Saturday, July 27, 2024
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अध्याय-30 – समाज में नारी की युग-युगीन स्थिति (य)

अंग्रेजी शिक्षा का योगदान

अंग्रेजी शिक्षा के कारण तथा अंग्रेजी औरतों के रहन-सहन के कारण भारतीय लोगों के मन में नए विचारों का उदय हुआ। शिक्षित भारतीयों ने पर्दा-प्रथा को निरर्थक समझकर उसका विरोध किया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों के प्रयत्नों का ही परिणाम था कि हजारों स्त्रियों ने पर्दा त्यागकर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया।

थियोसोफिकल सोसायटी और दकन एजुकेशन सोसाइटी ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। समाज के शिक्षित वर्ग ने स्त्री-शिक्षा के कार्यक्रम को पूर्ण सहयोग दिया तथा अपनी बालिकाओं को स्कूल भेजने में उत्सुकता दिखाई। अनेक स्थानों पर प्रातःकालीन निःशुल्क शिक्षण-संस्थाओं का प्रबन्ध किया गया।

ई.1854 में चार्ल्स वुड के शिक्षा सम्बन्धी सुझावों में स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में भी परामर्श दिया गया था। यद्यपि ब्रिटिश सरकार स्त्री-शिक्षा के प्रति उदासीन रही, फिर भी 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लड़कियों की शिक्षण-संस्थाओं में वृद्धि होने लगी। ई.1882 में हण्टर आयोग ने बालिकाओं की शिक्षा के लिए स्थानीय संस्थाओं को अनुदान दिया।

ब्रिटिश सरकार द्वारा सुधार

18वीं और 19वीं शताब्दी के बीच अंग्रेज अधिकारियों ने सती-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या वध, दास-प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों को रोकने के लिए अनेक कानून बनाए। उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह को वैध घोषित किया। विलियम बैंटिक के समय समाज सुधार पर विशेष जोर दिया गया। जनवरी 1832 में विलियम बैंटिक ने अजमेर दरबार के दौरान राजपूताने के राजाओं एवं ब्रिटिश अधिकारियों को नयी सामाजिक नीति अपनाने के लिये प्रेरित किया।

इस तरह के आयोजन उस समय देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में आयोजित किए गए। ई.1857 की क्रांति के बाद समाज सुधार कानूनों को लागू करने में ढील दी गई क्योंकि ई.1858 में महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की थी कि सरकार भारतीय जनता के धार्मिक एवं सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

सती-प्रथा का निषेध

ब्रिटिश सरकार ने ई.1813 और ई.1817 में सती-प्रथा रोकने के लिए आदेश प्रसारित किए तथा अंग्रेज अधिकारियों को अधिकार दिए कि अवयस्क या गर्भवती स्त्री को सती होने से रोका जा सकता है और सती होने के लिए जोर-जबर्दस्ती किए जाने पर भी स्त्री को सती होने से रोका जा सकता है। ये आज्ञा-पत्र केवल शासकीय आदेश थे, कानून नहीं थे। इस कारण सती-प्रथा को रोकने में प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुए।

बंगाल में राजा राममोहनराय के नेतृत्व में भारतीयों का एक प्रगतिशील समूह सती-प्रथा को समाप्त करने हेतु आन्दोलन कर रहा था। इसलिए गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने 4 दिसम्बर 1829 को एक सरकारी आज्ञा द्वारा सती-प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। ई.1830 में बम्बई एवं मद्रास में भी यह कानून लागू कर दिया गया जिसके अनुसार सती होना निषिद्ध कर दिया गया एवं सती होने में किसी प्रकार की सहायता देना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया।

