ई.955 में पोप जॉन (बारहवां) रोम के कैथोलिक चर्च का पोप हुआ। वह रोम के एक शक्तिशाली परिवार का सदस्य था तथा उसका परिवार विगत 50 वर्षों से चर्च की राजनीति में सक्रिय था। इसलिए वह रोम की राजनीतिक दुरावस्था को भी अच्छी तरह समझता था। उसे पता था कि इस समय रोम का कोई भी धनी-सामंत परिवार, रोम को नया सम्राट नहीं दे सकता था। इसलिए ई.962 में पोप ने जर्मन के शासक ओट्टो (प्रथम) को रोम पर अधिकार करने का निमंत्रण भेजा। ओट्टो ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया तथा बड़ी आसानी से रोम एवं इटली पर अधिकार कर लिया।
पोप ने ओट्टो (प्रथम) को अपने हाथों से रोमन सम्राट का ताज पहनाया तथा उसे ‘पापल एम्परर’ कहा। इस प्रकार पवित्र रोमन साम्राज्य का द्वितीय संस्करण अस्तित्व में आ गया। तब से लेकर 15वीं शताब्दी के अंत तक जर्मनी का सम्राट ही होली रोमन एम्परर होता था जो जर्मनी में रहता था और पोप रोम में बेधड़क राज करता था। जर्मनी के राजाओं ने होली रोमन एम्परर की हैसियसत से, गिरते हुए रोम को फिर से संभाला तथा उठाकर अपने पैरों पर खड़ा किया।
आगे चलकर ओट्टो तथा उसके उत्तराधिकारियों ने किंगडम ऑफ जर्मनी, किंगडम ऑफ बोहेमिया, किंगडम ऑफ बरगुण्डी तथा किंगडम ऑफ इटली को मिलाकर विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जिसे ‘रोमन साम्राज्य’ कहा जाता था किंतु वास्तव में यह जर्मन साम्राज्य था जिसने प्राचीन रोमन साम्राज्य के सभी राजकीय चिह्न एवं ध्वज आदि अपना लिए थे।
नया पवित्र रोमन साम्राज्य केन्द्रीय यूरोप का एक बहुजातीय जटिल राजनैतिक संघ था जो ई.962 से ई.1806 तक अस्तित्व में रहा जब तक कि नेपोलियन बोनापार्ट ने इसे समाप्त नहीं कर दिया। यह राज्य मध्य-युग में मध्य-यूरोप का हिस्सा था। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि रोमन साम्राज्य की छाया अठारह सौ साल की अवधि में बार-बार नवीन राज्य के रूप में प्रकट और लुप्त होती रही। संभवतः यह रोमन शब्द में छिपा हुआ जादू था जो पूरी दो शताब्दियों तक लोगों को एक साम्राज्य के भीतर जीने का भ्रम देता रहा।
पूर्वी रोमन साम्राज्य अब भी अपनी राजधनी कुस्तुन्तुनिया से एक व्यवस्थित राज्य की तरह चलता था किंतु नया पश्चिमी रोमन साम्राज्य बार-बार बदलता एवं मिटता रहा, बार-बार नए शासकों के अधीन प्रकट होता रहा। ऐसा लगता है मानो यह पुराने रोमन साम्राज्य के भूत की तरह बार-बार प्रकट एवं लुप्त होता था। रोम के लोगों के मन में पुराने रोमन साम्राज्य की स्मृति एवं ईसाई चर्च की प्रतिष्ठा के बल पर रोमन साम्राज्य की छाया बार-बार आकार लेती थी किंतु राज्य के जीवित रहने के लिए आवश्यक भीतरी शक्ति का अभाव होने के कारण वह कुछ सौ सालों में ध्वस्त हो जाती थी।
पोप और पात्रिआर्क ने एक दूसरे को निकाला
ई.1054 में रोम के पोप और कुस्तुंतुनिया के पात्रिआर्क ने एक दूसरे को ईसाई धर्म से बाहर निकाल दिया। आगे चलकर जब मुसलमानों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य को नष्ट कर दिया तब रोम ने कैथोलिक चर्च को तथा रूस ने ऑर्थोडॉक्स चर्च को संरक्षण प्रदान किया।
