Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 39 – दक्षिण भारत का मन्दिर स्थापत्य (स)

दक्षिण भारत की मूर्तिकला

दक्षिण भारत के मन्दिरों में मन्दिर की बाहरी दीवारों पर इतनी अधिक मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं कि मन्दिर की वास्तुगत विशिष्टताएं मूर्तियों की चकाचैंध में छिप सी जाती है।  पल्लव मूर्तिकला की जानकारी हमें पहाड़ों की चट्टानों पर उत्कीर्ण मूर्तियों के माध्यम से मिलती है। मामल्ल शैली के मण्डपों में पहाड़ों की चट्टानों पर गंगावरण, शेषशायी विष्णु, महिषासुर वध, वराह-अवतार और गोवर्धन धारण के सुंदर दृश्य उत्कीर्ण किए गए हैं।

इन दृश्यों में नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है। मामल्ल शैली के ‘सप्तपेगोडा’ पर देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों और नर-नारियों की बड़ी सुन्दर मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। रथ मन्दिरों के समान ये मूर्तियाँ भी अद्भुत हैं। गंगा को पृथ्वी पर अवतरित करने वाले भगीरथ की मूर्ति 98 फुट लम्बी और 43 फुट चैड़ी चट्टान को काटकर बनायी गई है। ये मन्दिर और मूर्तियाँ पल्लव शैली की अमर पताकाएं प्रतीत होती हैं।

राष्ट्रकूट मूर्तिकला का परिचय एलौरा के कैलाशनाथ मन्दिर, बौद्ध विहारों एवं जैन मन्दिरों से मिलता है। कैलाशनाथ मन्दिर में उत्कीर्ण इन्द्र-इंद्राणी की मूर्तियाँ तथा रावण द्वारा कैलाश-उत्तोलन का अंकन बहुत ओजस्वी एवं भावपूर्ण है। इस दृश्य में रावण कैलाश को उठा रहा है और भयभीत पार्वती शिव के विशाल भुजदण्ड का सहारा ले रही हैं, पार्वती की सखियां भाग रही हैं; भगवान शिव अचल खड़े हैं और अपने चरणों से कैलाश पर्वत को दबाकर उसे स्थिर कर रहे हैं।

तोरण के दोनों ओर बनाए गए हाथी भी मूर्तिकला की अमूल्य निधियां हैं। इन मूर्तियों की विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। एलिफेण्टा गुफा मन्दिरों में विद्यमान प्रतिमाओं में महेश्वर की त्रिमूर्ति, शिव-ताण्डव और शिव-पार्वती विवाह की मूर्तियाँ अत्यंत भव्य और कलात्मक हैं। इनमें भगवान शिव की तीन मुखों वाली त्रिमूर्ति प्रतिमा सबर्वाधिक प्रसिद्ध है। भगवान के तीनों मुखों पर दिव्य शान्ति का भाव है।

बाशम ने लिखा है- ‘भारतीय देव-प्रतिमाओं में यह त्रिमूर्ति अपनी अनेक विशेषताओं के लिए अद्वितीय कही जाएगी।’ शिव-ताण्डव मूर्ति में पावर्ती का अनुराग भाव अत्यंत सुन्दर ढंग से प्रदर्शित किया गया है।

चोल मन्दिरों में भी मूर्तिकला की अद्भुद छटा दिखाई देती है। मूर्तियों का प्रयोग दीवारों, स्तम्भों, भवनों की कुर्सियों, छतों और अन्य स्थानों को सजाने के लिए हुआ है। चोल मूर्तिकारों ने गर्भगृह की बाहरी दीवारों, मण्डपों, स्तम्भों और गोपुरों पर अत्यधिक संख्या में मूर्तियों को उत्कीर्ण किया है किंतु मूर्तिकला और स्थापत्य में अपूर्व सन्तुलन दिखाई देता है।

चोल मन्दिरों में की यह विशेषता सभी चोल मंदिरों में दिखाई देती है, चाहे वह तंजौर का बृहदीश्वर मन्दिर हो, गंगैकोण्ड-चोलपुरम का राजराजेश्वर मन्दिर हो अथवा दारासुरम का एरातेश्वर मन्दिर। चोल युगीन मूर्तिकला शैव-मत से प्रभावित है।