रूढ़िवादी तत्वों ने इस कानून का जबरदस्त विरोध किया किंतु राजाराममोहन राय के प्रयत्नों से यह कानून समाप्त नहीं हुआ। कुछ वर्षों में यह कानून देशी राज्यों में भी लागू हो गया। 26 अप्रेल 1846 को जयपुर संरक्षक परिषद ने जयपुर राज्य में सती-प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित किया। ई.1856 के अंत तक मेवाड़ को छोड़कर राजस्थान के सभी राज्यों में इस बुराई को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया। ई.1861 तक लगभग सारे भारत में सती-प्रथा पर रोक लगा दी गई जिससे सती होने की घटनाएं कम होती चली गईं। वर्तमान समय में यह प्रथा पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है। 

बाल-विवाह पर प्रतिबन्ध

बाल-विवाह पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए ई.1860 में भारतीय दण्ड विधान में लड़की के लिए दाम्पत्य सहवास की न्यूनतम आयु 10 वर्ष निश्चित की गई परन्तु इस आयु की लड़कियों से सहवास के भीषण परिणामों को देखते हुए इस आयु को बढ़ाने की मांग की जाने लगी। सरकार का विचार था कि शिक्षा के द्वारा समाज में स्वतः जाग्रति आएगी और बाल-विवाह स्वयं समाप्त हो जाएगा।

इस पर बहरामजी मलबारी इंग्लैण्ड गए और वहाँ के समाचार पत्रों में अपने लेखों एवं भाषणों से सरकार का ध्यान आकर्षित किया। समाज सुधारक के. टी. तैलंग ने कहा कि कन्या के सहवास की आयु निर्धारित करने में सुधार की आवश्यकता अधिक है न कि विवाह की आयु निश्चित करने की। मलबारी के एक मित्र दयाराम गिदूमल ने सुझााव दिया कि दाम्पत्य सहवास की आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी जाय।

जब सरकार सहवास के लिए न्यूनतम आयु पर विचार कर रही थी, तब सरकार के विरोधी सक्रिय हो उठे। उन्होंने सरकार द्वारा हिन्दू विवाह प्रथाओं को सुधारना राष्ट्रीय गौरव के लिए अपमानजनक कहा। लोकमान्य तिलक ने बम्बई प्रेसीडेन्सी में कहा कि विवाह की आयु पर नियंत्रण हो किंतु इसके लिए कानून की नहीं अपितु शिक्षा की आवश्यकता है।

रानाडे कानून द्वारा विवाह की आयु निर्धारित करने के पक्ष में थे। महादेव रानाडे दाम्पत्य सहवास की आयु 14 वर्ष करने के पक्ष में थे। उन्हीं दिनों एक ग्यारह वर्षीय बालिका फूलमणी दासी के साथ उसके पति ने ऐसा पाशविक सहवास किया कि उसकी मृत्यु हो गई। फूलमणी के पति पर हत्या का मुकदमा सलाया गया किन्तु वह ई.1860 के कानून का सहारा लेकर छूट गया जिसमें दाम्पत्य सहवास की आयु 10 वर्ष निश्चित की गई थी।

इस घटना ने सरकार को सहवास की न्यूनतम आयु का पुनर्निर्धारण करने के लिए विवश कर दिया। 19 मार्च 1821 को सरकार ने सहवास-वय विधेयक पारित कर दिया जिसके अनुसार लड़कियों के लिए सहवास-वय न्यूनतम 12 वर्ष निर्धारित की गई।

लोकमान्य तिलक ने इस कानून का विरोध किया, क्योंकि सहवास-वय का निर्धारण सरकार द्वारा किया गया था। तिलक का कहना था कि इस प्रकार के प्रतिबन्ध स्वयं समाज द्वारा लगाए जाएं तथा विदेशी सरकार भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप न करे। बिल पर वाद-विवाद के बाद जन-सामान्य इसे भूल गया तथा बाल-विवाह पहले की तरह होने लगे।

कन्या-वध पर रोक

मध्य-कालीन समाज में राजपूतों और जाटों सहित कुछ जातियों में कन्या-वध की प्रथा प्रचलित थी। यह कुप्रथा विशेषतः राजपूतों के साथ जुड़ी हुई थी किंतु जहाजपुर के मीणों, मेरों और भरतपुर के मेवों तथा जाटों में भी इस प्रथा का प्रचलन था। जिन जातियों में यह प्रथा प्रचलित थी, उन जातियों के शासक परिवारों एवं सामंत परिवारों में यह प्रथा प्रचलित नहीं थी।  इस अमानवीय कुप्रथा का पता अंग्रेज अधिकारियों को सर्वप्रथम ई.1789 में लगा।

