Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 18 – शैव एवं शाक्त धर्म (स)

शाक्त धर्म

सिंधु घाटी सभ्यता में मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। अतः शाक्त सम्प्रदाय, भारत के प्राचीनतम सम्प्रदायों में से है तथा हिन्दू-धर्म के तीन प्रमुख सम्प्रदायों- वैष्णव, शैव एवं शाक्त में से एक है। शाक्त सम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है। गुप्तकाल में शाक्त मत का नवीन रूप दिखाई देता है।

इस काल में वैष्णव एवं शैव मतों के समन्वय से नाथ सम्प्रदाय तथा नवीन शाक्त सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई। इसीलिए नाथों और शाक्तों में से कुछ शाखाएं वैष्णव धर्म का तथा कुछ शाखाएं तांत्रिक मत का पालन करती हैं। शाक्त धर्म, शक्ति की साधना का विज्ञान है। इसके मतावलंबी शाक्त धर्म को प्राचीन वैदिक धर्म के बराबर ही पुराना मानते हैं। शाक्त धर्म का विकास वैदिक धर्म के साथ-साथ या सनातन धर्म में इसे समावेशित करने की आवश्यकता के साथ हुआ। यह हिन्दू-धर्म में पूजा का एक प्रमुख स्वरूप है।

गुप्त काल में शाक्त सम्प्रदाय, उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया आदि द्वीपों में लोकप्रिय था। भारत में काश्मीर, दक्षिण भारत, असम और बंगाल में शाक्त धर्म का अधिक प्रचलन हुआ। वैष्णव मत पर शाक्त मत का प्रभाव हो जाने से ब्रज क्षेत्र में भी शक्ति की पूजा होने लगी। ब्रज क्षेत्र में महामाया, महाविद्या, करौली, सांचोली आदि विख्यात शक्ति पीठ स्थित हैं।

मथुरा के राजा कंस ने यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान श्रीकृष्ण की प्राण रक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है। देवी शक्ति की यह मान्यता ब्रज से लेकर सौराष्ट्र तक विस्तृत है। द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा को श्रीकृष्ण की भगिनी माना जाता है जो शिखर पर विराजमान रहकर सदा श्रीकृष्ण की रक्षा करती हैं।

ब्रज क्षेत्र आज से 100 वर्ष पूर्व तक तांत्रिकों का प्रमुख गढ़ था। यहाँ के तांत्रिक भारत भर में प्रसिद्ध रहे हैं। कामवन भी राजा कामसेन के समय तंत्र विद्या का मुख्य केंद्र था, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते थे। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद सम्पूर्ण भारत भूमि में शाक्त धर्म के प्रति आकर्षण कम हुआ।

सम्पूर्ण भारत वर्ष, अर्थात् हिन्दूकुश पर्वत से लेकर दक्षिण एशियाई द्वीपों में देवी के विभिन्न स्वरूपों के मंदिर एवं शक्ति पीठ प्राप्त होते हैं। शाक्त सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ ‘श्री दुर्गा भागवत पुराण’ है। ‘दुर्गा सप्तशती’ भी इसी पुराण का अंश है। इस ग्रंथ में 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। इनमें से 51-52 शक्ति पीठों का विशेष महत्व है। माँ दुर्गा के प्राचीन मंदिरों की संख्या भी हजारों में है। देवी उपनिषद के नाम से एक उपनिषद भी लिखा गया।

विश्व के प्रायः समस्त धर्मों में यह मान्यता है कि ईश्वर, पुरुष जैसा हो सकता है किंतु शाक्त धर्म विश्व का एकमात्र धर्म है जो ‘मातृ-तत्व’ को सृष्टि की रचयिता मानता है। शाक्त सम्प्रदाय में देवी को ही सर्वशक्तिमान माना जाता है तथा उसी की आराधना होती है। इस मत के अनुसार विभिन्न देवियां, एक ही सर्वशक्तिमान देवी के विभिन्न रूप हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत भी कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिनमें लक्ष्मी से लेकर रौद्ररूपा काली तक उपस्थित हैं। कुछ शाक्त सम्प्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु से मानते हैं।

