Saturday, July 27, 2024
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51. शेर खाँ ने हाथ में फावड़ा लेकर हुमायूँ के दूत से बात की!

 शेर खाँ ने चुनार के दुर्ग पर सहज ही अधिकार कर लिया और हुमायूँ उससे यह दुर्ग खाली नहीं करवा सका। जब हुमायूँ गुजरात के शासक बहादुरशाह पर अभियान करने चला गया तो शेर खाँ ने गंगा के किनारे-किनारे अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ किया और चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया।

मार्च 1537 में शेर खाँ की सेना ने गौड़ का दुर्ग घेर लिया। बंगाल के शासक महमूदशाह ने शेर खाँ से संधि कर ली और उसे तेरह लाख दीनार देकर अपना पीछा छुड़ाया परन्तु शेर खाँ ने इसका यह अर्थ निकाला कि महमूदशाह ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है और वह उसे वार्षिक कर दिया करेगा।

जब हुमायूँ शेर खाँ की गतिविधियों के समाचार सुनकर गुजरात से आगरा लौटा तो उसने हिन्दू बेग को जौनपुर का गवर्नर बना कर भेजा तथा शेर खाँ पर दृष्टि रखने के आदेश दिए। हिन्दू बेग एक बड़ी सेना लेकर जौनपुर पहुंचा। उसने हुमायूँ का विशेष दूत शेर खाँ के पास भेजा तथा उससे कहलवाया कि उसने हाल ही में जिन इलाकों पर अधिकार किया है, वे इलाके मुगल बादशाह हुमायूँ को समर्पित कर दे।

राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि जिस समय हुमायूँ का दूत शेर खाँ के पास पहुंचा, उस समय शेर खाँ सिपाहियों की तरह हाथ में फावड़ा लेकर खाई खोद रहा था। शेर खाँ ने हाथ में फावड़ा पकड़े हुए ही हुमायूँ के दूत से बात की। संभवतः ऐसा करके शेर खाँ हुमायूँ को यह जताना चाहता था कि शेर खाँ बहुत ही सामान्य आदमी है और उसे बादशाहों तथा सुल्तानों की तरह तख्त और ताज की आवश्यकता नहीं है।

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शेर खाँ ने हुमायूँ के दूत से कहा कि मैंने हमेशा बादशाह हुमायूँ के प्रति निष्ठा और भक्ति निभाई है। मैंने न तो बादशाह के विरुद्ध कोई अपराध किया है और न उसकी राज्य की सीमाओं के भीतर अपने सैनिक भेजे हैं। मैंने लोहानियों से बिहार का राज्य प्राप्त किया था किंतु बंगाल के सुल्तान ने मेरा राज्य छीनने का प्रयास किया। तब मैंने बंगाल के सुल्तान से प्रार्थना की थी कि वह मुझे बिहार पर शांति से राज्य करने दे किंतु वह नहीं माना। इसलिए मैंने उसे दण्डित किया। केवल इतनी सी बात से नाराज होकर बादशाह हुमायूँ ने मुझे नुक्सान पहुंचाने के लिए बंगाल की ओर रुख किया है। यह बादशाह हुमायूँ की भूल है। वह मेरी विशाल अफगान सेना को शत्रु बनाकर आगरा में शांति से शासन नहीं कर सकेगा।

शेर खाँ ने कहा कि बादशाह हुमायूँ का यह सोचना भी भूल है कि वह हमारी सेना को नष्ट कर देगा। बादशाह हुमायूँ ने हमारे साथ की गई पुरानी समस्त संधियों को तोड़ दिया है इसलिए अब मैं अपने अफगानों से यह करने में असमर्थ हूँ कि वे बादशाह के विरुद्ध विद्रोह न करें। मुगलों का यह ख्याल रहा है कि भारत में अफगानों की आपसी लड़ाई के कारण उन्हें भारत को विजय करने का अवसर मिला है किंतु अब वह स्थिति नहीं है। आज अफगान फिर से एक हो चुके हैं और अब युद्ध-स्थल में ही इसका निर्णय होगा कि मुगलों ओर अफगानों में किसकी सेना अधिक मजबूत है!

