गम्बीरी स्टेस्यन
यह भारत के किसी भी व्यस्त रेलवे स्टेशन जैसा था किंतु इस स्टेशन को देखना, विश्व इतिहास के दर्शन करने से कम नहीं था। इस रेलवे स्टेशन का निर्माण डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन काल में हुआ था। वर्तमान में बिजनिस क्लास और एक्जीक्यूटिव क्लास ट्रेन इस स्टेशन पर ठहरती हैं। इकॉनोमी क्लास ट्रेन पकड़ने के लिए पासार सेनेन स्टेशन जाना होता है। गम्बीरी स्टेशन पर ट्रेनों के रुकने का सिलसिला ई.1871 से आरम्भ हुआ। उस समय इसका नाम ‘वेल्टेव्रेडेन स्टेशन’ हुआ करता था। ई.1884 में पुराने स्टेशन की जगह नया वर्तमान स्टेशन बनाया गया। ई.1927 में इस स्टेशन को फिर से बनाया गया। इस बार इसे ‘आर्क डेको स्टाइल’ में बनाया गया जिससे यहाँ से गाड़ियों का आवागमन काफी सुविधाजनक हो गया। ई.1937 में इस स्टेशन का नाम बदलकर ‘बाताविया कोनिंग्सप्लीन’ (डच भाषा में इसका अर्थ होता है- हॉलैण्ड के राजा का स्थान) कर दिया गया। 27 दिसम्बर 1949 को इण्डोनेशिया डच सत्ता से स्वतंत्र हो गया। उसके बाद इण्डोनेशिया सरकार ने स्टेशन का नाम बदलकर ‘जकार्ता गम्बीर स्टेस्यन’ कर दिया। ई.1990 में इसे जोगलो आर्चीटैक्चरल स्टाइल में बनाया गया तथा इसे लाइमग्रीन रंग से सजाया गया।
रोटी की दुकान
हम लोग अपना सामान लेकर रेलवे स्टेशन के मुख्य भवन से बाहर आ गए। यहाँ हमारी दृष्टि एक छोटी सी दुकान पर पड़ी जिस पर रोमन लिपि में लिखा था- ‘रोटी’। हमने दुकान में झांककर देखा, वहाँ मैदा से बनी हुई छोटे-छोटे आकार की बाटी जैसी रोटियां थीं। हमने दुकानदार से कोई पूछताछ नहीं की क्योंकि तरकारी के नाम पर क्या कुछ मिलने की संभावना थी, वह हमसे छिपा नहीं था।
उत्तरा कहाँ है ?
हम लोग अपना सामान लेकर रेलवे स्टेशन के मुख्य भवन से बाहर आ गए। हमने वहाँ से होटल पॉप के लिए कार-टैक्सी करनी चाही किंतु वहाँ खड़े कार-टैक्सी चालकों ने हमसे पांच लाख इण्डोनेशाई रुपए भाड़ा मांगा जो भारतीय मुद्रा में 2500 रुपए होते हैं। हमें ज्ञात था कि गंबीरी रेलवे स्टेशन से होटल पोप 29 किलोमीटर है। हम एक हजार रुपए का भुगतान करने को तैयार थे किंतु वे तैयार नहीं हुए। इस पर विजय ने उबर टैक्सी सेवा बुक की। थोड़ी ही देर में टैक्सी वाला रेलवे स्टेशन पहुंच गया और उसने हमसे कहा कि वह साउथ लॉबी में खड़ा है। हमने पास खड़े व्यक्तियों से पूछना चाहा कि जहाँ हम खड़े हैं, यह नॉर्थ लॉबी है कि साउथ। संयोगवश वहाँ हमें एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला जो अंग्रेजी भाषा समझ सकता हो। अंत में हमने स्टेशन के भीतर जाकर रेलवे ऑथोरिटीज से पूछा तो उसने बताया कि आप नॉर्थ लॉबी में खड़े हैं। उसने एक तरफ संकेत करते हुए कहा कि यहाँ से बाहर निकलते ही साउथ लॉबी है। हम अपना सामान लेकर नॉर्थ लॉबी से साउथ लॉबी की ओर रवाना हुए तो अचानक मेरी दृष्टि पत्थर और सीमेंट से बने एक चौड़े खम्भे पर गई। वहाँ लोहे की एक प्लेट लगी हुई थी जिस पर रोमन लिपि में लिखा था – UTTARA LOBY. ओह! ये तो इतना आसान था! वास्तव में जकार्ता के लोग उसे जावाई भाषा में उत्तरा लॉबी कहते हैं। यदि हम पूछते कि उत्तर लॉबी कौनसी है तो हमें तुरंत ही जवाब मिल जाता। हिन्दी भाषा का शब्द हजारों किलोमीटर दूर जावा द्वीप पर बहुतायत से प्रचलित था और हम उसे अंग्रेजी में ढूंढ रहे थे।