इनमें शिव, पार्वती और शिव के अनेक रूपों की अभिव्यक्ति हुई है। इन रूपों में विष्णु अनुग्रह, भिक्षाटन, वीरभद्र, दक्षिणा, कंकाल, आलिंगन चन्द्रशेखर, वृषवाहन, त्रिपुरान्तक, कल्याण सुन्दर, कालारि, अर्जुन-अनुग्रह, अर्द्धनारीश्वर, लिंगोद्भव, भैरव, मदनान्तक, रावणानुग्रह और चण्डेशानुग्रह विशेष उल्लेखनीय हैं। चोल-मन्दिर शिव रूपों की लम्बी शृंखला प्रस्तुत करते हैं। शैव-प्रतिमाओं का वर्चस्व होने पर भी वैष्णव धर्म के देवी-देवताओं का भी अंकन प्रचुरता से हुआ है।

चोल मंदिरों में मन्दिर-निर्माता शासकों की प्रतिमाएं भी बनाई गई हैं। तंजौर के बृहदीश्वर मन्दिर में राजाराज महान् और उसकी रानी लोक महादेवी की मूर्तियाँ लगाई गई हैं। मंदिर की मूर्तिकला में द्वारपालों, ऋषियों, नर्तकों और वादक समूहों को भी स्थान दिया गया है। मंदिरों के द्वारपाल त्रिशूल धारण किए हुए हैं और उनके नेत्र बाहर की ओर निकले हुए हैं।

चोल मन्दिरों की मूर्तियों से उस काल की नृत्य परम्परा की भी जानकारी मिलती है। इन मन्दिरों में भरतनाट्यम् की 108 भंगमिाओं का जीवन्त चित्रण हुआ है। बृहदीश्वर मन्दिर की भित्तियों पर स्वयं शिव के माध्यम से इन नृत्य भंगिमाओं का अंकन किया गया है, जबकि अन्य स्थानों पर नर्तकों को यह नृत्य करते हुए दर्शाया गया है। चिदम्बरम् के गोपुर पर मूर्तियों के साथ उनका परिचय भी लिखा गया है।

प्रारम्भिक चोल-मूर्तियों पर पल्लव-कला का प्रभाव है। दसवीं शताब्दी तक बनी चोल-प्रतिमाएं पल्लव-प्रतिमाओं के समान लम्बी देह-यष्टि और कोमल प्रभाव से युक्त हैं। शरीर की रेखाएं स्वाभाविक एवं गतिशील है और वस्त्र शरीर का आवश्यक अंग जान पड़ते हैं परन्तु इसके बाद के काल की मूर्तियों में चोल-कला पल्लव-कला के प्रभाव से मुक्त हो जाती है।

अब मूर्तियों की देह-यष्टि भारी और मांसल हो जाती है तथा उनकी लम्बाई कम हो जाती है। वस्त्र शरीर से चिपके हुए, आकुचंन-मुक्त और भारहीन प्रतीत होते हैं। आभूषण भी शरीर के सौन्दर्य प्रदर्शन में सहायक हुए हैं तथा बोझिल न होकर हल्के हैं। इन मूर्तियों के मुकुट अत्यधिक अलंकृत और भारी प्रतीत होते हैं। मूर्तियों की गोलाकार मुखकृति, भारी कन्धे, पृथुल होठ और अलंकृत कमरबंध से युक्त पुरुष आकृति विशिष्ट प्रभाव डालती हैं।

लम्बी काया में नारी-मूर्ति के नाभि प्रदेश पर उत्कीर्ण त्रिवली शरीर के लालित्य और गति को स्पष्ट करती है। ये प्रतिमाएं ग्रेनाइट पत्थर से बनी हैं। चोल मूर्तियों में नटराज की प्रधानता है। नागेश्वर के नटराज समस्त नटराजों में सबसे बड़े और सबसे सुन्दर हैं। चोल कलाकारों ने नटराज की अभिव्यक्ति में विशेष दक्षता प्राप्त की।

यद्यपि चोल मूर्तियाँ बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक बनती रहीं किंतु बाद की मूर्तियों में पहले जैसा सौष्ठव दिखाई नहीं देता है। इनसे स्पष्ट होता है कि देश की राजनीतिक परिस्थितियां अपना संतुलन खोती जा रही थीं जिसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं कलाओं पर भी पड़ रहा था।

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