Friday, March 29, 2024
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1. किताबें लिखे जाने से पहले पूरी दुनिया सनातन धर्म को मानती थी!

मध्यएशिया से आए तुर्की कबीलों ने ई.1192 से ई.1526 तक भारत के बहुत बड़े भूभाग पर शासन किया जिसे दिल्ली सल्तनत कहा जाता है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान किसी एक वंश या एक कबीले से सम्बन्ध नहीं रखते थे। वे अलग-अलग देशों से आए थे। वे अलग-अलग कबीलों में पैदा हुए थे, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमियाँ भी अलग-अलग थीं। फिर भी वे सभी तुर्क थे।

उनके राज्य को परवर्ती मुगल सल्तनत से अलग करने के लिए दिल्ली सल्तनत कहा जाता है। दिल्ली सल्तनत के लगभग सभी सुल्तान परम दुर्भाग्यशाली थे। उन्हें भारत-भूमि पर कभी सुख-शांति की नींद उपलब्ध नहीं हुई। उनके महलों की सीढ़ियों से लेकर उनके सिंहासन तक हर समय खून से भीगे रहते थे।

उन सुल्तानों की सच्चाइयां उस काल में लिखी गई अनेक पुस्तकों में अंकित हुईं जिनमें से अधिकांश पुस्तकें या तो काल के गाल में समा गईं, या अंग्रेजों द्वारा इंग्लैण्ड ले जाई गईं, जो थोड़ी बहुत बचीं, उन्हें भी स्वतंत्र भारत में, राजनीतिक कारणों से स्कूली एवं महाविद्यालय पाठ्यक्रमों से बाहर रखा गया। इस वी-ब्लॉग-सीरीज में हम उन दुर्भाग्यशाली सुल्तानों द्वारा भारत की भूमि पर किए गए अत्याचारों की एक झलक दिखाने का प्रयास करेंगे। दिल्ली सल्तनत के इतिहास की कहानी आरम्भ करने से पहले हमें इतिहास की मजहबी पृष्ठभूमि में जाना पड़ेगा।

आज धरती पर लगभग आठ सौ करोड़ लोग रहते हैं। इनमें से 14 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो किसी धर्म, मजहब अथवा सम्प्रदाय को नहीं मानते। संसार के 86 प्रतिशत मनुष्य किसी न किसी प्रकार की धार्मिक आस्था से जुड़े हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में लगभग साढ़े चार हजार धर्म, मजहब, सम्प्रदाय एवं धार्मिक मत हैं। फिर भी दुनिया की छियत्तर प्रतिशत जनसंख्या केवल चार धर्मों में सिमट जाती है। संसार की जनसंख्या का 31 प्रतिशत हिस्सा ईसाई, 23 प्रतिशत हिस्सा मुसलमान, 15 प्रतिशत हिस्सा हिन्दू तथा 7 प्रतिशत हिस्सा बौद्ध है।

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एक समय ऐसा भी था जब पूरी दुनिया में केवल सनातन धर्म ही विद्यमान था। इस धर्म के नियम किसी ने गढ़े नहीं थे। इसके नियम किसी ने निर्धारित नहीं किए थे। सनातन धर्म के विविध रूप सहज रूप से मानव-सभ्यता में प्रचलित हुए। संसार की प्राचीनतम संस्कृतियां भारत, चीन, सुमेरिया, माया, मिस्र, यूनान, बेबीलोनिया तथा रोम आदि में विकसित हुईं। ये सभी संस्कृतियां विभिन्न देवी-देवताओं में आस्था रखती थीं तथा उनकी मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजती थीं। प्रत्येक देवी-देवता किसी ने किसी प्राकृतिक शक्ति का स्वामी था। आज अरब के जिस रेगिस्तान में मक्का और मदीना स्थित हैं, वहाँ भी हजारों सालों तक मूर्तिपूजक धर्म को मानने वाले मनुष्यों का निवास था।

संसार भर के लोग उस काल में लगभग एक ही तरह का धर्म मानते थे, एक ऐसा धर्म जिसके नियम कहीं लिखे हुए नहीं थे। सबसे पहले भारत की भूमि पर वेदों ने पुस्तकों के रूप में आकार लिया किंतु वेदों में केवल ईश्वरीय स्तुतियां लिखी गई थीं। ये पुस्तकें हजारों सालों तक मौखिक रूप में रहीं। उन्हें कहीं लिखा नहीं गया था। फिर भी उनके मंत्र निश्चित थे तथा उनमें निहित भावनाएं विशिष्ट थीं। धीरे-धीरे वेदों ने पुस्तकों के रूप में आकार लेना आरम्भ किया और वे ताड़पत्रों पर लिख लिए गए।