केवल एक हजार तीस रुपए
‘होटल पॉप’ गंबीरी रेलवे स्टेशन से लगभग 29 किलोमीटर दूर था। इस होटल का चयन विजय ने इसलिए किया था क्योंकि यह जकार्ता इण्टरनेशनल एयरपोर्ट से मात्र ढाई किलोमीटर दूर था। जकार्ता शहर विश्व के सबसे व्यस्ततम ट्रैफिक वाले शहरों में से है, इसिलए हम चाहते थे कि हम एयरपोर्ट जाते समय स्थानीय ट्रैफिक में न फंस जाएं। इस टैक्सी का ड्राइवर बहुत ही ढीला था, बिल्कुल अनाड़ियों की तरह कार चला रहा था। जब सड़क खाली होती थी तब भी स्पीड नहीं बढ़ाता था। हमने उससे कई बार अनुरोध किया कि वह अपनी कार की स्पीड बढ़ाए। वह अंग्रेजी न समझ में आने का नाटक करता रहा। पिताजी उस पर एक बार जोर से खीझ गए, तब जाकर उसकी समझ में आया कि हम क्या चाहते हैं। जकार्ता शहर वास्तव में घनीभूत भीड़ वाला शहर है। जब हम होटल पॉप पहुंचे तो चारों तरफ घना अंधेरा हो चुका था। हमने टैक्सी का भुगतान किया, बिल केवल 1030 रुपए (भारतीय मुद्रा के अनुसार) आया था। जबकि स्टेशन के बाहर खड़े कार टैक्सी वाले हमसे ढाई हजार रुपए की मांग कर रहे थे।
होटल पॉप
होटल पॉप पहुंचकर कहीं घूमने जाने का प्रश्न ही नहीं था। हमें होटल में बने एक डिपार्टमेंटल स्टोर से बिना दूध की चाय मिल गई। दीपा का मिल्क पाउडर का डिब्बा इस समय हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ। चाय काफी महंगी थी, पर चाय उपलब्ध थी, यही बड़ी उपलब्धि थी। यह एक सुविधाजनक एवं बहुत बड़ा होटल था। हमने कुछ देर टीवी देखा और खाना खाकर सो गए। होटल साफ-सुथरा एवं विभिन्न सुख-सुविधाओं से सुसज्जित था किंतु यहाँ वे आराम नहीं थे जो सर्विस अपार्टमेंट में उपलब्ध होते हैं। घर और होटल में जितना फर्क होना चाहिए, वह तो था ही।
मुस्कुराहट से भरी वह इण्डोनेशियन लड़की
22 अप्रेल को प्रातः पांच बजे आंख खुल गई। लगभग छः बजे मैं नीचे गया ताकि चाय की उपलब्धता के बारे में जाना जा सके। रिसेप्शन काउंटर पर कोई कर्मचारी नहीं था किंतु काउंटर के पास की लॉबी में 18-19 वर्ष की पतली-दुबली सुंदर सी लड़की खड़ी थी। मैंने उसकी तरफ देखा, वह एक दीवार से पीठ टिकाए शांत मुद्रा में खड़ी थी। उसे देखकर कहा जा सकता था कि वह अभी नहाकर अपनी ड्यूटी पर आई है अर्थात् रात्रि कालीन स्टाफ में से नहीं है। मैंने उससे गुड मॉर्निंग कहा तो उसने मुस्कुराकर बहुत ही संजीदगी से जवाब दिया। संभवतः उसे केवल इतनी ही अंग्रेजी आती थी। क्योंकि इसके बाद उसने एक भी शब्द नहीं बोला, केवल मुस्कुराती रही और कुछ भी पूछने पर संकेत भर करती रही।
