शरभंग ऋषि को विदा करके श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी ने वनवासी सन्यांसियों से सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम का पता पूछा। इस अवसर पर उपस्थित सैंकड़ों मुनियों, तापसों एवं ऋषि-पुत्रों ने श्रीराम से कहा कि हम आपको सुतीक्ष्णजी के आश्रम तक पहुंचाएंगे। वे लोग चाहते थे कि अधिक से अधिक समय तक वे श्रीराम का सान्निध्य प्राप्त करें। इसलिए भगवान के मना करने पर भी वे लोग श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी के साथ हो लिए।
मार्ग में स्थान-स्थान पर हड्डियों के ढेर लगे हुए थे। इस पर श्रीराम ने पूछा कि पावन एवं पत्रित्र दण्डकारण्य में ये हड्डियां क्यों पड़ी हैं एवं ये किनकी हैं। इस पर वनवासी तापसों ने श्रीराम को बताया कि इस क्षेत्र में बहुत से राक्षस आ जाते हैं, वे ही ऋषियों एवं मुनियों को अकेला पाकर खा जाते हैं। ये हड्डियां उन्हीं ऋषियों एवं मुनियों की हैं।
यह सुनकर श्रीराम को बहुत दुख हुआ। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि श्रीराम की आंखों में करुणा का जल भर गया। उन्होंने दोनों भुजाएं उठाकर प्रण किया कि मैं इस धरती को राक्षसों से विहीन कर दूंगा। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि जब वनवासी तापसों ने श्रीराम को दण्डकारण्य में राक्षसों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के बारे में बताया तो श्रीराम ने कहा कि मैं अपने पिता के वचनों का पालन करता हुआ देवताओं की प्रेरणा से ही यहाँ तक आ पहुंचा हूँ। अतः मैं मुनियों से शत्रुता रखने वाले राक्षसों का युद्ध में संहार करूंगा। आप सब महर्षि भाई सहित मेरा पराक्रम देखें।
श्रीराम ने उस क्षेत्र में रहने वाले मुनियों के आश्रमों में जाकर उन्हें अभय दिया तथा अपने प्रण के बारे में बताया। बाल्यकाल में ताड़का का वध करने एवं दण्डकारण्य में घुसकर विराध नामक राक्षस को मार डालने के कारण श्रीराम का यश चारों ओर फैल गया था। इसलिए जब मुनियों ने देखा कि स्वयं श्रीराम उनकी झौंपड़ियों में आकर उन्हें अभय दे रहे हैं तो उन्होंने अत्यंत सुख का अनुभव किया।
बहुत से ऋषियों, मुनियों एवं तापसों से भेंट करते हुए श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में पहुंचे। सुतीक्ष्ण मुनि, अगस्त्य मुनि के शिष्य थे तथा भगवान के अत्यंत भक्त थे। उन्होंने भी सुना था कि श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता इस गहन वन में मुनियों एवं तापसों से मिलते हुए घूम रहे हैं। इसलिए वे मन ही मन आशा कर रहे थे कि एक दिन प्रभु कृपा करके उनके आश्रम में भी आएंगे।
पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-
राम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि जब वनवासी तापसों ने सुतीक्ष्णजी की कुटिया में जाकर उन्हें सूचना दी कि श्रीराम आ रहे हैं तो सुतीक्ष्णजी अत्यंत व्याकुल हो गए। वे अपनी कुटिया से निकलकर मार्ग पर भागे ताकि श्रीराम की अगवानी कर सकें किंतु उन्हें मार्ग का ध्यान ही नहीं रहा इसलिए वे जहाँ-तहाँ भागने लगे। वनवासी तापसों ने मुनि सुतीक्ष्ण को पकड़कर स्थिर किया किंतु सुतीक्षणजी इतने व्यग्र थे कि उन्हें न तो कुछ सुनाई दे रहा था और न दिखाई दे रहा था।
वे कहने लगे- ‘मैंने न तो सत्संग किया है, न योग, जप, तप किए हैं, न यज्ञ किए हैं, क्या फिर भी श्रीराम मुझसे मिलने आएंगे? वे कहाँ हैं, वे किस ओर से आ रहे हैं?’