पोप द्वारा सम्राटों को दण्ड एवं संरक्षण
ओट्टो के शासनकाल में पोप की स्थितियों में फिर से सुधार आने लगा। ग्याहरवीं शताब्दी ईस्वी में पोप इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसने साधारण नागरिकों के साथ-साथ राजाओं तक को धर्म अर्थात् ईसाई समुदाय से बाहर निकालने का अधिकार प्राप्त कर लिया। पोप हिल्देब्रांदे सोवाना जो ग्रेगरी (सप्तम्) (ई.1073-84) के नाम से पोप बना था, जर्मनी के अभिमानी ‘होली रोमन एम्परर’ हेनरी (चतुर्थ) को इतना अपमानित किया कि उसे माफी मांगने के लिए बर्फ में नंगे पैर चलकर पोप के पास जाना पड़ा और पोप के कनौजा महल (इटली) के बाहर उस समय तक खड़े रहना पड़ा जब तक कि पोप ने कृपा करके उसे अंदर आने की अनुमति नहीं दी।
कुछ किंवदंतियों के अनुसार जर्मनी का राजा हेनरी (चतुर्थ) अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पोप के महल के सामने तीन दिन और तीन रात घुटनों के बल बैठकर पोप से क्षमा प्रार्थना करता रहा। संभवतः ये कहानियाँ पोप की महिमा को बढ़ाने के लिए गढ़ी गई होंगी।
पोप के चुनाव की विधि का निर्धारण
ग्यारहवीं सदी के मध्य तक पोप के चुनाव की कोई निश्चित विधि या प्रक्रिया नहीं थी। रोम के पादरियों में से ही कोई एक पादरी अपनी वरिष्ठता एवं प्रभाव के अनुसार अथवा रोम के सामंतों एवं एम्परर का समर्थन पाकर रोम के लेटिन कैथोलिक चर्च का बिशप हो जाया करता था और वही ईसाइयों का पोप कहलाने लगता था।
रोम के पोप ग्रेगरी (सप्तम्) ने ई.1059 में पोप के चयन के लिए पहली बार नियम निश्चित किए। रोमन कैथोलिक परम्परा में ‘कार्डिनल’ सबसे उच्च-स्तर के पादरी माने जाते हैं। इन कार्डिनलों का एक मण्डल गठित किया गया जिसे ‘होली कॉलेज’ (पवित्र मण्डल) कहा गया। यही मण्डल नए पोप का चयन करता था।
जब किसी पोप का निधन हो जाता था, तो कार्डिनल सिस्टीन चैपल के एक कमरे में बंद हो जाते थे जिसे कॉनक्लेव कहा जाता था। ये कार्डिलन अपने में से ही किसी एक कार्डिनल को नया पोप चुनते थे। इस कमरे का ताला तब तक नहीं खोला जाता था जब तक कि नया पोप नहीं चुन लिया जाता था।
इस दौरान न तो कोई व्यक्ति उस कमरे में जा सकता था और न कोई व्यक्ति उस कमरे से बाहर आ सकता था। न किसी तरह की सूचना उस कक्ष से बाहर भेजी जा सकती थी कि इस समय कॉन्क्लेव में क्या हो रहा है। नए पोप के चुनाव में कुछ घण्टों से लेकर कई-कई दिन लग जाते थे। इसलिए नए पोप का चुनाव होने तक कार्डिलन चैपल के बंद कॉनक्लेव में ही भोजन एवं शयन करते थे।
आज लगभग 1000 साल बीत जाने पर भी पोप के चयन की लगभग यही प्रक्रिया चल रही है। कॉन्क्लेव में स्थित सभी कार्डिनल अपने-अपने पसंद के किसी कार्डिनल का नाम एक पर्ची पर लिखकर उसे अपने सामने रखी प्लेट में रख देते हैं। जब सभी कार्डिनल अपनी पसंद के पोप का नाम लिख देते हैं तो उन पर्चियों को सुई से एक धागे में पिरो दिया जाता है। इनकी दो बार गिनती की जाती है। यदि इन पर्चियों के आधार पर किसी को पोप नहीं चुना जा सकता तो इन पर्चियों को जला दिया जाता है तथा उनसे निकलने वाला काला धुआं एक चिमनी के माध्यम से बाहर निकाला जाता है।