ई.1795 तथा ई.1804 के कानूनों में ब्रिटिश प्रदेशों में कन्या-वध, हत्या का अपराध घोषित किया गया किंतु यह कुरीति निर्बाध रूप से चलती रही। ब्रिटिश अधिकारियों ने लोगों पर दबाव डालकर इस क्रूर कार्य को रोकने का प्रयास किया। जॉन लुडलो, जॉन सदरलैंण्ड, विलकिंसन आदि अंग्रेज अधिकारियों के प्रयत्नों के फलस्वरूप राजपूताना के राज्यों में भी ई.1831 के आसपास कन्या-वध को गैर कानूनी घोषित किया गया।

ई.1834 में कोटा एवं मेवाड़ राज्य ने कन्या-वध को प्रतिबंधित किया। ई.1837 में बीकानेर राज्य में एवं ई.1839 में जोधपुर राज्य में इस प्रथा को रोकने के लिए कुछ नियम बने।

ई.1844 में राजपूताना के ए.जी.जी. सदरलैण्ड, जयपुर में पॉलिटिकल एजेण्ट लुडलो तथा नीमच के पॉलिटिकल एजेण्ट रॉबिन्सन के संयुक्त प्रयासों के परिणाम स्वरूप राजस्थान के सभी राज्यों में कन्यावध को गैर-कानूनी घोषित किया गया। इस काल में कन्यावध का कारण दहेज प्रथा नहीं अपितु त्याग-प्रथा थी।

कन्या के पिता को अपनी कन्या का विवाह करवाने के लिए चारण तथा भाटों को बड़ी रकम समर्पित करनी होती थी जिसे त्याग कहते थे। इस त्याग की राशि से बचने के लिए राजपूत अपनी कन्याओं को मार डालते थे। ई.1843 में अंग्रेजों ने राजपूताने के राज्यों में यह आज्ञा प्रचारित करवाई कि जिस जागीरदार राजपूत की वार्षिक आय 1000 रुपये या उससे अधिक होगी वह अपनी कन्या के विवाह पर त्याग के रूप में चारण को 25 रुपये तथा भाट को 9 रुपये देगा।

भोमिये राजपूत, चारण को 10 रुपये तथा भाट को 5 रुपये देंगे। सामान्य राजपूत चारण को 5 रुपये तथा भाट को 4 रुपये देंगे। इस आदेश को पत्थरों पर खुदवाकर राज्यों की परगना कचहरियों के समक्ष प्रदर्शित किया गया। ई.1877 में हितैषिणी सभा उदयपुर ने तय किया कि केवल वही राजपूत त्याग की रकम देंगे जिनकी वार्षिक आय 500 रुपये से अधिक हो। यह रकम उस राजपूत की वार्षिक आय की 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

पुत्र तथा पुत्री के विवाह के उपलक्ष्य में कोई भी राजपूत अपनी वार्षिक आय का 25 प्रतिशत तक व्यय कर सकता है। मेवाड़ राज्य में बाहर से आए चारणों को त्याग नहीं दिया जाएगा। ब्राह्मणों एवं महाजनों को भी सूचित किया गया कि वे भी अपनी पुत्री के विवाह में अपनी वार्षिक आय का अधिकतम 25 प्रतिशत ही व्यय करें।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटिश प्रदेशों में कन्या-वध की कुप्रथा कम हुई किंतु राजपूताना की रियासतों में निर्बाध रूप से चलती रही। ई.1870 में एक कानून पारित करके प्रत्येक बच्चे के जन्म का पंजीकरण करवाना अनिवार्य किया गया। उन क्षेत्रों में जहाँ कन्या-वध अधिक प्रचलित था, समय-समय पर कन्याओं की गणना करके पता लगाया जाता था कि वहाँ अब भी कन्या-वध तो नहीं किया जा रहा है फिर भी 19वीं सदी में अकेले जोधपुर राज्य में कन्या-वध की प्रतिवर्ष 300-400 घटनाएं होती थीं।

विधवा-पुनर्विवाह

विधवा-पुनर्विवाह की मांग 16वीं सदी से हो रही थी जब बंगाल के रघुनन्दन भट्टाचार्य ने अपनी विधवा-पुत्री का पुनर्विवाह करने का असफल प्रयास किया था। 18वीं शताब्दी में विक्रमपुर निवासी राजा राजवल्ल्भ ने अपने नवयुवती विधवा कन्या का पुनर्विवाह करने का प्रयास किया किन्तु वे सफल नहीं हुए। 19वीं शताब्दी में विधवा-पुनर्विवाह आन्दोलन ने जोर पकड़ा।

14 मार्च 1835 के ‘समाचार दर्पण’ में कुलीन ब्राह्मण परिवारों की कुछ अविवाहित कन्याओं ने अपने लेखों द्वारा समाज में विधवा स्त्रियों की दुःखद स्थिति का वर्णन करते हुए विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन किया और आशा प्रकट की कि ब्रिटिश सरकार इस दिशा में सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाएगी। बम्बई के कुछ समाचार पत्र भी विधवा-पुनर्विवाह का प्रचार कर रहे थे।

बंगाल के महान् समाज सुधारक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने, रूढ़िवादियों के कट्टर विरोध के बावजूद इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया। जनवरी 1854 में उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किया कि विधवा-पुनर्विवाह शास्त्र सम्मत है। उनके विरोध में रूढ़िवादी पंडितों ने पुस्तकें लिखीं किंतु वे विद्यासागर को विचलित नहीं कर सके।

विद्यासागर ने 984 व्यक्तियों के हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा जिसमें विधवा-पुनर्विवाह को वैध घोषित करने की मांग की गई। बंगाल के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी ऐसे ही प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजे। दूसरी ओर रूढ़िवादी पंडितों ने भी हजारों व्यक्तियों के हस्ताक्षरयुक्त प्रार्थना पत्र भिजवाए कि विधवा-पुनर्विवाह शास्त्रसम्मत नहीं है किंतु विद्यासागर व अन्य सुधारकों के प्रयत्नों से सरकार ने 26 जुलाई 1856 को विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित कर दिया।

इस कानून के द्वारा विधवा-पुनर्विवाह को वैध घोषित कर दिया। विद्यासागर ने इस कानून के पारित होने के तीन माह के अन्दर विधवा-विवाह सम्पन्न कराया। इसके बाद कई विधवा-विवाह सम्पन्न हुए। विष्णुशास्त्री ने बम्बई में ‘विधवा सहायक सभा’ के माध्यम से विधवा-पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया। इस पर भी हिन्दू समाज में विधवा-पुनर्विवाह बहुत कम हुए क्योंकि विधवा स्त्री, पुनर्विवाह करने पर अपने पूर्व-पति की सम्पत्ति में अपना अधिकार खो देती थी।

डाकन-प्रथा पर रोक

भारत की अनेक जातियों में, विशेषकर  आदिवासी एवं जनजातियों में यह अमानवीय प्रथा प्रचलित थी। भारत सरकार ने अंग्रेज अधिकारियों को निर्देश दिए कि वे स्थानीय शासकों पर दबाव डालकर इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवायें। चूँकि राजपूताना के आदिवासी क्षेत्रों में इस प्रथा का अधिक प्रचलन था, अतः राजपूताना के राज्यों, विशेषकर मेवाड़ और कोटा के शासकों पर दबाव डाला गया। 19वीं सदी के मध्य में सर्वप्रथम कोटा राज्य ने इस प्रथा को गैर-कानूनी एवं दण्डनीय अपराध घोषित किया।