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जिन लोगों तक ये वेद पहुंचे, वे इन्हें ईश्वरीय-वाणी समझकर मानते रहे। ईश्वरीय-वाणी तथा मनुष्य जाति के बीच केवल आस्था का सम्बन्ध था जहाँ मनुष्य स्वयं को प्रत्येक बंधन से मुक्त समझता है। यही कारण था कि वेदों को मानने वालों ने युगों से चले आ रहे सनातन धर्म में कोई बदलाव नहीं किए, न उन्होंने वैदिक धर्म के कोई निश्चित नियम बनाए। उनकी जीवनपद्धति, नैतिकता एवं सदाचार ही उनका धर्म था। ईश्वर से उनका केवल आस्था का सम्बन्ध था, उनमें किसी तरह के नियमों का बंधन नहीं था।

वेदों की रचना के हजारों साल बाद तथा आज से लगभग तीन हजार तीन सौ साल पहले यूरोप की धरती पर ‘ओल्ड टेस्टामेंट्स’ की रचना हुई तथा आज से लगभग दो हजार साल पहले ‘न्यू टेस्टामेंट्स’ लिखे गए। कुछ समय बाद इन दोनों टेस्टामेंट्स को मिलाकर ‘बाइबिल’ बनाई गई। यह संसार की पहली पुस्तक थी जिसने धर्म के लिए कुछ निश्चित नियम बनाए। बाइबिल में विश्वास रखने वाले ‘ईसाई’ कहलाए।

आज से लगभग चौदह सौ साल पहले अरब की धरती पर एक और किताब लिखी गई जिसे ‘कुरान’ कहा जाता है। यह दुनिया की दूसरी ऐसी पुस्तक थी जिसने अपने अनुयाइयों के लिए विशिष्ट प्रकार के धार्मिक नियम निर्धारित किए। इसके अनुयाइयों को ‘मुसलमान’ कहा गया।

भारत के प्राचीन निवासी स्वयं को आर्य कहते थे, वे ‘हिन्दू’ शब्द से परिचित नहीं थे किंतु ईसा के जन्म से सैंकड़ों साल पहले पश्चिम दिशा से भारत आने वाले यूनानी आक्रांताओं ने सिंधु नदी को ‘इण्डस’ कहकर पुकारा। इसी इण्डस के आधार पर उन्होंने भारत को ‘इण्डिया’ तथा भारतीयों को ‘इण्डियन’ कहा। ‘सिन्धु’ नदी के किनारे रहने के कारण ही भारत के लोग ‘सिन्धु’ और ‘हिन्दू’ कहलाए।

भारत संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता वाला एवं हजारों साल पुराना देश है जिसका निर्माण प्रकृति या राजनीति की सीमाओं से नहीं अपितु संस्कृति की सीमाओं से हुआ था। सुदूर पूर्व से लेकर पश्चिम में धरती के जिस छोर तक वेदों की ऋचायें गूंजती थीं तथा ‘सुरों’ अर्थात् देवताओं की पूजा होती थी, वहाँ तक सांस्कृतिक भारत की सीमायें लगती थीं। भारत की पश्चिमी सीमा के पार रहने वाले लोग ‘असुरों’ की पूजा करते थे और ‘अहुरमज्दा’ पढ़ते थे। उस प्रदेश के एक छोटे से हिस्से को आज भी असीरिया कहा जाता है जो वस्तुतः ‘असुरों के देश’ की ओर संकेत करता है।

कहने का सार यह कि बाइबिल और कुरान के अस्तित्व में आने से पहले समूचे संसार में मूर्तियों को पूजने वाले लोगों का निवास था और सनातन धर्म ही एक मात्र धर्म था। इसे मानने वाले लोग विभिन्न प्रकार के देवताओं की मूर्तियां एवं प्रतीक बनाकर उनकी पूजा करते थे। तब न कोई हिन्दू था, न मुसलमान था, न सिक्ख था, न ईसाई था। सभी लोग बस मानव थे जो किसी अदृश्य ईश्वरीय शक्ति में आस्था रखते थे। इस आस्था के रूप अलग-अलग थे।

उस काल में भारतीय ऋषियों द्वारा वेदों के रूप में खोजा गया विज्ञान मिस्र और यूनान होते हुए रोम तक जा पहुंचा था। स्थानीय भाषाओं के कारण भारत से लेकर अरब, ग्रीक तथा रोम में मिलने वाले देवी-देवताओं के नाम भले ही अलग-अलग हो गए थे किंतु विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक होने के कारण उन देवी-देवताओं के स्वभाव एवं प्रभाव एक जैसे थे। जहाँ कहीं भी देवी-देवताओं की पूजा होती थी, वहाँ-वहाँ उनके मंदिर भी थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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