इस धुएं को देखकर कॉन्क्लेव के बाहर स्थित लोग समझ जाते हैं कि चयन प्रक्रिया का एक चक्र विफल हो गया है। यह प्रक्रिया तब तक बार-बार दोहराई जाती है जब तक कि किसी एक पोप के नाम पर सहमति नहीं बन जाती। पोप के नाम की सहमति होने पर चिमनी में सफेद धुआं छोड़ा जाता है जिससे बाहर स्थित लोग समझ जाते हैं कि ईसाई जगत को नया पोप मिल गया है।
मतदान-पर्चियों के जलने से निकलने वाला धुआं सिस्टीन चैपल की चिमनी से निकलता है। पिछले कुछ सालों में जब पोप के नाम पर सहमति नहीं बनी तो धुएं को काला करने के लिए उसमें भीगा-पुआल भी मिलाया गया।
चिमनी से निकले वाले धुएं के रंग को लेकर हमेशा भ्रम की स्थिति रही है। ई.1978 में धुएं को सफेद करने के लिए विशेष प्रकार का रसायन भी मिलाया गया किन्तु फिर भी धुआं सलेटी ही रहा। पोप के चयन की प्रक्रिया में समय-समय पर कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। अब पोप के चयन की प्रक्रिया में दुनिया भर के कैथोलिक चर्चों के कार्डिनल भाग लेते हैं।
जहाँ कार्डिनल बैठते हैं, उस पूरे क्षेत्र से रेडियो, टेलीविजन और संचार के साधन हटा दिए जाते हैं। कार्डिनलों की देखभाल के लिए रसोइए, डॉक्टर और कुछ नौकर होते हैं। कोई भी कार्डिनल अपने किसी सहयोगी को लेकर कॉनक्लेव में नहीं जा सकता। कार्डिनलों के कॉन्क्लेव में आ जाने के बाद लैटिन भाषा में आदेश दिया जाता है-‘एक्सट्रा ओमंस।’ अर्थात् चुनाव प्रक्रिया में जो भी शामिल नहीं हों वे बाहर चले जाएं। इसके बाद समस्त खिड़कियां एवं द्वार बंद कर दिए जाते हैं।
ई.1975 में पोप पॉल (षष्ठम्) ने तय किया कि अस्सी वर्ष से अधिक आयु के कार्डिनल वोट नहीं देंगे। पोप जॉन पॉल (द्वितीय) ने भी ई.1996 में कुछ बदलाव किए। पहले, पोप के चयन के लिए दो-तिहाई बहुमत मिलना आवश्यक था किन्तु अब आधे से अधिक मत आवश्यक हैं। इस समय विश्व में 184 कार्डिनल हैं जिनमें से 117 ने पिछले पोप को चुनने के लिए वोट दिए थे।
रोम के सम्राट का चुनाव
रोम में अत्यंत प्राचीन काल से गणतंत्र की व्यवस्था थी किंतु ऑक्टेवियन ऑगस्ट के समय से गणतंत्र समाप्त होकर राजतंत्र आ गया था। फिर भी गणतंत्र के कुछ चिह्न बचे हुए थे। इनमें से एक सम्राट के चुनाव की प्रक्रिया भी थी। एम्परर के चुनाव की प्रक्रिया रोम के कार्डिनल की तरह एक कोलोजियम द्वारा पूरी की जाती थी। सात सामन्त-सरदारों का एक सीनेट (मण्डल) बना हुआ था जिन्हें ‘इलैक्टर प्रिन्सेज’ कहा जाता था।
किसी एम्परर की मृत्यु होने पर ये सातों सरदार मिलकर नए एम्परर का चुनाव करते थे। चयन प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखने का प्रयास किया जाता था कि पुराने सम्राट का वंशज नहीं चुना जाए, सभी संभावित एवं योग्य सामंतों या सामंत-पुत्रों को अवसर दिया जाए किंतु व्यावहारिक रूप में पुराने एम्परर के पुत्र या वंशज को ही चुन लिया जाता था। इस प्रकार एक ही वंश के राजा कई पीढ़ियों तक रोम पर शासन करते रहते थे।