Monday, October 7, 2024
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अध्याय-30 – समाज में नारी की युग-युगीन स्थिति (द)

आधुनिक काल में नारी की स्थिति

भारतीय इतिहास में आधुनिक काल का आशय मुगल शासन की समाप्ति होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनारम्भ से लेकर वर्तमान समय से है। अंग्रेजों ने देशी शासकों को परास्त करके देश में दो प्रकार की शासन व्यवस्थाएं स्थापित कीं। पहली व्यवस्था में अंग्रेजों ने अपने द्वारा विजित क्षेत्रों को ब्रिटिश भारत कहा। देश के इस हिस्से पर अंग्रेजों के बनाए कानून लागू होते थे।

दूसरे हिस्से को रियासती भारत कहा जाता था। इस हिस्से में छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें राजाओं एवं नवाबों का शासन था। इन राज्यों को अधीनस्थ संधियों के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता के अधीन लाया गया जिनमें पॉलिटिकल एजेंटों के माध्यम से अंग्रेजी कानून लागू करवाए जाते थे।

अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय समाज में नारी का जीवन अत्यंत कठिन था। समाज में दहेज-प्रथा का प्रचलन था। विधवाओं का जीवन अंधकारमय था। पुरुषों में बहु-विवाह प्रचलित था तथा एक पत्नी की मृत्यु होने पर उसे दूसरा विवाह करने की छूट थी किंतु स्त्रियाँ पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं।

अंग्रेजों ने भारत में परम्परागत रूप से चली आ रही कुप्रथाओं यथा, सती-प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, पर्दा-प्रथा, कन्या-वध, अनमेल-विवाह प्रथा, दहेज प्रथा, देवदासी प्रथा, चेला बनाने की प्रथा, दास-प्रथा, बच्चों के बेचने की प्रथा आदि अनेक सामाजिक कुरीतियों को रोकने के लिए कानून बनाए।

सती-प्रथा

भारत में सती-प्रथा के उल्लेख महाभारत काल से मिलने लगते हैं। अधिकांश स्मृतियों में पतिव्रता स्त्री के लिए सती होना ही स्वर्गीय मार्ग बताया गया। संभवतः सती-प्रथा के आरम्भ में स्त्रियाँ धार्मिक भावना से प्रेरित होकर स्वेच्छा से सती हो जाया करती थीं। सती हो चुकी स्त्री को समाज में देवी माना जाता था। फिर भी प्राचीनकाल में सती होना अनिवार्य नहीं था।

राजा दशरथ की मृत्यु पर कोई भी रानी सती नहीं हुई थी। राजा पाण्डु के निधन के बाद केवल छोटी रानी माद्री सती हुई थी किंतु बड़ी रानी कुंती सती नहीं हुई। मध्य-काल आते-आते समाज में यह धारणा प्रचलित हो गई कि विधवा होने पर स्त्रियाँ सच्चरित्र नहीं रह पाएंगी। इसलिए कुल की मर्यादा बचाने के उद्देश्य से उसे सती होने पर विवश किया जाता था।

सती होने की इच्छुक न होने पर भी उसे चिता के साथ बाँध दिया जाता था और जब वह जलती हुई चिता से भागने का प्रयत्न करती तो परिवार के लोग उसे बाँस से पीटते हुए चिता की ओर धकेल देते थे। स्त्री का क्रन्दन किसी को सुनाई न पड़े, इसके लिए जोर-जोर से ढोल बजाए जाते थे। कुछ मध्ययुगीन शासकों ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के प्रयत्न किए किन्तु यह कुप्रथा चलती रही। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में बंगाल, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों में बड़ी संख्या में स्त्रियाँ सती होती थीं।

कन्या-वध

भारत में प्राचीन काल से कन्या का जन्म अच्छा नहीं माना जाता था। पातंजलि ने भाष्य में लिखा है- ‘पुत्र प्रकाश के समान है और पुत्री संकट का स्रोत है।’ राजपूत परिवारों में कन्या का पैदा होना अच्छा नहीं मानते थे। कन्या के विवाह पर वर-पक्ष को दहेज देना पड़ता था। कन्या के विवाह के अवसर पर चारण, ढोली एवं भाट कन्या के पिता से ‘त्याग’ एवं ‘नेग’ के रूप में बड़ी राशि की मांग करते थे।

त्याग एवं नेग नहीं देने पर कन्या के पिता को समाज में नीचा देखना पड़ता था। इन अप्रिय परिस्थितियों से बचने के लिए अधिकांश कन्याओं को जन्मते ही मार दिया जाता था। आधुनिक युग के प्रारम्भ में यह कुप्रथा जोरों पर थी। कन्या के जन्म लेते ही उसे अफीम देकर या गला दबाकर या माता के स्तन पर विष लगाकर मार देते थे। 18वीं सदी के अन्त तक इस प्रथा पर स्वैच्छिक रोक लगनी आरम्भ हो गई।

