों पर उन्होंने अधिकार किया था, वहाँ भी उन्होंने आर्थिक ढाँचे में सुधार करने का प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने अपनी आय का प्रमुख साधन लूटमार बना लिया था। अतः वे न तो अपनी प्रजा को सम्पन्न बना सके और न अपने राज्य की आर्थिक नींव सुदृढ़ कर सके। ऐसा राज्य जो केवल लूट के धन पर ही निर्भर हो, स्थायी नहीं हो सकता था।

(7.) सेना में आधुनिकीकरण का अभाव

क्षत्रपति शिवाजी गुरिल्ला युद्ध पद्धति तथा घुड़सवार सेना के कारण मुगलों के विरुद्ध सफल रहे थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध भी मराठा सरदारों ने युद्ध के पुराने तरीकों को अपनाये रखा। केवल महादजी सिन्धिया ऐसा मराठा सरदार था जिसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से तैयार किया। सरदेसाई ने लिखा है कि मराठों में वैज्ञानिक युद्ध-पद्धति का अभाव था। जिसके फलस्वरूप मराठा सेना की क्षमता में कमी आ गयी थी। इतिहासकार केलकर के अनुसार मराठों की असफलता का मुख्य कारण प्रशिक्षित सेना, आधुनिक तोपखाने व बारूद का अभाव था। वस्तुतः मराठों ने अपने सैनिक कौशल के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि मराठों की ऐसी धाक जम गई थी कि उन्हें देखते ही भारतीय राज्यों की सेनाएँ हथियार डाल देती थीं। उनकी यह धाक ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सामने काम नहीं आई। इस पर मराठों ने फ्रांसिसी सेनापतियों की सहायता ली किंतु वे भी अँग्रेजों के समक्ष नहीं टिक सके। फ्रांसीसियों ने कुछ अवसरों पर मराठों को धोखा भी दिया।

(8.) मैसूर तथा हैदराबाद का पतन

दक्षिण भारत में तीन प्रमुख शक्तियाँ थीं- मराठा, निजाम और मैसूर। ये तीनों शक्तियाँ यदि संयुक्त मोर्चा बना लेतीं तो अँग्रेजों से लोहा ले सकती थीं किन्तु परस्पर फूट होने के कारण वे अँग्रेजों की कूटनीति में फंस गये। निजाम से मराठों की शत्रुता लम्बे समय से चल रही थी। इसलिये निजाम ने मराठों के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अँग्रेजों से सहायक सन्धि कर ली। मैसूर से भी मराठों की शत्रुता थी। नाना फड़नवीस ने मैसूर के शासक टीपू को कुचलने के लिए अँग्रेजों को सहयोग दिया। इस प्रकार अँग्रेजों ने मराठों के सहयोग से पहले मैसूर राज्य को समाप्त किया और उसके बाद मराठों को परास्त करने में सफल हो गये।

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