हुमायूँ ने फारस के शाह की सेना लेकर कांधार पर आक्रमण किया तथा 40 दिन की घेरेबंदी के बाद कांधार पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने बैराम खाँ को काबुल भेजकर कामरान से कहलवाया कि वह काबुल खाली करके हुमायूँ की शरण में आ जाए किंतु कामरान ने काबुल खाली करने से मना कर दिया।
इस पर बैराम खाँ पुनः कांधार के लिए रवाना हो गया। खानजादः बेगम भी बैराम खाँ के साथ ही कांधार के लिए रवाना हुई। जिस समय ये लोग कांधार पहुंचे, उस समय हुमायूँ ने कांधार पर घेरा डाल रखा था। चालीस दिन की घेराबंदी के बाद मिर्जा अस्करी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली तथा बादशाह हुमायूँ की सेवा में उपस्थित होना स्वीकार कर लिया। कुछ लेखकों के अनुसार मिर्जा अस्करी ने कांधार से खजाना लेकर भागने का प्रयास किया किंतु हुमायूँ के पाँच सौ सैनिकों ने मिर्जा अस्करी को भागने से रोका।
4 दिसम्बर 1545 को हुमायूँ ने कांधार पर अधिकार कर लिया तथा कांधार फारस के शाह तहमास्प के पुत्र मुराद को सौंप दिया। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि कुछ दिन बाद ही शाह का पुत्र बीमार होकर मर गया तथा हुमायूँ ने कांधार का शासन बैराम खाँ को सौंप दिया।
वस्तुतः गुलबदन बेगम ने यहाँ झूठ बोला है कि तहमास्प के पुत्र के बीमारी से मर जाने के कारण हुमायूँ ने कांधार पर अधिकार कर लिया। वास्तविकता इससे बिल्कुल अलग थी। राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि ईरानी सैनिकों ने कांधार के किले पर अधिकार करके वहाँ जो भी खजाना मिला, उसे तहमास्प के पास फारस भेज दिया। हुमायूँ को यह अच्छा नहीं लगा। कुछ ही समय बाद हुमायूँ ने अचानक ही ईरान की सेना पर आक्रमण करके उससे कांधार छीन लिया। ईरान की सेना अपमानित होकर वापस ईरान लौट गई।
तत्कालीन इतिहासकारों ने इस विषय पर अधिक नहीं लिखा है किंतु घटनाओं के आलोक में यह कहा जा सकता है कि जब ईरान के शहजादे ने कांधार के दुर्ग में रखा धन ईरान भेज दिया तो हुमायूँ यह सहन नहीं कर सका। यह धन वास्तव में बाबर ने अपने हाथों से कांधार के दुर्ग में रखवाया था। इस धन पर ईरान का कोई अधिकार नहीं बनता था। इस धन के वास्तविक हकदार बाबर के बेटे थे। इसलिए हुमायूँ ने ईरान की सेना पर हमला कर दिया।
इस समय तक अफगानिस्तान के हजारों युवक अपने पुराने बादशाह हुमायूँ के झण्डे के नीचे आकर एकत्रित हो गए थे और मिर्जा कामरान की सेनाएं भी अस्करी तथा कामरान का पक्ष छोड़कर हुमायूँ की तरफ आ गई थीं। यही कारण था कि हुमायूँ ने ईरान के 14 हजार सैनिकों पर हमला करने का साहस किया तथा उनसे कांधार छीन लिया।
यह कहना मुश्किल है कि ईरान का शहजादा कैसे मारा गया किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि वह हुमायूँ से हुए युद्ध में मारा गया। इस सम्बन्ध में भी कोई तथ्य प्राप्त नहीं होता कि कांधार के किले का धन वास्तव में ईरान पहुंच गया अथवा हुमायूँ ने किले के साथ-साथ ईरान की सेना से वह धन भी छीन लिया!
कुछ इतिहासकारों ने कन्दहार प्रकरण में हुमायूँ द्वारा शाह से विश्वासघात किए जाने का आरोप लगाया है परन्तु यह आरोप उचित नहीं हैं। हुमायूँ ने ईरान के शाह को इस शर्त पर कन्दहार देने का वचन दिया था कि शाह हुमायूँ को काबुल, गजनी तथा बदख्शाँ जीतने में सहायता करेगा। इसलिये जब तक इन तीनों स्थानों पर हुमायूँ का अधिकार नहीं हो जाता, तब तक फारस के शाह द्वारा हुमायूँ से कन्दहार माँगना उचित नहीं था।
सुन्नी लेखकों के अनुसार फारस के शासक शिया थे जबकि कन्दहार की जनता सुन्नी थी। इस कारण फारस के शिया मुसलमान कन्दहार के सुन्नी मुसलमानों पर अत्याचार कर सकते थे। इसलिए कन्दहार की जनता उन्हें घोर घृणा की दृष्टि से देखती थी। ऐसी स्थिति में कन्दहार फारस वालों को सौंपना उचित नहीं था। इतना ही नहीं, जब तक हुमायूँ अफगानिस्तान की विजय में संलग्न था, तब तक के लिए फारस के शाह द्वारा हुमायूँ के परिवार को दुर्ग में रहने की अनुमति नहीं दी गई। इससे हुमायूँ को बड़ी पीड़ा हुई। हुमायूँ को एक सुरक्षित आधार की आवश्यकता थी जहाँ से वह अपने युद्धों का संचालन कर सकता। उसकी इस आवश्यकता की पूर्ति कन्दहार ही कर सकता था। अतः हुमायूँ का फारस के शाह को कन्दहार नहीं देना ही उचित था।
इस समय हुमायूँ के पास पर्याप्त सेना एवं धन हो गया था जिसके बल पर वह एक ओर तो ईरान के शासक को नाराज कर सकता था और दूसरी ओर काबुल के शासक कामरान से पंजा लड़ा सकता था। जब कामरान ने सुना कि हुमायूँ ने कांधार पर अधिकार कर लिया है तो कामरान शिकार खेलने के लिए चला गया ताकि अपने अमीरों के समक्ष यह जता सके कि उसे हुमायूँ की कोई परवाह नहीं है!