डाकन-प्रथा

मध्ययुग में विश्व के अनेक देशों में यह विश्वास था कि कुछ स्त्रियाँ चुड़ैल अथवा डाकन होती हैं जो बच्चों और रूपवती नव-विवाहिताओं को खा जाती हैं। वे शमशान में गाढ़े गए बच्चों का कलेजा निकाल कर खाती हैं। मृत बच्चा न मिलने पर डाकन रात के समय किसी जीवित बच्चे का कलेजा खा जाती है जिससे बच्चा मर जाता है। इस अन्धविश्वास को झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं और तात्रिकों ने अधिक दृढ़ बनाया।

झाड़-फूँक करने वाला ओझा, तांत्रिक या भोपा जब किसी स्त्री के डाकन होने की पुष्टि कर देता था तब उस स्त्री को जलाकर या सिर काटकर या पीट-पीट कर मार डाला जाता था। ताकि डाकन किसी को कष्ट नहीं पहुँचा सके। 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी में तो लोगों में यह विश्वास अत्यधिक दृढ़ था। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अनेक जातियों, विशेषकर भील, मीणा तथा कुछ अन्य आदिवासी जातियों में यह अन्धविश्वास अधिक व्याप्त था। कई बार तो डाकन घोषित स्त्री के परिवार और उसके पति की सहमति से उस स्त्री को जीवित जला दिया जाता था। गांव वाले या उस स्त्री के परिवार वाले इस कुकृत्य का विरोध नहीं करते थे।

बाल-विवाह

वैदिक-काल में कन्या का विवाह, उसके विवाह योग्य होने पर ही किया जाता था किंतु सूत्रकाल तक आते-आते कन्याओं के विवाह की आयु में कमी होने लगी तथा पूर्वमध्य-काल तक समाज में बाल-विवाह ने कुरीति का रूप ले लिया। मुसलमानों के बार-बार आक्रमणों के कारण, लड़कियों के सतीत्व की रक्षा के लिए बाल-विवाह को अच्छा समझा गया किंतु इससे लड़कियों के शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक और व्यक्तित्त्व विकास का मार्ग अवरुद्ध हो गया।

बाल-विवाह के कारण बाल-विधवाओं की समस्या उत्पन्न हो गयी। बहुत सी लड़कियां खेलने-कूदने की उम्र में ही विधवा हो जाती थीं। अक्षय तृतीया को घर की कई कन्याओं का एक साथ विवाह कर दिया जाता था। कुछ कन्याओं को तो थाली में बिठाकर ब्याहा जाता था। बाल-विवाह के कारण छोटी आयु में लड़की माँ बनती थी। आधुनिक समय में कानून के बल पर इस कुप्रथा को समाप्त किया गया है किंतु समाज में यह कुप्रथा अब भी चोरी-छिपे विद्यमान है।

पर्दा-प्रथा

वैदिक संस्कृति में पर्दा-प्रथा का प्रचलन नहीं था। भारत पर मुस्लिम आक्रमण आरम्भ होने से पूर्व स्त्रियां बिना परदे के स्वतन्त्रता पूर्वक आ-जा सकती थीं किंतु आक्रान्ता सैनिक सुन्दर कन्याओं का अपहरण करके उनसे बलात् निकाह करने लगे। इस कारण हिन्दू समाज ने बाल-विवाह एवं पर्दा-प्रथा का सहारा लिया। धीरे-धीरे इस कुप्रथा ने हिन्दू समाज में अनिवार्य नैतिक-प्रथा का रूप ले लिया।

स्त्री को घर के भीतर भी घर के पुरुषों एवं से यहाँ तक कि अपनी सास आदि महिलाओं से भी पर्दा करना पड़ता था। उसका घर से निकलना और शिक्षा ग्रहण करना भी बंद हो गया। मुसलमानों में स्त्रियों के लिए बुर्का एवं हिजाब पहनना अनिवार्य था। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में समाज-सुधारकों ने पर्दा-प्रथा के विरुद्ध आवाज उठानी आरम्भ की किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में यह कुप्रथा आज भी अनिवार्य नैतिक-परम्परा बनी हुई है।

