Tuesday, April 16, 2024
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05. मानव सृष्टि को वैभव प्रदान करने से जुड़ी है कूर्मावतार की कथा!

कूर्मावतार की कथा सृष्टि का आरम्भ होने की घटना से जुड़ी हुई है। पुराणों के अनुसार प्रजापति ने सन्तति प्रजनन के अभिप्राय से कूर्म का रूप धारण किया। शतपथ ब्राह्मण, महाभारत के आदि पर्व तथा पद्मपुराण के उत्तरखंड में उल्लेख है कि संतति प्रजनन हेतु प्रजापति, कच्छप का रूप धारण करके पानी में संचरण करता है।

कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। कूर्म अथवा कच्छप का अर्थ कछुआ होता है। भगवान श्री हरि विष्णु का पहला अवतार मछली के रूप में तथा दूसरा अवतार कछुए के रूप में हुआ जो कि डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के क्रम से मेल खाता है। मछली केवल जल में रहती है जबकि कछुआ उभयचर है जो कि जल एवं थल दोनों में रह सकता है। इस प्रकार कछुआ उत्पत्ति-विकास के क्रम में मछली के बाद आता है।

नरसिंह पुराण के अनुसार कूर्मावतार भगवान श्री हरि विष्णु का द्वितीय अवतार है जबकि भागवत पुराण के अनुसार कूर्मअवतार भगवान का ग्यारहवाँ अवतार है। लिंगपुराण के अनुसार जब पृथ्वी रसातल को जा रही थी, तब विष्णु ने कच्छप-रूप में अवतार लेकर पृथ्वी को रसातल में जाने से रोका। इस विशाल कच्छप की पीठ का घेरा एक लाख योजन था।

पद्मपुराण के ब्रह्मखण्ड में वर्णन है कि जब देवराज इन्द्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजात पुष्पों की माला का अपमान किया तो महर्षि दुर्वासा ने कुपित होकर इन्द्र को शाप दिया कि- ‘तुम्हारा वैभव नष्ट होगा।’ इस श्राप के प्रभाव से विश्व की लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। इस कारण भगवान विष्णु के आदेश पर देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए मंदराचल पर्वत की मथानी तथा वासुकि सर्प की डोरी बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

समुद्र-मंथन के दौरान जब मंदराचल पर्वत रसातल में समाने लगा तो भगवान विष्णु ने कच्छप रूप में प्रकट होकर मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया और देवताओं एवं दानवों ने समुद्र से 14 रत्नों की प्राप्ति करके सृष्टि में पहले की तरह वैभव स्थापित किया। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा इस प्रकार है-

एक बार की बात है। देवताओं के राजा इन्द्र, ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर कहीं जाने के लिए तैयार थे। उसी समय महर्षि दुर्वासा वहाँ आए। उन्होंने अत्यंत विनीत भाव से देवराज को पारिजात-पुष्पों की एक माला भेंट की। देवराज ने ऋषि के हाथों से माला लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी और स्वयं चलने को उद्यत हुए। हाथी मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने सुगन्धित तथा कभी म्लान न होने वाली उस माला को सूंड से खींच कर नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से कुचल दिया।

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यह देखकर ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने देवराज इन्द्र को शाप देते हुए कहा- ‘रे मूढ़! तुमने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया। तुम त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से संपन्न होने के कारण मेरा अपमान करते हो, इसलिए जाओ आज से तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो जायेगी और तुम्हारा यह वैभव भी श्रीहीन हो जाएगा।’

ऋषि के श्राप से संसार की लक्ष्मी लुप्त हो गई तथा देवताओं ने अपनी शक्ति खो दी। देवता अत्यंत निराश होकर ब्रह्माजी के लोक में पहुँचे। ब्रह्माजी देवताओं को अपने साथ लेकर वैकुण्ठ में श्रीहरि नारायण के पास पहुंचे और भगवान श्री नारायण की स्तुति करके उन्हें बताया कि- ‘प्रभु हमें दैत्यों के द्वारा अत्यंत कष्ट दिया जा रहा है और इधर महर्षि के शाप से श्रीहीन भी हो गए हैं। आप शरणागतों के रक्षक हैं, इस महान कष्ट से हमारी रक्षा कीजिये।’