मैंने उससे पूछा कि यहाँ चाय कहां मिलेगी! वह निश्चित ही समझ गई थी कि इस समय आदमी को किस चीज की आवश्यकता हो सकती है! उसने चाय की एक बड़ी सी केटली की तरफ संकेत किया। मेरी प्रसन्नता का पार नहीं था। वहाँ न केवल लगभग 8 लीटर बड़ी चाय की केटली थी जिसमें चाय भरी हुई थी बल्कि मिल्क पाउडर के छोटे-छोटे पाउच भी रखे हुए थे। मैंने एक कप चाय तो उसी समय बनाकर पी ली और दल के शेष सदस्यों को यह खुशखबरी सुनाने के लिए अपने कमरों की तरफ लौट गया। कुछ ही देर में हम सब उस लॉबी में थे। इस दौरान मधु को एक भारतीय व्यक्ति मिला जिसने हिन्दी में कुछ कहा। मधु हिन्दी सुनकर चौंकी, उससे कुछ और पूछ पाती तब तक वह भारतीय भला मानुस तेजी से चलता हुआ दूर चला गया और फिर कभी दुबारा दिखाई नहीं दिया।
हमारे पास फ्री नाश्ते के कूपन थे किंतु हम उन्हें किसी भी तरह काम में नहीं ले सकते थे क्योंकि नाश्ते में हमारे काम का कुछ भी नहीं था। इसलिए हमने एक-एक कप चाय और पी तथा अपने कमरों में तैयार होने के लिए चले गए। इस दौरान दीपा ने होटल के पूरे फ्रंट व्यू का जायजा लिया और मैंने लॉबी में गेस्ट्स की सुविधा के लिए रखे कम्पयूटरों पर ई-मेल वगैरा देखे।
यदि वहाँ होते भारतीय लड़के-लड़कियां
हम लगभग एक घण्टा उस लॉबी में रहे। इस बीच हमने देखा कि दुनिया के बहुत से देशों के पर्यटक यहाँ ठहरे हुए थे। वे चाय और नाश्ते के लिए इसी लॉबी में पहुंच रहे थे। इतने लोग वहाँ थे किंतु किसी तरह की चिल्ल-पौं नहीं थी। मुस्कुराहट से भरी वह इण्डोनेशियाई लड़की पूरे समय खड़ी रही और अतिथियों को अटैण्ड करती रही। वह बिना बोले ही अपना काम बड़ी कुशलता से कर रही थी। उसने किसी अतिथि को किसी तरह की कोई समस्या नहीं आने दी। मैंने मन में विचार किया कि यदि इसकी जगह भारतीय कर्मचारी होती तो वह अवश्य ही वहाँ पड़ी कुर्सियों को खींचकर बैठ जाती और पूरे समय सैलफोन पर बात करती रहती। मुस्कुराना तो दूर, वह अतिथियों को ढंग से जवाब भी नहीं देती क्योंकि उसकी प्राथमिकताएं और प्रशिक्षण सभी कुछ भिन्न तरह का होता। यदि उसके स्थान पर कोई भारतीय पुरुष कर्मचारी होता तो आधा समय वह अपने स्थान पर ही नहीं मिलता और जोर-जोर से बोलकर स्वयं ही वहाँ की शांति को भंग कर रहा होता।
घटत कचा
हमने आज का पूरा दिन जकार्ता शहर देखने लिए निर्धारित किया हुआ था। हमें ज्ञात हुआ कि जकार्ता में मोनास नेशनल म्यूजियम से तीन बस सेवाएं चलती हैं जो पर्यटकों को जकार्ता शहर की निःशुल्क यात्रा करवाती है। इनमें से पहली बस सेवा सांस्कृतिक स्थलों के लिए, दूसरी बस सेवा पुराने जकार्ता शहर के लिए तथा तीसरी बस सेवा नए जकार्ता शहर के लिए है। होटल पॉप से मोनास नेशनल म्यूजियम लगभग 24 किलोमीटर दूर है। इसलिए हमने उबर की टैक्सी बुक कर ली। लगभग 10 मिन्ट में टैक्सी आ गई। टैक्सी ड्राइवर 25-26 साल का गोरा-चिट्टा और सॉफ्ट-स्पीकिंग नौजवान था। उसके कपड़े काफी महंगे प्रतीत होते थे। उसने हाथों में रुद्राक्ष की वैसी ही माला पहन रखी थी जिसका मूल्य हमें तनाहलोट की चीनी दुकान में छः लाख इण्डोनेशियाई रुपए बताया गया था। मैंने मार्ग में उससे पूछा कि उसका