ऐश्वर्य और पराक्रम प्रदान करने वाली सत्ता को शक्ति कहते हैं।
-श्रीदम्देवी भागवत् 9-2-10
शैव धर्म
ऋग्वेद में रुद्र नामक देवता का उल्लेख है, यजुर्वेद के 16वें अध्याय में भवागन रुद्र की व्यापक स्तुति गाई गई है। अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा गया है। शैवमत का उद्गम ऋग्वेद में वर्णित रुद्र की आराधना से माना जाता है। आगे चलकर यही रुद्र, ‘शिव’ कहलाए।
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को आराध्य देव मानने वालों को ‘शैव’ तथा उनके मत को ‘शैव सम्प्रदाय’ कहा गया। बारह रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए।
शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य, हड़प्पा सभ्यता (ई.पू.3350-ई.पू.1750) की खुदाई में प्राप्त हुआ है जबकि लिखित रूप में लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण (उत्तर-वैदिक-काल) में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी लिंग पूजा का उल्लेख है। कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिंव और नंदी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
हिन्दुओं के चार मुख्य संप्रदाय हैं- वैदिक, वैष्णव, शैव और स्मार्त । शैव संप्रदाय के अंतर्गत शाक्त, नाथ और संत संप्रदाय आते हैं। दसनामी और गोरखपंथी संप्रदाय भी शैव धर्म के नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित हैं। शैव संप्रदाय एकेश्वरवादी है। इसके संन्यासी जटा रखते हैं तथा सिर भी मुंवडाते हैं किंतु शिखा नहीं रखते।
इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। शैव साधु निर्वस्त्र भी रहते हैं तथा भगवा वस्त्र भी धारण करते हैं। ये हाथ में कमंडल एवं चिमटा रखते हैं तथा गोल घेरे में अग्नि जलाकर धूनी रमाते हैं। शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, ओघड़, योगी तथा सिद्ध कहा जाता है।
शैव संप्रदाय में साधुओं द्वारा समाधि लेने की परंपरा थी। शैव मंदिरों को शिवालय कहते हैं जहाँ शिवलिंग एवं नंदी स्थापित होता है। शैव मावलम्बी आड़ा तिलक लगाते हैं तथा चंद्र तिथियों पर आधारित व्रत उपवास करते हैं।
शिव पुराण में शिव के दशावतारों का उल्लेख है। ये सभी अवतार तंत्रशास्त्र से सम्बन्धित हैं- (1.) महाकाल, (2.) तारा, (3.) भुवनेश, (4.) षोडश, (5.) भैरव, (6.) छिन्नमस्तक गिरिजा, (7.) धूम्रवान, (8.) बगलामुखी, (9.) मातंग तथा (10.) कमल।
अन्य स्रोतों से शिव के अन्य ग्यारह अवतारों के नाम भी मिलते हैं- (1.) कपाली, (2.) पिंगल, (3.) भीम, (4.) विरुपाक्ष, (5.) विलोहित, (6.) शास्ता, (7.) अजपाद, (8.) आपिर्बुध्य, (9.) शम्भ, (10.) चण्ड, (11.) भव।
प्रमुख शैव ग्रंथ इस प्रकार हैं- श्वेताश्वतरो उपनिषद, शिव पुराण, आगम ग्रंथ तथा तिरुमुराई। प्रमुख शैव तीर्थ इस प्रकार हैं- (1.) काशी विश्वनाथ बनारस, (2.) केदारनाथ धाम, (3.) सोमनाथ, (3.) रामेश्वरम, (4.) चिदम्बरम, (5.) अमरनाथ, (6.) कैलाश मानसरोवर। द्वादश ज्योतिर्लिंग भी प्रमुख शिव तीर्थ हैं।
शैव मत के विभिन्न सम्प्रदाय
शैव सम्प्रदाय प्रारम्भ में वैदिक धर्म की शाखा के रूप में विकसित हुआ किंतु आगे चलकर उसमें दो प्रमुख धाराएं दिखाई देती हैं- वैदिक शैव तथा तांत्रिक शैव। महाभारत में माहेश्वरों अर्थात् शैव मतावलम्बियों के चार सम्प्रदाय बताए गए हैं- (1.) शैव (2.) पाशुपत (3.) कालदमन तथा (4.) कापालिक।
वामन पुराण में भी शैव संप्रदायों की संख्या चार बताई गई है- (1.) लिंगायत, (2) पाशुपत, (3.) कालमुख, (4.) काल्पलिक। वाचस्पति मिश्र ने भी चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम दिए हैं। आगम प्रामाण्य, शिव पुराण तथा आगम पुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद बताए गए हैं। समय के साथ, शैव सम्प्रदाय में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय भी स्थापित हो गए।
लिंगायत सम्प्रदाय (वीर शैव मत)
वेदों पर आधारित शैव धर्म को उत्तर भारत में ‘शिवागम’ तथा दक्षिण भारत में ‘लिंगायत’ कहा गया। सामूहिक रूप से इसे ‘वीर शैव मत’ कहा गया। तमिल में इसे ‘शिवाद्वैत’ कहा गया। इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे। बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक उल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है।
ईसा से लगभग 1700 वर्ष पहले वीर शैव मत के अनुयाई अफगानिस्तान से लेकर काश्मीर, पंजाब तथा हरियाणा आदि विशाल क्षेत्र में निवास करते थे। बाद में यह मत दक्षिण भारत में जोर पकड़ गया और कर्नाटक प्रदेश इस धर्म का प्रमुख क्षेत्र बन गया।
महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु में वीर शैव उपासक अधिकतम हैं। यह एकेश्वरवादी धर्म है। वीर शैव की सभ्यता को ‘द्राविड़ सभ्यता’ भी कहते हैं। पारमेश्वर तंत्र में वीर शैव दर्शन को बाकी वैदिक मतों से जोड़ा गया है। पाणिनि के सूत्रानुसार वीर शैव का अर्थ, ‘ज्ञान में रमने’ वाला है। लिंगायत समुदाय को दक्षिण भारत में जंगम भी कहा जाता था।
शक्ति विशिष्टाद्वैत
वीर शैव दर्शन में ‘शक्ति’ की प्राधानता होने की कारण, इसे ‘शक्ति विशिष्टाद्वैत’ भी कहा गया है। ‘शक्ति’ को ही सत्व, रजस तथा तम नामक त्रिगुण माया कहा गया है। इस तरह शक्ति के दो रूप हैं, एक है- ‘सद-चित-आनंद रूप’ तथा दूसरा है- गुण-त्रय से मिला हुआ ‘मायारूप।’ इन दोनों स्वरूपों के मिलन को वीर शैव दर्शन में ‘पराशक्ति’ कहा गया है।
शक्ति की विशिष्ट रूप से उपासना करने के भी कई पंथ हैं, जिनमें से शक्ति विशिष्टाद्वैत प्रमुख है। इसके अनुसार त्रिगुणात्मक माया तथा विशिष्टाद्वैत के अंशी-भाव, दोनों मिल कर शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाते हैं-
वीर शैवं वैष्णवं च शाक्तं सौरम विनायकं।
कापालिकमिति विज्नेयम दर्शानानि षडेवहि।।
पाशुपत सम्प्रदाय (लकुलीश सम्प्रदाय)
पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है, इसके संस्थापक लकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। पाशुपत संप्रदाय के अनुयाइयों को पंचार्थिक कहा गया, इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ ‘पाशुपत सूत्र’ है। पाशुपत सम्प्रदाय को लकुलीश सम्प्रदाय या ‘नकुलीश सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है। ‘लकुलीश’ का उत्पत्ति स्थल गुजरात का ‘कायावरोहण’ क्षेत्र था।
यह सम्प्रदाय छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल गया। वैदिक लकुलीश लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे जबकि तांत्रिक लकुलीश अथवा पाशुपत, लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। छठी से 10 शताब्दी ईस्वी में लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का उल्लेख मिलता है।
गुजरात में लकुलीश मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुआ होगा। कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैल गया। शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से लेकर लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है।
लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख किया गया है, जो गुजरात के ‘झरपतन’ नामक स्थान में है। लकुलीश की यह मूर्ति सातवीं शताब्दी ईस्वी की है। लिंगपुराण में लकुलीश के मुख्य चार शिष्यों के नाम ‘कुशिक’, ‘गर्ग’, ‘मित्र’ और ‘कौरुष्य’ मिलते हैं। इस संप्रदाय का वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णु-पुराण एवं लिंगपुराण आदि में मिलता है।
कालमुख संप्रदाय
कालमुख संप्रदाय के अनुयाइयों को शिव पुराण में ‘महाव्रतधर’ कहा गया है। इस संप्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे।
कापालिक मत
कापालिक संप्रदाय के इष्ट देव ‘भैरव’ थे, इस संप्रदाय का प्रमुख केंद्र श्रीशैल नामक स्थान था। कापालिक संप्रदाय को ‘महाव्रत सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है। यामुन मुनि के शिष्य श्रीहर्ष (ई.1088) ने नैषध में ‘समसिद्धान्त’ नाम से जिस मत का उल्लेख किया है, वह कापालिक सम्प्रदाय ही है। कपालिक नाम के उदय का कारण नर कपाल धारण करना माना जाता है।
वस्तुतः यह भी बहिरंग सिद्धांत है। इसका अन्तरंग रहस्य ‘प्रबोध-चन्द्रोदय’ की ‘प्रकाश’ नामक टीका में प्रकट किया गया है। इसके अनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र उपलक्षित नर-कपालस्थ अमृत-पान करते थे। इस कारण ये कापालिक कहलाए। बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान थे।
सरबरतन्त्र में आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि 12 कापालिक गुरुओं और उनके नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि 12 शिष्यों के नाम एवं वर्णन मिलते हैं। इन शैव साधुओं को तन्त्रिक शैव मत का प्रवर्तक माना जाता है। कुछ पुराणों में कापालिक मत के प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है।
नाथ संप्रदाय
‘नाथ’ शब्द का प्रचलन हिन्दू, बौद्ध और जैन संतों के बीच विद्यमान है। ‘नाथ’ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। भगवान शंकर को भोलेनाथ और आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान शंकर के बाद इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम भगवान दत्तात्रेय का है। भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि सुप्रसिद्ध शिव मंदिर नाथों के प्रमुख मंदिर हैं। नाथ गुरुओं एवं शिष्यों को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है। इन्हें परिव्राजक भी कहते हैं। परिव्राजक का अर्थ होता है घुमक्कड़।