दास-प्रथा

प्राचीन एवं मध्य-कालीन भारतीय समाज में दासी-प्रथा का प्रचलन जोरों पर था। इसके लिए लड़कियों की खरीद-फरोख्त होती थी। राजपूत लोग अपनी पुत्री के विवाह में दहेज के साथ दासियां देने के लिए लड़कियों को खरीदते थे। कुछ सामन्त या सम्पन्न लोग लड़कियों को अपनी रखैल बनाने के लिए खरीदते थे।

किसी लड़की के साथ दहेज में जाने वाली दासी को सामान्यतः उस घर के पुरुषों की भोग्या बनकर रहना पड़ता था। इस प्रकार 19वीं सदी के मध्य तक भारतीय नारी की स्थिति अत्यंत खराब थी परन्तु 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अनेक भारतीय एवं अंग्रेज समाज सुधारकों के प्रयासों से सरकार ने इन कुप्रथाओं के विरुद्ध कानून बनाकर इन पर रोक लगाने का प्रयास किया।

नारी की स्थिति सुधारने में समाज-सुधारकों का योगदान

पश्चिम का समाज व्यक्तिवादी समाज है जिसमें स्त्री और पुरुष को बराबरी के अधिकार है। वहाँ स्त्री अपने विवाह, संतानोत्पत्ति एवं विवाह-विच्छेद जैसे निर्णय स्वयं लेती आई है। अंग्रेजों के शासनकाल में जब भारतीय लोग भ्रमण, पर्यटन, व्यवसाय एवं शिक्षा आदि उद्देश्यों से इंग्लैण्ड आदि देशों में जाने लगे तो उन्हें अपने देश की नारी की खराब स्थिति पर सोचने का अवसर मिला। बहुत से अंग्रेज अधिकारियों ने भी भारतीय समाज में स्त्री की दुर्दशा को करुणा की दृष्टि से देखा और उसकी दुर्दशा को दूर करने का प्रयास किया।

ईसाई मिशनरियों का योगदान

भारत में आई अनेक ईसाई मिशनरियों ने भारतीयों में प्रचारित किया कि पर्दा करना अनिवार्य नहीं है, स्त्रियों को पर्दा त्यागकर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार ने भारतीयों में भी आधुनिक सोच एवं व्यक्तिवादी जीवन शैली का विकास किया। अनेक ईसाई समाज सुधारकों ने भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं लिखकर भारतीयों का ध्यान सामाजिक कुरीतियों की ओर खींचा। ईसाई पादरियों ने सती-प्रथा एवं बाल-विवाह की कड़ी भर्त्सना की।

बंगाल में समाज सुधार कार्यक्रम

राज राममोहनराय ने ब्रह्मसमाज के माध्यम से नारी सुधार का कार्यक्रम चलाया। बम्बई के प्रार्थना समाज और लाहौर के देव समाज ने भी भारतीय नारियों की स्थिति सुधारने के लिए आन्दोलन चलाए। जिनके परिणाम स्वरूप गवर्नर-जनरल विलियम बैटिक ने ई.1829 में सती-प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया। राजा राममोहनराय ने बहु-विवाह का भी विरोध किया।

उन्होंने स्त्रियों के सामाजिक, कानूनी और सम्पत्ति के अधिकारों पर जोर दिया। वे स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। बंगाल के समाज सुधारक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कहा कि सती-प्रथा के बन्द होने से स्त्रियों की यातना का अन्त नहीं हुआ है। इसलिए उन्होंने विधवा-विवाह का प्रबल समर्थन किया। विद्यासागर के अथक प्रयत्न से ही ई.1856 में विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम स्वीकृत हुआ।

विद्यासागर ने ई.1849 में कलकत्ता में एक कन्या विद्यालय की स्थापना की जो आगे चलकर बैथ्यून गर्ल्स कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विद्यासागर ने अपनी सारी सम्पत्ति इस कॉलेज को दान कर दी।

आर्य समाज का योगदान

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म और संस्कृति की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से स्त्री-शिक्षा पर विशेष जोर दिया तथा कन्याओं की शिक्षा के लिए गुरु-कुलों की स्थापना की। स्वामीजी ने बाल-विवाह का विरोध किया और कहा कि कन्याओं के लिए 16 से 24 वर्ष की आयु विवाह के लिए उपयुक्त है। वैदिक-काल के सामाजिक ढांचे के आधार पर उन्होंने स्त्रियों को समाज में उच्च एवं प्रतिष्ठित स्थान दिलाने का प्रयास किया।