अक्टूबर 1853 तक ए.जी.जी. के निर्देश पर महाराणा मेवाड़ को छोड़कर सभी शासकों ने डाकन-प्रथा को गैरकानूनी करार देकर असहाय की सहायता के लिये प्रेरित किया।

मेवाड़ का महाराणा स्वयं डाकन-प्रथा में विश्वास करता था फिर भी अंग्रेजों के दबाव से मेवाड़ में डाकन-प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया तथा कानून का उल्लंघन करने वालों को छः मास के कारावास का प्रावधान किया। फिर भी मेवाड़ में यह कुप्रथा समाप्त नहीं हुई। निर्दोष विधवाओं एवं वृद्धाओं को अपने रास्ते से हटाने के लिए उन्हें धड़ल्ले से डाकन घोषित किया जाता रहा और उनकी हत्याएं होती रहीं, सरकार उन हत्यारों को दण्डित भी करती रही।

19वीं शताब्दी के अन्त में मेवाड़ के रेजीडेन्ट कर्नल वाल्टर ने इस कुप्रथा से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया और आदिवासियों के मुखियाओं को सौगन्ध दिलवाई कि वे किसी स्त्री के डाकन होने का संदेह होने पर उसकी हत्या नहीं करेंगे अपितु वे इसकी शिकायत सरकार से करेंगे और सरकार ही उस डाकन को दण्डित करेगी। इस सौगन्ध को भंग करने वालों को सरकार दण्डित करेगी।

मगरापाल के आदिवासी प्रतिनिधियों ने रिखबदेव में वाल्टर को डाकन-प्रथा पर रोक लगाने की सहमति प्रदान की तथा भविष्य में इस अपराध में संलिप्त अपराधियों को स्वयं पकड़कर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का भी वचन दिया। इस प्रकार की कार्यवाही अन्य स्थानों पर भी की गई। समय के साथ यह कुप्रथा कमजोर पड़ गई। वर्तमान समय में यह पूरी तरह समाप्त हो गई है।

दासी-प्रथा पर रोक

देशी राजा, सामन्त तथा अन्य धनी लोग निर्धन लड़कियों को खरीद कर अपनी बेटियों की शादी में दासियों के रूप में दहेज के साथ भेजते थे। घरेलू दास-दासी अमीर लोगों के घरों में वंशानुगत सेवक के रूप में कार्य करते थे। इन्हें गोला, गोली, दावड़ी, वड़ारन, दरोगा, चाकर हजूरिया, दास, खानजादा, चेला आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था। इनका जीवन बड़ा कठिन होता था।

उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी स्वामी तथा उसके परिवार की सेवा करनी पड़ती थी तथा स्वामी की लड़कियों के दहेज में जाना होता था। इस सब के बदले में उन्हें साधारण भोजन एवं वस्त्र प्राप्त होते थे। राजमहलों, सामन्तों की हवेलियों तथा सम्पन्न लोगों के यहाँ दासियों का दैहिक शोषण किया जाता था। ई.1833 के चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटिश भारत में दास-दासी प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया किंतु देशी राज्यों में यह प्रथा चलती रही।

ब्रिटिश अधिकारियों के दबाव देने पर ई.1839 में जयपुर राज्य की संरक्षक परिषद के अध्यक्ष जो कि ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट भी था, ने जयपुर राज्य में दास-व्यापार को प्रतिबंधित किया तथा दासों के गोला-गोली जैसे अपमानजनक सम्बोधनों पर रोक लगाई।

1 दिसम्बर 1840 को जोधपुर राज्य में भी दास व्यापार को प्रतिबंधित किया गया। राजपूताने के समस्त शासक ई.1848 में इस बुराई को समाप्त करने के लिए सहमत हो गए किंतु अधिकांश देशी राज्यों ने इस कुप्रथा पर ई.1862-63 तक रोक नहीं लगाई।