भगवान श्रीहरि विष्णु ने देवताओं को सलाह दी कि- ‘आप क्षीर समुद्र का मंथन करें जिससे अमृत की प्राप्ति होगी। इस अमृत को पीने से देवों की शक्ति वापस लौट आएगी और देवता सदा के लिए अमर हो जाएँगे।’

समुद्र-मंथन के महान् कार्य को मन्दर पर्वत और सर्पराज वासुकि की सहायता से ही सम्पन्न किया जा सकता था। मंदर पर्वत को मथानी और वासुकि को रस्सी बनाया गया किंतु निर्बल देवता अकेले ही इस कार्य को नहीं कर सकते थे। इसलिए देवताओं ने भगवान विष्णु के परामर्श पर असुरों से सहायता मांगी। असुरों ने अमृत के लालच में समुद्र-मंथन में देवताओं की सहायता करना स्वीकार कर लिया।

भगवान विष्णु की प्रेरणा से सर्पराज वासुकि, मन्दर पर्वत के चारों ओर लिपट गया। उसे एक ओर से देवताओं ने तथा दूसरी ओर से राक्षसों ने पकड़ लिया। कुछ देर तक समुद्र-मंथन करने से एक घातक विष निकलने लगा जिससे सारा संसार झुलसने लगा। तब भगवान श्रीहरि विष्णु की प्रेरणा से भगवान शिव ने इस विष को पीकर अपने कण्ठ में धारण कर लिया। विष के प्रभाव से भगवान शिव का कण्ठ नीला पड़ गया तथा तभी से वे ‘नीलकंठ’ कहलाने लगे।

विष से छुटकारा मिल जाने के बाद समुद्र-मंथन का कार्य पुनः आरम्भ हुआ किंतु थोड़ी ही देर में मंदर पर्वत रसातल में धंसने लगा। यह देखकर अचिन्त्य शक्ति संपन्न लीलावतारी भगवान श्रीहरि विष्णु ने कूर्म रूप धारण किया। इस विशाल कछुए की पीठ का व्यास एक लाख योजन था। भगवान ने मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण कर लिया। भगवान कूर्म की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घूमने लगा।

कच्छपावतार एकादशी के दिन हुआ था। इसलिए संसार में एकादशी का उपवास प्रचलित हुआ। कूर्म पुराण में लिखा है कि भगवान विष्णु ने अपने कच्छपावतार के समय ऋषियों को मनुष्य जीवन के चार लक्ष्यों अर्थात्- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का वर्णन किया।

समुद्र-मंथन से कुल चौदह रत्न प्रकट हुए जिनमें देवी लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि आदि रत्न, रम्भा आदि दिव्य अप्सराएँ, वारूणी, शंख, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, कामधेनु आदि गौएं, धनुष, धन्वतरि, विष एवं अमृत सम्मिलित थे।

जब देवी लक्ष्मी प्रकट र्हुईं तो समस्त देवताओं ने उनके दर्शन किए। इससे समस्त देवता लक्ष्मीवान हो गए। देवी लक्ष्मी को भगवान श्रीहरि विष्णु ने धारण कर लिया। ऐरावत हाथी पुनः इन्द्र को दे दिया गया। कौस्तुभ आदि मणियां, रम्भा आदि अप्सराएं, कल्पवृक्ष तथा कामधेनु स्वर्ग में स्थापित कर दिए गए।

सबसे अंत में भगवान विष्णु के अंशभूत धन्वन्तरी प्रकट हुए जिन्होंने धरती पर आयुर्वेद का प्रवर्तन किया। उनके हाथ में अमृत से भरा हुआ कलश था। दैत्यों ने अमृत का कलश धन्वन्तरि के हाथ से छीन लिया और वहाँ से दूर भाग गए।

समुद्र-मंथन के आरम्भ में निश्चित की गई शर्तों के अनुसार अमृत का बंटवारा देवताओं एवं राक्षसों में होना था किंतु अब राक्षस इसे अकेले ही पीना चाहते थे। इस कारण देवताओं एवं राक्षसों में युद्ध आरम्भ हो गया। अतः भगवान को उसी क्षण एक और अवतार लेना पड़ा जिसे मोहिनी अवतार कहते हैं। भगवान श्री हरि विष्णु के इस अवतार की चर्चा हम अगली कथा में करेंगे।

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