Friday, April 19, 2024
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55. शेर खाँ ने हुमायूँ के हरम की औरतें पकड़ लीं!

25 एवं 26 जून 1539 के बीच वाली रात में शेर खाँ स्थानीय आदिवासी कबीले के सरदार महारथ चेरो पर आक्रमण करने का बहाना करके उस कबीले की दिशा में रवाना हो गया। जब हुमायूँ को यह समाचार मिले तो हुमायूँ ने संतोष की सांस ली तथा हुमायूँ की सेना में भी खुशियां मनाई जाने लगीं किंतु शेर खाँ ने ढाई कोस आगे जाकर अपनी सेना को आदेश दिए कि अब पीछे मुड़कर मुगल शिविर पर आक्रमण किया जाए। शेर खाँ के सेनापति इस आकस्मिक आदेश के लिए पहले से ही तैयार थे।

इस समय हुमायूँ का शिविर चौसा नामक गांव के निकट लगा हुआ था जो गंगाजी एवं कर्मनासा नदियों के बीच स्थित था। वर्षा-ऋतु आरम्भ हो चुकी थी तथा हुमायूँ के शिविर के आसपास बाढ़ का पानी फैला हुआ था। इसके कारण मुगलों की तोपें काम नहीं कर सकती थीं। शेर खाँ ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अपनी सेना को तीन हिस्सों में बांट दिया। इनमें से एक सेना की अध्यक्षता स्वयं शेर खाँ कर रहा था, दूसरी सेना की अध्यक्षता उसका पुत्र जलाल खाँ कर रहा था और तीसरी सेना की अध्यक्षता अफगान अमीर खवास खाँ कर रहा था। इन तीनों सेनाओं ने अलग-अलग दिशा से हुमायूँ के शिविर की तरफ प्रस्थान किया।

जब तक हुमायूँ के गुप्तचर हुमायूँ को शेर खाँ के आने की सूचना पहुंचाते, तब तक शेर खाँ के अग्रिम-दस्ते हुमायूँ के शिविर तक पहुंच गए। मुगलों ने स्वप्न में भी इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी फिर भी हुमायूँ की सेना ने आनन-फानन में लड़ने की तैयारी की। हुमायूँ के पास इतना समय ही नहीं बचा था कि वह अपने सैनिकों को पंक्तियों में खड़ा करे। उसके अधिकांश सैनिक तो अभी अपने तम्बुओं में ही थे।

विद्या भास्कर ने लिखा है कि जब शेर खाँ के सैनिक हुमायूँ के शिविर में घुसे तो शेर खाँ के सैनिकों ने क्षण भर में ही हुमायूँ के सैनिकों को खदेड़ दिया। हुमायूँ अभी वजू से ही निवृत्त नहीं हो पाया था कि उसे अपनी सेना के छिन्न-भिन्न हो जाने की सूचना मिली। इससे हुमायूँ इतना घबरा गया कि उसने अपनी बेगमों एवं बच्चों की भी परवाह नहीं की और शिविर छोड़कर भाग खड़ा हुआ। कुछ लेखकों के अनुसार हुमायूँ चुनार दुर्ग की तरफ भागा जो इन दिनों हुमायूँ के अधिकार में था।

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मुगल सेना कर्मनाशा के तट की ओर भागी। चूँकि अफगानों द्वारा नदी का पुल नष्ट कर दिया गया था इसलिये मुगलों ने तैरकर नदी पार करने का प्रयत्न किया। अफगानों ने बड़ी क्रूरता से मुगलों का वध किया। कर्मनाशा नदी के भीतर तथा उसके तट पर लगभग सात हजार मुगलों के प्राण गए जिनमें से कई बड़े अधिकारी भी थे। हुमायूँ स्वयं अपने घोड़े के साथ नदी में कूद पड़ा। घोड़ा नदी में डूब गया। हुमायूँ स्वयं भी डूबने ही वाला था कि निजाम नामक एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से उसके प्राण बचाये। कुछ लेखकों के अनुसार हुमायूँ ने हाथी पर बैठकर नदी पार करने का प्रयास किया।