उन्नीसवीं सदी के अंत में पुष्कर में गौरीशंकर ओझा के सभापतित्व में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें गोला कहे जाने वाले समुदाय के लगभग 200 व्यक्ति उपस्थित हुए। सम्मेलन में उपस्थित लोगों में अपने स्वामियों का इतना अधिक भय था कि उन्होंने इस सम्मेलन में केवल एक ही प्रस्ताव पारित किया कि उन्हें गोला न कहकर रावणा-राजपूत कहा जाए।

अंग्रेज अधिकारी दास-प्रथा को समाप्त करने में विशेष सफलता अर्जित नहीं कर पाए क्योंकि राजपूताना के शासक एवं सामंत हर हाल में इस प्रथा को बनाए रखना चाहते थे। ई.1916 में जोधपुर राज्य की ओर से एक अधिसूचना जारी की गई कि घरेलू दासों के स्वामी उन्हें खाना, कपड़ा और विवाह, जन्म तथा मृत्यु का व्यय प्रदान करते हैं, इसलिए स्वामियों को दासों से काम लेने तथा अपनी पुत्रियों की शादी में दासों की पुत्रियों को दहेज में देने का पूरा अधिकार है।

ई.1921 की जनगणना के अनुसार राजपूताने में घरेलू दास-दासियों की संख्या 1,60,755 थी। इनमें से आधे दास ऐसे थे जिनका जन्म अपने मालिक के घर में हुआ था। अंत में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते ई.1926 में जोधपुर राज्य ने दास-प्रथा पर रोक लगाई किंतु यह प्रथा देश के आजाद होने तक अघोषित रूप से चलती रही।

लड़के-लड़कियों के क्रय-विक्रय पर रोक

राजपूत रियासतों सहित देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चों के क्रय-विक्रय की कुप्रथा प्रचलित थी। राजपूताने में बंजारा जाति अनाज तथा नमक के साथ-साथ बच्चों को खरीदने एवं बेचने का काम करती थी। राजपूताने में बच्चों को खरीदने वाले लोगों की संख्या काफी थी। कुछ लोग इन बच्चों को दास-दासी के रूप में अपनी कन्या के दहेज में दिया करते थे।

कुछ जोगी-जोगड़े अपने चेलों की संख्या बढ़ाने के लिए बच्चे खरीदते थे। कुछ लोग वेश्यावृत्ति करवाने के लिए लड़कियों को खरीदते थे। कुछ सम्पन्न सामंत इन्हें अपनी रखैल के रूप में रखते थे। एक बार मेवाड़ राज्य के भैरजी नामक आदमी ने ब्रिटिश प्रशासित क्षेत्र से 54 रुपये में 11 वर्ष की लड़की खरीदी। जब अंग्रेजों को उसका पता लगा तो उन्होंने महाराणा को लिखा कि वह भैरजी से लड़की छुड़वा कर वापिस उसके घर वालों को सौंपे।

इस पर महाराणा ने जवाब दिया कि भैरजी ने कोई गलत काम नहीं किया है। राज्य में यह प्रथा प्रचलित है। ई.1838 में कोटा के रामचंद्र ने अपना पुत्र 15 रुपये में बेचा। बच्चों के बेचने से जो रकम प्राप्त होती थी उसका 40 प्रतिशत हिस्सा राज्य कोष में कर के रूप में जमा करवाया जाता था। रामचंद्र ने 6 रुपये राजकोष में जमा करवाए। अंग्रेजों को इस घृणित कार्य का पता चल गया। उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया।

राजपूताना की अधिकांश रियासतों ने ई.1847 में लड़के-लड़कियों के क्रय-विक्रय को असंवैधानिक घोषित किया। जयपुर संरक्षण परिषद ने 5 फरवरी 1847 को जयपुर राज्य में नागाओं, दादूपंथियों, सादों इत्यादि द्वारा चेला बनाने के लिये की जाने वाली बच्चों की खरीद को असंवैधानिक घोषित किया। कोटा राज्य में ई.1862 तक बच्चों को खरीदना-बेचना जारी रहा। धीरे-धीरे इस प्रथा पर पूर्णतः रोक लग गई।

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