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि मिर्जा हिंदाल ने एकांतवास ले लिया था किंतु जब उसने सुना कि बादशाह हुमायूँ खुरासान से लौट आया है तथा उसने कांधार पर अधिकार कर लिया है तब मिर्जा हिंदाल ने मिर्जा यादगार नासिर को बुलवाकर कहा कि मिर्जा कामरान ने खानजादः बेगम को मिर्जा हुमायूँ के पास संधि के लिए भेजा था किंतु बादशाह ने उस संधि को नहीं माना है। बादशाह ने बैराम खाँ को अपना दूत बनाकर भेजा था किंतु कामरान ने उसकी बात को नहीं माना है। अब बादशाह कांधार बैराम खाँ को सौंपकर स्वयं काबुल आ रहे हैं। इसलिए उचित होगा कि हम एक दूसरे के प्रति विश्वसनीयता रखने की प्रतिज्ञा करके बादशाह हुमायूँ के पास पहुंचने का प्रयत्न करें।
मिर्जा यादगार ने मिर्जा हिंदाल की बात मान ली तथा दोनों ने एक दूसरे के प्रति विश्वसनीय रहने की प्रतिज्ञा की। मिर्जा हिंदाल ने मिर्जा यादगार नासिर से कहा कि तुम यहाँ से भागने का प्रयास करो। जब तुम यहाँ से भाग जाआगे तब मिर्जा कामरान मुझसे कहेगा कि मिर्जा यादगार भाग गया है, जाकर उसे समझाओ और वापस लिवा कर लाओ। हमारे पहुंचने तक तुम धीरे-धीरे चलना और जब हम आ जाएंगे, तब हम दोनों फुर्ती से चलकर बादशाह की सेवा में पहुंच जाएंगे।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि यह सम्मति निश्चित होने पर मिर्जा यादगीर नासिर भाग गया। जब यह बात मिर्जा कामरान को ज्ञात हुई तो वह शिकार खेलना छोड़कर काबुल आया तथा उसने मिर्जा हिंदाल को बुलाकर कहा कि तुम मिर्जा यादगार नासिर को वापस लिवा लाओ। मिर्जा हिंदाल तो यही चाहता था। वह उसी समय एक तेज घोड़े पर सवार हुआ और दो-तीन दिन में मिर्जा यादगार के पास जा पहुंचा। यहाँ से वे दोनों मिर्जा हुमायूँ की तरफ चले गए।
जब तैमूरी खानदान के ये दोनों शहजादे बादशाह हुमायूँ के समक्ष प्रस्तुत हुए तो हुमायूँ ने उन दोनों को क्षमा कर दिया और अपनी सेवा में रख लिया। उन दोनों ने बादशाह को सलाह दी कि हमें तकिया हिमार के रास्ते काबुल के लिए प्रस्थान करना चाहिए। हालांकि हुमायूँ काबुल जा रहा था जहाँ हमीदा बानो बेगम का पुत्र अकबर भी था किंतु हुमायूँ ने किसी अनहोनी की आशंका से हमीदा बानो को अपने साथ नहीं लिया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि अक्टूबर 1545 में हुमायूँ अपनी सेना के साथ तकिया हिमार पहुंच गया जिसका हिंदी में अर्थ होता है गदहे का दर्रा। गुलबदन द्वारा दी गई यह तिथि सही नहीं हैं। अवश्य ही यह घटना दिसम्बर 1545 के बाद की है। अबुल फजल ने यह घटना गुलबदन द्वारा वर्णित तिथि से एक साल बाद की बताई है।
खानजादः बेगम भी हुमायूँ के साथ थी किंतु मार्ग में कबलचाक नामक स्थान पर खानजादः बेगम को बुखार आ गया जिसके कारण हुमायूँ को कबलचाक में ही रुक जाना पड़ा। हुमायूँ ने हकीमों से अपनी बुआ का खूब उपचार करवाया किंतु चौथे दिन खानजादः बेगम की मृत्यु हो गई। यह बाबर के दुर्भाग्यशाली बेटों के लिए किसी कहर टूटने से कम नहीं था!
बाबर के बेटों को इस समय खानजादः बेगम की सर्वाधिक आवश्यकता थी। मुगलिया इतिहास के रंगमंच पर केवल वही ऐसी पात्र थी जो बाबर के बेटों को भविष्य में होने वाली बरबादी से बचा सकती थी किंतु कुदरत ने बाबर के बेटों की दर्द भरी दास्तान के दृश्य इतनी गहरी स्याही से लिख रखे थे कि उन्हें मंचित करने के लिए कुदरत ने खानजादः बेगम को ही रंगमंच से उठा लिया। बाबर के बेटों की बरबादी हर हाल में होनी ही थी जिसे कोई नहीं रोक सकता था, यहाँ तक कि स्वयं हुमायूँ भी नहीं, जिसके पास सत्ता और शक्ति बड़े जोर-शोर से स्वयं ही लौट आई थी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता