जब बंगाल की राजधानी गौड़ पर अधिकार करने के बाद हुमायूँ को समाचार मिला कि मिर्जा हिंदाल ने बगावत कर दी है तथा कुछ मुगल अमीर एवं बेग, मिर्जा हिंदाल की तरफ हो गए हैं तो हुमायूँ गौड़ से आगरा के लिए रवाना हुआ तथा गंगाजी के किनारे चलता हुआ गौड़ से मुंगेर होता हुआ हाजीपुर (पटना के निकट) पहुंच गया। जब शेर खाँ को ज्ञात हुआ कि हुुमायूँ वापस जा रहा है तो वह जंगलों से निकल आया। उसने अपनी सेनाओं को रोहतास दुर्ग में एकत्रित होने के आदेश दिए। शेर खाँ हुमायूँ को जीवित ही आगरा तक नहीं पहुंचने देता था। इसलिए जब शेर खाँ की पर्याप्त सेनाएं रोहतास पहुंच गईं तो शेर खाँ इन सेनाओं को लेकर हाजीपुर के लिए रवाना हुआ। हाजीपुर पहुंचकर शेर खाँ ने नदी के दूसरे तट पर शिविर लगा लिया जिसके एक तरफ हुमायूँ का शिविर था।
जब हुमायूँ को समाचार मिला कि शेर खाँ भारी सेना लेकर आ रहा है तो हुमायूँ ने जौनपुर से बाबा बेग, चुनार से मीरक बेग और अवध से मुगल बेग की सेनाएं बुलवा लीं।
हाजीपुर पहुंचकर शेर खाँ ने हुमायूँ को एक बार फिर प्रस्ताव भिजवाया- ‘यदि बादशाह मुझे बंगाल का राज्य प्रदान कर दे तो मैं बादशाह को 10 लाख रुपए वार्षिक-कर चुकाउंगा, बादशाह के नाम का खुतबा पढ़वाउंगा, बादशाह के नाम के ही सिक्के ढलवाउंगा और बादशाह का स्वामिभक्त बनकर रहूंगा।’
तारीखे शेरशाही में लिखा है कि इस प्रस्ताव के जवाब में हुमायूँ ने लिखा- ‘मैं तुम्हें बंगाल का राज्य देने को तैयार हूँ किंतु इस समय तुमने मेरे राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण करके तथा मेरे सामने अपनी सेनाएं खड़ी करके बहुत अनुचित कार्य किया है। तुम्हें मेरा उचित सम्मान करते हुए वापस लौट जाना चाहिए। मैं 2-3 पड़ाव तक तुम्हारा पीछा करूंगा किंतु उसके बाद वापस लौट आउंगा। यह मैं इसलिए करूंगा ताकि सारे सैनिक मेरी उत्तम सैनिक शक्ति से परिचित हो जाएं।’
मखजने अफगना के अनुसार भी हुमायूँ केवल दिखावे के लिए शेर खाँ का पीछा करना चाहता था ताकि हुमायूँ का सम्मान बना रहे। हुमायूँ ने शेख फरीद शकर गंज के वंशज शेख खलील को अपना पत्र देकर शेर खाँ के पास भेजा। उसके साथ बहुत सारे मुगल अधिकारी भेजे गए। इन लोगों ने शेर खाँ को बादशाह हुमायूँ का प्रस्ताव दे दिया। शेर खाँ ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
विद्या भास्कर ने अपनी पुस्तक शेरशाह सूरी में लिखा है- ‘जब सारे मुगल अधिकारी शेर खाँ से बात करके उसके दरबार से चले गए तो शेर खाँ ने हुमायूँ के दूत शेख खलील को गुप्त रूप से अपने पास बुलवाया तथा उससे पूछा कि समस्त अफगान अमीर आपके पूर्वज शेख फरीद शकर गंज में विश्वास रखते आए हैं। उसी सम्बन्ध से मैं आपसे पूछता हूँ कि मुझे हुमायूँ से लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए?’