भगवान शिव की पत्नी, माँ पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। यही सती, दुर्गा और भगवती है। उसी की विशेष आराधना के लिए वर्ष में दो बार नवरात्रि उत्सव का आयोजन किया जाता है। वर्ष का पहला नवरात्रि चैत्र माह में आता है इसे ‘चैत्रीय नवरात्रि’ कहते हैं। दूसरी नवरात्रि आश्विन माह में आती है जिसे ‘शारदीय नवरात्रि’ कहते हैं।

शारदीय नवरात्रि के नौ दिन उत्सव की तरह मनाए जाते हैं, जिसे दुर्गोत्सव कहा जाता है। चैत्रीय नवरात्रि शैव तात्रिकों के लिए होती है जिसके अंतर्गत तांत्रिक अनुष्ठान और कठिन साधनाएँ की जाती हैं। शारदीय नवरात्रि सात्विक साधकों के लिए होती है जो माँ की भक्ति तथा अनुकम्पा प्राप्ति हेतु मनाई जाती है।

शक्ति के तांत्रिक अनुयाइयों को ही मुख्यतः शाक्त कहा जाता है। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति-आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने हेतु कठिन साधना करते हैं। मान्यता है कि शक्ति, ‘कुंडलिनी’ रूप में मानव शरीर के गुदा आधार पर स्थित होती है।

‘जटिल-ध्यान’ एवं ‘यौन-यौगिक-अनुष्ठानों’ के माध्यम से कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में कुंडलिनी, सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है तथा मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश करती है और वहाँ यह अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर मिलती है।

भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव ‘हर्षोन्मादी-रहस्यात्मक समाधि’ के रूप में ‘मनो-दैहिक’ रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोट ही परमानंद कहलाता है। यह परमानंद ही कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद के प्रवाह के रूप में पूरे शरीर में नीचे की ओर बहता है।

एक ओर भारत भूमि पर उत्तर से दक्षिण तक वैष्णव धर्म तथा शैव धर्म फल-फूल रहा था तो दूसरी ओर शाक्त धर्म नामक वाममार्गी मत भी विभिन्न दार्शनिक व्याख्याओं के साथ रूप ले रहा था। वामर्माग में पंचमकारों- मद्य, मीन, मांस, मैथुन तथा मुद्रा के माध्यम से साधक की उन्नति का मार्ग ढूंढा गया तथा तंत्र-मंत्र और यंत्र के बल पर सिद्धियों की कामना की गई।

इस मत में भैरवी साधना जैसी अनेक साधना पद्धितियों का निर्माण किया गया जिनमें साधक को भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना अनिवार्य था। इस तंत्र साधना की कुछ मर्यादाएं निश्चित की गईं जिनकी पालना प्रत्येक साधक को करनी पड़ती थी। इस मत के अनुसार भैरवी ‘शक्ति’ का ही एक रूप होती है तथा तंत्र की सम्पूर्ण भावभूमि ‘शक्ति’ पर आधारित है।

इस साधना के माध्यम से साधक को इस तथ्य का साक्षात् कराया जाता था कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का माध्यम नहीं, वरन् शक्ति का उद्गम भी होती है। शक्ति प्राप्ति की यह क्रिया केवल सदगुरु ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं एवं संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारण तंत्र के क्षेत्र में स्त्री समागम के साथ-साथ गुरु के मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता पड़ती थी।

शक्ति उपासकों के वाम मार्गी मत में पहले मद्य को स्थान मिला। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। बाद में इसके भी दो हिस्से हो गए। जो साधक मद्य और माँस का सेवन करते थे, उन्हें साधारण-तान्त्रिक कहा जाता था। मद्य और माँस के साथ-साथ मीन (मछली), मुद्रा (विशेष क्रियाएँ), मैथुन (स्त्री संसर्ग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वाले तांत्रिकों को सिद्ध-तान्त्रिक कहा जाता था।

जन-साधारण इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। साधारण-तान्त्रिक एवं सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा ब्रह्म को पाने का प्रयास करते थे। पाँच मकारों के द्वारा अधिक से अधिक ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुण्डलिनी जागरण में प्रयुक्त किया जाता था।

कुन्डलिनी जागरण करके सहस्र-दल का भेदन किया जाता था और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जाता था। इस प्रकार वाम साधना में काम-भाव का उचित प्रयोग करके ब्रह्म की प्राप्ति की जाती थी। वाम साधना में एक और मत सामने आया जिसमें भैरवी-साधना या भैरवी-चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचों मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति करना था।

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