जब मुनि सुतीक्ष्ण अत्यंत व्यग्र हो गए तो वे श्री हरि विष्णु का ध्यान लगाकर बैठ गए। उन्होंने ध्यानावस्था में ही भगवान के दर्शन किए।
इसी समय श्रीराम ने सुतीक्ष्ण मुनि की कुटिया में प्रवेश करके मुनि से कहा- ‘हे धर्मज्ञ महर्षि! मैं राम हूँ और आपके दर्शनों के लिए यहाँ आया हूँ, आप कृपा करके मुझसे बात कीजिए।’ भगवान की बात सुनकर सुतीक्ष्णजी ने आंखें खोल दीं।
सुतीक्ष्णजी को बहुत आश्चर्य हुआ कि अभी आंखें बंद करके वे जिन श्री हरि विष्णु के दर्शन कर रहे थे, वही श्री हरि विष्णु उनके सामने साक्षत् खड़े थे। इस पर सुतीक्ष्ण मुनि ने नेत्र पुनः बंद कर लिए। नेत्र बंद करने के उपरांत भी मुनि को श्री हरि दिखाई दिए। इसलिए सुतीक्ष्ण मुनि समझ नहीं पाए कि उन्हें नेत्र बंद करने या हैं, या खोलने हैं! मुनि सुतीक्ष्ण की ऐसी अवस्था देखकर भगवान भी भाव-विभोर हो गए और उन्होंने मुनि को अपने हृदय से लगा लिया। इस पर मुनि को समझ में आ गया कि भगवान स्वयं चलकर उनकी कुटिया में आ गए हैं, इसलिए नेत्र बंद करने की आवश्यता नहीं है। मुनि सुतीक्ष्ण ने अत्यंत भाव-विभोर होकर भगवान की स्तुति की।
श्रीराम ने कहा- ‘हे मुनि! आप मुझे अत्यंत प्रसन्न जानिए एवं मुझसे कोई वरदान मांगिए।’
मुनि ने कहा- ‘भगवन्! मैंने तो कभी कुछ मांगा ही नहीं! मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है! इसलिए मैं आपसे क्या मांगूं, और क्या नहीं! आपको जो अच्छा लगे मुझे वही वरदान दीजिए!
इस पर श्रीराम ने कहा- ‘हे मुनि! आप प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, ज्ञान, विज्ञान और समस्त गुणों के निधान हो जाएं!’
मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- ‘आपने जो कुछ दिया, मैंने स्वीकार कर लिया, अब आप कृपा करके अपने भाई लक्ष्मण तथा सीताजी सहित मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भांति निवास करें।’
वाल्मीकि रामायण के सुतीक्ष्ण रामचरित मानस के सुतीक्ष्ण से थोड़े अलग हैं। वाल्मीकि रामायण के सुतीक्ष्ण श्रीराम से कहते हैं- ‘हे वीर! मैंने सुना था कि आप राज्य से भ्रष्ट होकर चित्रकूट पर्वत पर रहते हैं। एक बार देवराज इन्द्र यहाँ सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने के लिए आए थे। उन्होंने मुझे बताया था कि मैंने अपने तप से समस्त शुभ्र लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है किंतु मैंने उन शुभ्र लोकों में जाने का विचार नहीं किया तथा आपकी प्रतीक्षा करता रहा। आज आप आ गए हैं, इसलिए मैं वे समस्त शुभ्र लोक आपको समर्पित करता हूँ, ताकि आप सीताजी एवं लक्ष्मण सहित उन लोकों में निवास करें जिन लोकों की सेवा स्वयं देवर्षि किया करते हैं।’
इस पर श्रीराम ने मुनि सुतीक्ष्ण से कहा- ‘हे मुनि! उन शुभ्र लोकों की प्राप्ति तो मैं स्वयं आपको करवाउंगा। आप तो मुझे यह बताएं कि आज रात मैं इस वन में कहाँ निवास कर सकता हूँ।’
मुनि सतीक्ष्ण ने कहा- ‘हे राम! यह सम्पूर्ण वन ही तपोवन है, आप यहीं मेरी कुटिया में निवास कीजिए।’
इस पर श्रीराम, लक्ष्मणजी एवं सीताजी मुनि के आश्रम में ही रुक गए तथा अगली प्रातः मुनि से आज्ञा लेकर अगस्त्य ऋषि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए।
रामचरित मानस में लिखा है कि श्रीराम ने सुतीक्ष्ण मुनि से पूछा कि अगस्त्य ऋषि के दर्शन कहाँ होंगे तो मुनि ने कहा- ‘मैं भी वहीं अपने गुरु अगस्त्य के आश्रम जा रहा हूँ। अतः मैं ही आपको पथ दिखा दूंगा।’
श्रीराम मुनि सुतीक्ष्ण की चतुराई ताड़ गए कि अधिक से अधिक समय हमारा सान्निध्य प्राप्त करने के लिए इन्होंने यह बहाना बनाया है।
इस प्रकार तुलसी के सुतीक्ष्ण भगवान के भक्त अधिक हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के सुतीक्ष्ण ज्ञानी अधिक हैं।