शेख खलील ने कहा- ‘हालांकि मैं बादशाह हुमायूँ का दूत हूँ किंतु तुमने मुझे अपना जानकर मुझसे यह सवाल पूछा है तो मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि तुम्हें हुमायूँ से युद्ध करना चाहिए क्योंकि इस समय हुमायूँ की सेना बिखरी हुई है तथा उसके पास घोड़ों और पशुओं का अभाव है। तुम्हें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। क्योंकि ऐसा स्वर्णिम अवसर तुम्हें जीवन में फिर कभी नहीं मिलेगा।’
इस गुप्त-वार्तालाप के बाद शेख खलील तो हुमायूँ के शिविर में लौट गया और शेर खाँ संधि की शर्तों को मानने का दिखावा करते हुए अपना शिविर नदी से कई कोस पीछे ले गया। अब हुमायूँ ने अपनी सेनाओं को पुल की सहायता से नदी पार करने के आदेश दिए और वह यह दिखावा करते हुए नदी के दूसरी तरफ उतर गया कि वह शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने जा रहा है। हुमायूँ तो शेर खाँ से हुई संधि को अपनी जीत समझ रहा था और एक विजेता की तरह अपने शत्रु का पीछा करने का दिखावा कर रहा था किंतु वास्तविकता यह थी कि यह हुमायूँ की जीत नहीं थी अपितु मौत का ऐसा भयानक जाल था जो शेर खाँ ने हुमायूँ के लिए बिछाया था।
अगले दिन शेर खाँ को और पीछे हटना था किंतु शेर खाँ अपनी सेना की पंक्तियाँ सजाकर हुमायूँ की तरफ बढ़ने लगा। शेर खाँ की इस कार्यवाही से हुमायूँ हक्का-बक्का रह गया और युद्ध की तैयारी करने लगा किंतु शेर खाँ कुछ कोस आगे बढ़ने के बाद अपनी सेनाओं को वापस पीछे की तरफ ले गया जहाँ उसका शिविर लगा हुआ था। उसके पीछे हट जाने पर हुमायूँ ने चैन की सांस ली।
अगले दिन शेर खाँ ने फिर यही कार्यवाही की। वह दिन निकलते ही अपने सेना की पंक्तियाँ सजा कर हुमायूँ की तरफ कुछ कोस बढ़ा और कुछ देर बाद फिर से अपनी सेना को पीछे लौटाकर अपने शिविर में ले गया। हुमायूँ पुनः असमंजस की स्थिति में रहा कि एक बार संधि हो जाने के बाद शेर खाँ यह क्या कर रहा है?
उसी दिन आधी रात के समय शेर खाँ ने अपने सेनापतियों एवं मंत्रियों की एक बैठक बुलाई तथा उन्हें एक जोशीला भाषण दिया- ‘अब वह समय आ गया है जब अफगान, मुगलों को एक भीषण टक्कर देकर हमेशा के लिए समाप्त कर सकते हैं और अपने खोए हुए राज्य एवं जागीरें प्राप्त कर सकते हैं। अफगानों ने आपसी फूट के कारण अपनी सल्तनत खोई थी किंतु अब आपसी एकता के बल पर हमें अपनी सल्तनत वापस प्राप्त करनी है। आप लोग मेरा साथ दीजिए। नहीं तो हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाइए।
अफगान सेनापतियों ने शेर खाँ को वचन दिया कि- ‘हम मरते दम तक अफगानियों की आजादी के लिए लड़ेंगे और हुमायूँ को मारकर फिर से अपना मुल्क कायम करेंगे। आपको हमारी स्वामिभक्ति और कर्त्तव्यपरायणता पर संदेह नहीं करना चाहिए। आप ही हमारे सुल्तान हैं। हम आपके लिए अपने प्राण भी देंगे किंतु युद्ध का मैदान नहीं छोड़ेंगे।’
शेर खाँ यही चाहता था। इसलिए उसने बहुत सोच-समझकर सारी योजना बनाई थी। वह अपने जीवन का अंतिम सबसे बड़ा दांव लगाने की तैयारी कर चुका था। उसने अफगान अमीरों एवं सेनापतियों से कहा कि हमें आज रात ही अपनी योजना को अमल में लाना होगा और इसी समय अपनी सेना को पंक्तिबद्ध करके एक पहर रात रहते कूच करना होगा।
शेर खाँ की योजना के अनुसार इस बार उसकी सेनाएं न तो हुमायूँ की तरफ गईं, न हुमायूँ से उलटी दिशा में गईं अपितु नदी के समानांतर रहते हुए ढाई कोस तक आगे बढ़ीं। शेर खाँ हुमायूँ के सेनापतियों को पहले ही सूचित कर चुका था कि वह महर्ता (महारथ चेरो) के देश पर आक्रमण करने जा रहा है। हुमायूँ के गुप्तचरों ने दिन निकलते ही हुमायूँ को सूचित किया कि शेर खाँ की सेनाएं महर्ता के देश की तरफ चली गई हैं। यह समाचार सुनकर हुमायूँ ने चैन की सांस ली।
इस समय हुमायूँ की स्थिति उस चिड़िया की तरह थी जो मौत के जाल में फंस चुकी थी और उसे खतरे का आभास तक नहीं था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता