Friday, March 29, 2024
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61. लाल किले की दीवारें शिवाजी को नहीं रोक पाईं!

शिवाजी रामसिंह कच्छवाहे के कड़े पहरे में थे। शिवाजी ने अपनी रिहाई के अनेक प्रयास किए किंतु उनका कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में शिवाजी ने औरंगजेब के पास तीन प्रस्ताव भिजवाए-

1. बादशाह मुझे क्षमादान दे और मिर्जाराजा जयसिंह द्वारा अब तक छीने गए मेरे समस्त दुर्ग मुझे वापस लौटा दे। इसके बदले में, मैं बादशाह को दो करोड़ रुपए दूंगा तथा दक्षिण के युद्धों में सदैव मुगलों का साथ दूंगा।

2. बादशाह मेरी जान बख्श दे और मुझे सन्यासी होकर काशी में अपना जीवन व्यतीत करने दे।

3. बादशाह मुझे सकुशल घर जाने की अनुमति दे, इसके बदले में वे समस्त शाही दुर्ग जो अब मेरे अधिकार में हैं, बादशाह को सौंप दिए जाएंगे।

औरंगजेब ने इनमें से एक भी बात मानने से इन्कार कर दिया। शिवाजी को लगा कि उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया जाएगा। इसलिए उन्होंने बादशाह को एक और पत्र भिजवाया जिसमें कहा गया कि मुझे भले ही आगरा में रोककर रखा जाए किंतु मेरे साथियों को आगरा से महाराष्ट्र लौट जाने की अनुमति दी जाए।

शिवाजी का यह प्रस्ताव बादशाह के काम को सरल बनाने वाला था, इसलिए इसकी तुरंत स्वीकृति मिल गई। इस स्वीकृति के मिलते ही शिवाजी एवं शंभाजी तथा उनके निजी सेवकों एवं अंगरक्षकों को छोड़कर शेष व्यक्ति आगरा छोड़कर चले गए। अब बादशाह द्वारा शिवाजी को आसानी से मारा जा सकता था।

जब शिवाजी के सिपाही आगरा से चले गए तो शिवाजी ने अपने हाथी-घोड़े, सोना, चांदी, कपड़े आदि बांटने आरम्भ कर दिए।

उधर जब दक्षिण के मोर्चे पर बैठे कच्छवाहा राजा जयसिंह को आगरा की घटनाओं के बारे में ज्ञात हुआ तो उसे शिवाजी के प्राणों की चिंता हुई। उसने बादशाह को पत्र लिखा कि शिवाजी मेरी जमानत पर आपके सम्मुख आया था, इसलिए उसके प्राण नहीं लिए जाएं।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

अंत में औरंगजेब ने एक खतरनाक जाल बुना। उसने शिवाजी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वह अफगानिस्तान जाकर मुगल सेना की तरफ से लड़ाई करे। इस समय अफगानिस्तान में लड़ रही उस सेना का सेनापति रदान्द खाँ नामक एक दुष्ट व्यक्ति था। औरंगजेब की योजना यह थी कि शिवाजी को रदान्द खाँ के हाथों मरवाया जाए ताकि सबको लगे कि यह एक हादसा था।

शिवाजी पहले ही मना कर चुके थे कि वे मुसलमान बादशाह की नौकरी नहीं करेंगे। इसलिए उन्होंने भी औरंगजेब के चंगुल से छूटने की एक योजना बनाई। औरंगजेब की तरफ से अफगानिस्तान जाने का प्रस्ताव मिलते ही शिवाजी बीमार पड़ गए और प्रतिदिन सायंकाल में भिखारियों एवं ब्राह्मणों को फल और मिठाइयां बांटकर उनसे आशीर्वाद लेने लगे।

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प्रतिदिन संध्याकाल में कहार, बांस की बड़ी-बड़ी टोकरियों में फल और मिठाइयां लाते और शिवाजी उन्हें स्पर्श करके, दान करने के लिए बाहर भेज देते। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा। उन टोकरियों की गहराई से छान-बीन होती थी। जब इस प्रकार फल बांटते हुए कई दिन हो गए तो टोकरियों की जांच में ढिलाई बरती जाने लगी।

17 अगस्त 1666 को बादशाह ने आदेश दिया कि शिवाजी तथा उसके पुत्र संभाजी को राजकुमार रामसिंह के सरंक्षण से हटाकर एक मुस्लिम सेनापति की कैद में रखा जाए। उसी दिन संध्याकाल में हीरोजी फरजंद नामक एक सेवक शिवाजी के कपड़े पहनकर शिवाजी के पलंग पर सो गया तथा शिवाजी एवं सम्भाजी, फलों की अलग-अलग टोकरियों में बैठ गए। इन टोकरियों को शिवाजी के अनुचरों ने उठाया तथा ब्राह्मणों को वितरित किए जाने वाले फलों की टोकरियों के साथ ही, रामसिंह की हवेली से बाहर निकल गए।

कुछ दूर जाने पर शिवाजी और सम्भाजी टोकरियां से बाहर निकले तथा वेष बदल कर यमुनाजी के किनारे-किनारे चलते हुए एक निर्जन स्थान पर पहुंचे। यहाँ रात के अंधेरे में उन्होंने नदी पार की। पूर्व-निर्धारित योजना के अनुसार शिवाजी के सिपाही घोड़े लेकर तैयार खड़े थे। शिवाजी और सम्भाजी उन घोड़ों पर बैठकर मथुरा की ओर रवाना हो गए।

उधर रामसिंह की हवेली में हीरोजी फरजंद शिवाजी के पलंग पर सुबह तक सोया रहा। उसके हाथ में पहना हुआ शिवाजी का सोने का कड़ा दूर से ही चमक रहा था। इसलिए पहरेदार भ्रम में रहे कि पलंग पर बीमार शिवाजी सो रहे हैं।

प्रातः होने पर हीरोजी ने पहरेदारों से कहा कि छत्रपति महाराज बहुत बीमार हैं अतः बाहर किसी तरह का शोर नहीं किया जाए। थोड़ी देर में वह भी महल से निकलकर भाग गया। किसी को कुछ भी भनक नहीं लग सकी। दोपहर में शहर कोतवाल शिवाजी के कमरे की जांच करने आया तो उसने पलंग की भी जांच की तो उसे शिवाजी के भाग जाने का पता लग गया।

कोतवाल ने तत्काल बादशाह के महल में पहुंचकर बादशाह को शिवाजी के निकल भागने की सूचना दी। कुछ ही देर में पूरे आगरा में यह अफवाह फैल गई कि शिवाजी अपनी जादुई शक्ति के बल पर रामसिंह की हवेली से अदृश्य हो गए। मुगल सिपाही और जासूस चप्पे-चप्पे पर मौजूद थे किंतु किसी भी व्यक्ति या पहरेदार ने शिवाजी को भागते हुए नहीं देखा था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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