महाराष्ट्र में समाज सुधार

महाराष्ट्र में स्त्री-शिक्षा का प्रथम बिगुल महात्मा ज्योतिराव फूले ने बजाया। उन्होंने ‘महिला शिक्षा समिति’ की स्थापना की तथा ई.1848 में अतिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। ब्राह्मणों के तीव्र विरोध के कारण उन्हें इस स्कूल के लिए अध्यापक नहीं मिला। अतः ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री बाई को, जिसे ज्योतिबा ने घर पर पढ़ाया था, स्कूल में पढ़ाने भेजा। रूढ़िवादियों ने सावित्री बाई पर कीचड़ और पत्थर फेंके किंतु वे सावित्री बाई को अपने मार्ग से नहीं हटा सके। ज्योतिबा विधवा-विवाह के प्रबल समर्थक थे। उनके प्रोत्साहन पर पूना में एक शैणवी जाति की विधवा स्त्री का विवाह हुआ।

ज्योतिबा ने एक ऐसा अनाथालय स्थापित किया जहाँ गर्भवती हिन्दू विधवाएं गुप्त रूप से अपना अपना प्रसव करा सकती थीं और अपने बच्चे को अनाथालय में रख सकती थीं। ज्योतिबा के मित्र विष्णु शास्त्री ने भी विधवा-विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए एक संस्था स्थापित की। इस संस्था ने विधवा-विवाह का प्रचार किया तथा अनेक विधवाओं के विवाह कराए।

ई.1873 में ज्योतिबा ने अपने कुछ प्रशंसकों के सहयोग से ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की। ज्योतिबा प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने दलित जाति की स्त्रियों के उत्थान का प्रयत्न किया। महादेव रानाडे ने भी महाराष्ट्र में नारी-सुधार कार्यक्रम चलाया। उन्होंने कन्या विवाह की न्यूनतम आयु 12 वर्ष बताई किंतु वे यौन-सम्बन्धों के लिए स्त्री की न्यूनतम आयु 16 वर्ष उपयुक्त मानते थे। रानाडे ने विधवा-विवाह का समर्थन किया तथा ई.1861 में स्थापित विधवा-पुनर्विवाह संस्था के सक्रिय कार्यकर्त्ता बने। उन्होंने नारी शिक्षा का समर्थन किया तथा ई.1884 में एक कन्या विद्यालय की स्थापना की।

रानाडे ने ई.1887 में इण्डियन नेशनल सोशल कान्फ्रेंस की स्थापना की, जिसके कार्यकर्ता मदिरा-त्याग, दहेज का विरोध, विधवा-विवाह का समर्थन, स्त्री-शिक्षा का प्रचार, बाल-विवाह पर प्रतिबन्ध आदि की शपथ लेते थे।

गुजरात में समाज सुधार कार्यक्रम

गुजराती समाज सुधारक बहरामजी मलबारी ने बाल-विवाह का विरोध किया तथा विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ई.1885 में बम्बई में ‘सेवा-सदन’ नामक संस्था की स्थापना की जो स्त्री-समस्याओं को हल करने का प्रयास करती थी। गुजरात के ही एक अन्य समाज सुधारक दुर्गादास मेहता ने अपना ध्यान विधवा-समस्या पर केन्द्रित किया।

उन्होंने ई.1844 में ‘मानव धर्म सभा’ की स्थापना की। इस सभा में जातिभेद का खण्डन, विधवाओं के पुनर्विवाह की आवश्यकता, मूर्ति-पूजा का विरोध एवं अन्धविश्वासों के खण्डन आदि विषयों पर भाषण आयोजित कराए जाते थे। गुजरात की समाज-सुधार गतिविधियों में नर्मदा शंकर का विशिष्ट स्थान है। वे स्त्री-शिक्षा और विधवा-पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने ‘विधवा-विवाह’ नामक संस्था में सक्रिय सहयोग दिया।

गुजरात के दलपतराम ने भी बाल-विवाह एवं अनिवार्य वैधव्य जीवन का विरोध किया। वे अहमदाबाद की ‘गुजरात वार्नाक्यूलर सोसायटी’ नामक सुधारवादी संस्था के प्रमुख कार्यकर्ता थे। उन्होंने अपने साहित्य द्वारा समाज में नवीन विचारों का प्रसार किया। करसनदास मूलजी गुजरात के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रथम विधवा-विवाह सम्पन्न कराया। लालशंकर उमियाशंकर ने भी बाल-विवाह का विरोध किया।

बड़ौदा के शासक सयाजीराव गायकवाड़ ने नारी-सुधार की दिशा में सख्त कदम उठाए। उसने बड़ौदा राज्य में, विवाह के लिए न्यूनतम आयु का निर्धारण, तलाक की पूर्व-स्वीकृति तथा एक-पत्नीत्व को अनिवार्य घाषित करने वाले कानून ब्रिटिश शासन के कानूनों से भी बहुत पहले लागू कर दिए थे।

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