देखते ही देखते शेर खाँ की सेना ने हुमायूँ का पूरा शिविर अपने अधिकार में ले लिया। शेर खाँ ने हुमायूँ के पक्ष के बहुत से लोगों को मार दिया तथा बहुत से प्रमुख लोगों को जीवित ही पकड़ लिया। हुमायूँ तो भाग खड़ा हुआ था किंतु उसके हरम की स्त्रियां अपने ही डेरों में बैठी हुई भय से कांप रही थीं। उन्होंने इस क्षण की कल्पना तक नहीं की थी। उन्हें पता नहीं था कि जब जीवन में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए तब उन्हें क्या करना चाहिए। न वे भाग सकीं, न छिप सकीं। उनमें से बहुत सी औरतों ने स्वयं को भाग्य के हवाले कर दिया और आने वाली विपदा की प्रतीक्षा करने लगीं।

शेर खाँ ने अपने सेनापतियों को आदेश दिया कि मुगलिया हरम की औरतों को उनके डेरों से बाहर लाया जाए। जब हुमायूँ की मुख्य बेगम परदे से बाहर लाई गई तो शेर खाँ अपने घोड़े से उतर पड़ा। उसने बेगम के प्रति सम्मान प्रकट किया तथा उसे ढाढ़स दिलाया। इसका नाम बेगा बेगम था जो अपनी पुत्री अकीकः बेगम के साथ शिविर में मौजूद थी।

इस युद्ध को इतिहास की पुस्तकों में चौसा का युद्ध कहा गया है। वस्तुतः यह कोई युद्ध नहीं था अपितु शेर खाँ द्वारा बिछाया गया एक जाल था जिसमें हुमायूँ बड़ी आसानी से फंस गया था। इस युद्ध में बहुत कम लोग मारे गए थे। हुमायूँ की तरफ से न तो तोपों में बारूद भरा गया, न बंदूकें चलीं, न किसी सैनिक ने अपनी म्यान में से तलवार बाहर निकाली, न किसी ने बादशाह की परवाह की, न बादशाह ने किसी की परवाह की। हर किसी को अपने प्राण बचाने की पड़ी थी। इसलिए हुमायूँ तथा उसकी सेना सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए।

कुछ लेखकों ने लिखा है कि इस युद्ध में आठ हजार मुगल सैनिक मारे गए। यह बात सही प्रतीत नहीं होती क्योंकि यदि हुमायूँ के सैनिकों से हथियार उठाए होते तो मुगल बेगमें अपने डेरों में ही न पकड़ी जातीं। कुछ लेखकों के अनुसार मुगलों की तरफ से सात हजार सैनिक मारे गए थे जो कि नदी में डूबने से मरे थे न कि युद्ध में लड़ते हुए। मुगल औरतों को बंदी बनाने के बाद शेर खाँ ने उसी स्थान पर नमाज पढ़ी तथा आकाश की ओर देखते हुए दोनों हाथ फैलाकर अल्लाह के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। भावावेश में शेर खाँ की आंखों से आंसू निकल पड़े।

नमाज पढ़ने के बाद शेर खाँ ने अपनी सेना में मुनादी करवाई कि कोई भी सैनिक किसी भी मुगल स्त्री-बच्चे तथा दासी को एक रात के लिए भी अपने खेमे में न रखे। यदि किसी सैनिक को कोई मुगल-स्त्री हाथ लगी हो तो वह उसे तत्काल बेगा बेगम के पड़ाव में पहुंचा दे। इस प्रकार रात होने से पहले ही समस्त मुगल स्त्रियां बेगम के पड़ाव में पहुंच गईं और सबको भोजन दिया गया।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक भारत का इतिहास में लिखा है कि चौसा के युद्ध में हुमायूँ की दो बेगमें और एक लड़की लापता हो गई तथा उसकी मुख्य पत्नी बेगा बेगम और उसकी पुत्री अकीकः बेगम जीवित ही पकड़ ली गईं। शेर खाँ की विजय के उपलक्ष्य में नगाड़े बजने लगे और हजारों अफगान युवक अपने घोड़ों से उतर कर नाचने लगे। आखिर उन्होंने ई.1526 में पानीपत के युद्ध में हुई अपनी हार का भरपूर बदला ले लिया था! बाबर का बेटा हार कर भाग गया था और बाबर के खानदान की बहू-बेटियां अफगानों के कब्जे में थीं।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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