शेर खाँ ने कूटनीति से काम लेते हुए एक ओर तो हुमायूँ के दूत को खूब खरी-खोटी सुनाई तथा उसे युद्ध की धमकी दी तथा दूसरी ओर दूत की बड़ी खातिर-तवज्जो की और उसके हाथों हुमायूँ के लिए बहुत सारे बहुमूल्य उपहार भिजवाए। इसके बाद शेर खाँ ने चुनार तथा बनारस को छोड़कर, पूर्व के समस्त जिलों से नियंत्रण हटा लिया। शेर खाँ ने हिन्दू बेग के समक्ष हुमायूँ के प्रति निष्ठा प्रकट की। हिन्दू बेग को संतोष हो गया और उसने हुमायूँ को संदेश भेजा कि पूर्व की स्थिति बिल्कुल चिन्ताजनक नहीं है। हुमायूँ भी निश्चिन्त हो गया।

इसके बाद कठिनाई से कुछ महीने ही बीते थे कि ई.1537 में हुमायूँ को सूचना मिली की शेर खाँ ने फिर से बंगाल पर आक्रमण कर दिया है क्योंकि बंगाल के सुल्तान महमूदशाह ने शेर खाँ को वार्षिक-कर नहीं भेजा था। शेर खाँ ने गौड़ पर अधिकार कर लिया। बंगाल के सुल्तान महमूदशाह ने भागकर हुमायूँ के यहाँ शरण ली।

शेर खाँ द्वारा बंगाल पर किए गए इस आक्रमण से हुमायूँ का सतर्क हो जाना स्वाभाविक ही था। इस समय तक शेर खाँ की सेना काफी विशाल हो चुकी थी तथा उसके साधनों में भी बड़ी वृद्धि हो चुकी थी। शेर खाँ ने चुनार से लेकर गौड़ तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अपनी धाक जमा ली थी। वह भारत में एक बार फिर से अफगान राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहा था। इन कारणों से हुमायूँ, शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए बाध्य हो गया।

जुलाई 1537 में वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाने पर भी हुमायूँ ने आगरा से प्रस्थान किया। उसने कई महीने तक गंगाजी के किनारे पर स्थित कड़ा-मानिकपुर में पड़ाव डाले रखा तथा वहाँ से चलकर नवम्बर 1537 में चुनार से कुछ मील दूर अपना शिविर लगाया। हुमायूँ के अफगान-सरदारों ने हुमायूँ को परामर्श दिया कि वह सीधा गौड़ जाये और शेर खाँ की बंगाल-विजय की योजना को विफल कर दे।

दूसरी ओर मुगल सेनापतियों ने हुमायूँ को परामर्श दिया कि चुनार जैसे महत्त्वपूर्ण दुर्ग को, जो बंगाल के मार्ग में पड़ता था, शेर खाँ के हाथ में छोड़ना ठीक नहीं है। चुनार जीत लेने से हुमायूँ के साधनों में भी वृद्धि हो जायेगी, आगरा का मार्ग सुरक्षित बना रहेगा और चुनार को आधार बनाकर पूर्वी भारत के अफगानों से युद्ध किया जा सकेगा।

इस समय शेर खाँ की सेना ने गौड़ दुर्ग को घेर रखा था। हुमायूँ को शेर खाँ की शक्ति तथा बंगाल के शासक की कमजोरी का सही अनुमान नहीं था। इस कारण हुमायूँ को लगा कि बंगाल का शासक कुछ दिनों तक अपने राज्य की रक्षा कर सकेगा। इसलिये हुमायूँ ने मुगल सरदारों के परामर्श को स्वीकार करके चुनार दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।

मुस्तफा रूमी खाँ ने हुमायूँ को आश्वासन दिया कि तोपखाने की सहायता से चुनार दुर्ग पर शीघ्र ही अधिकार स्थापित हो जाएगा परन्तु ऐसा नहीं हो सका। दुर्ग को जीतने में लगभग 6 माह लग गये। इस विलम्ब के परिणाम बड़े भयानक हुए।

कुछ विद्वानों की धारणा है कि इस भयंकर भूल के कारण ‘हुमायूँ को अपना साम्राज्य खो देना पड़ा।’ हुमायूँ ने इस अवसर पर एक और भूल की। उसने चुनार दुर्ग की सुरक्षा के पर्याप्त प्रबंध नहीं किए। शेर खाँ को चुनार खो देने का बहुत दुःख हुआ क्योंकि यह दुर्ग उसकी शक्ति का आधार बन गया था।

शेर खाँ को हुमायूँ के विरुद्ध डटे रहने के लिये एक दुर्ग की आवश्यकता थी। इसलिये शेर खाँ ने रोहतास दुर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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