मुख्य कार्य टैक्सी चलाना है या कुछ और! उसने हमें बताया कि उसका एक गैराज है तथा वह केबल सप्लाई का काम करता है। रविवार को उसके गैरेज की छुट्टी होती है, इसदिन वह उबर के लिए टैक्सी चलाता है। मैंने उससे पूछा कि क्या इस काम में बहुत अच्छी आमदनी होती है! उसने जवाब दिया कि कभी-कभी बहुत अच्छी आय होती है किंतु नॉरमल दिनों में भी कम नहीं होती। रास्ते में सड़क के किनारे एक विशाल चौराहे के बीच में श्रीकृष्ण और अर्जुन के रथ का मॉडल बना हुआ था जिसे घोड़े खींच रहे थे। मैंने टैक्सी चालक से पूछा कि यह किसका स्टेच्यू है! उसने कहा कि या तो यह घटत कचा है या भीमा है। उसका उत्तर चौंकाने वाला था। वह भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बारे में नहीं जानता था। उसके लिए श्रीकृष्ण से लेकर भीम और घटोत्कच एक जैसे ही थे।
जकार्ता सिटी टूर
निःशुल्क पर्यटन बस सेवा बुण्डारन होटल इण्डोनेशिया से आरम्भ होकर उत्तर की ओर थामरिन जालान स्थित सरीनाह डिपार्टमेंटल स्टोर तक जाती है और वहाँ से नेशनल म्यूजियम होती हुई जालान जुआण्डा में स्थित जालान महापहित तक जाती है और अंत में इस्ताना नेगारा अर्थात् नेगारा महल तक जाकर समाप्त हो जाती है। नेशनल म्यूजियम के पास ही मर्डेका स्क्वायर स्थित है। हमें मोनास नेशनल म्यूजियम के सामने से लाल रंग की एक बस मिली जो ओल्ड सिटी का दौरा करवाती थी। यह भीड़भाड़ से भरा हुआ बहुत बड़ा शहर है। इसमें एक करोड़ से अधिक जनसंख्या निवास करती है। संसार में 34 शहर ऐसे हैं जिनकी जनंसख्या 1 करोड़ से ऊपर है, जकार्ता उनमें से एक है। यह साउथ-ईस्ट एशिया का सबसे बड़ा शहर है। नए जकार्ता शहर में सड़क के किनारे विशाल मॉल, मार्केट, होटल, पैलेशियल बिल्डिंग्स और सरकारी कार्यालय खड़े हैं। यहाँ की सड़कें बहुत चौड़ी और साफ-सुथरी हैं। पूरी दुनिया से लोग जकार्ता शहर देखने आते हैं इसलिए विश्व भर के पर्यटकों का तांता लगा रहता है। ई.2020 तक इस शहर की जनसंख्या 16 करोड़ को पार कर जाने वाली है। इसलिए इण्डोनिशयाई सरकार ने वृहत् जकार्ता योजना पर काम करना आरम्भ कर दिया है जिसके तहत आसपास के गांवों और कस्बों को जकार्ता शहर में मिला लिया जाएगा। लगभग 40 मिनट में यह राउण्ड पूरा हो गया। इस बीच बस, कुछ म्यूजियम्स के सामने रुकी किंतु हमने बस में बैठे-बैठे ही शहर देखने का निर्णय लिया और बस के अंतिम पड़ाव पर उतर पड़े।
फिर से तुम पास आए
पुराने शहर में कुछ देर चहल-कदमी करने के बाद हमें पीले रंग की एक बस मिली जो हमें नए जकार्ता के स्थलों को दिखाती हुई फिर से नेशनल म्यूजियम ले जाने वाली थी। इस बस को 20-22 साल की एक लड़की चला रही थी। बस में दो लड़कियां टूरिस्ट गाईड के रूप में काम कर रही थीं तथा हर टूरिस्ट प्लेस के बारे में माइक्रोफोन पर बता रही थीं। यह विवरण इण्डोनेशियाई भाषा में होने से हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अचानक उनमें से एक टूरिस्ट गाइड अपने स्थान से उठकर हमारे पास आई और बोली- इण्डिया! हमने हाँ कहा तो उसने अगला वाक्य टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोला जिससे हमें अनुमान हुआ कि यह लड़की भारत गई थी और उसने दिल्ली शहर देखा है। मैंने मुस्कुराकर उसे ग्रीट किया और फिर से बाहर देखने लगा। मेरी रुचि बातों में न देखकर वह अपने स्थान पर चली गई और थोड़ा उच्च स्वर में वही गीत गाने लगी जो बोरोबुदुर स्मारक परिसर के मार्केट में दो युवक गिटार बजाते हुए गा रहे थे- ‘तुम पास आए, यूं मुस्कुराए, क्या करूं हाए कि कुछ-कुछ होता है।’ मैंने अनुमान लगाया कि इण्डोनेशिया में यह भारतीय फिल्म बहुत लोकप्रिय रही होगी! थोड़ी ही देर में मोनास एरिया आ गया जहाँ नेशनल म्यूजियम स्थित है। हम यहीं उतर गए क्योंकि इसके सामने ही मर्डेका स्क्वायर बना हुआ है। हम कुछ समय इसी क्षेत्र में गुजारना चाहते थे।
मर्डेका स्क्वायर
किसी समय यह स्थान जंगली भैंसों के चरने का स्थान हुआ करता था जो अधिक पानी में सुगमता से रह सकते थे। जावा के लोगों ने इन्हीं भैंसों के सहारे चावल की खेती आरम्भ की थी। 18वीं शताब्दी ईस्वी में डच लोगों ने इस स्थान पर कई महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण किया। ईस्ट-इण्डीज औपनिवेशिक सरकार के समय इस स्थान को कोनिंगस्प्लेइन अर्थात राजा का मैदान कहा जाता था। मर्डेका इण्डोनेशियाई शब्द है जिसका अर्थ है आजादी। अर्थात् डच लोगों के समय में जो राजाओं का स्थान था, वह अब आजादी का मैदान बन गया है। जकार्ता का राष्ट्रीय स्मारक जिस स्थान पर बना हुआ है, वह मर्डेका स्क्वैयर के नाम से जाना जाता है। इसे इण्डोनेशियाई भाषा में ‘मैदान मर्डेका’ तथा ‘लापंगान मर्डेका’ भी कहा जाता है।
राष्ट्रीय स्मारक के चारों ओर चार मैदान स्थित हैं। इनके लिए भी मेदान (डमकंद) शब्द प्रयुक्त होता है। उत्तर दिशा वाले मैदान को मेदान उत्तरा कहा जाता है। ये दोनों ही शब्द हिन्दी भाषा के हैं। मर्डेका स्क्वैयर जकार्ता के ठीक केन्द्र में एक किलोमीटर वर्ग क्षेत्र में स्थित है। यदि इसके अंतर्गत निकटवर्ती मैदानों को सम्मिलित कर लिया जाए तो इसका क्षेत्रफल 75 हैक्टेयर होता है। इस प्रकार यह संसार का सबसे बड़ा स्क्वैयर है। इसके मध्य में स्थित राष्ट्रीय स्मारक को स्थानीय भाषा में मोनास कहा जाता है। राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न कार्यक्रम, मिलिट्री परेड, नागरिक प्रदर्शन आदि इसी स्थान पर आयोजित होते हैं। सप्ताहंत की छुट्टियों में हजारों लोग अपने परिवारों के साथ यहाँ पहुंचते हैं। इसके चारों ओर विभिन्न सरकारी भवन स्थित हैं जिनमें मर्डेका पैलेस, नेशनल म्यूजियम, सुप्रीम कोर्ट, रेडियो ऑफ रिपब्लिक इण्डोनेशिया सहित विभिन्न सरकारी मंत्रालय भी शामिल है।
राष्ट्रीय स्मारक
मर्डेका मैदान के मध्य में इण्डोनेशिया का राष्ट्रीय स्मारक बना हुआ है। यह 132 मीटर ऊंची लाट है। इसे इण्डोनेशिया के राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रतीक कहा जाता है। जब ई.1950 में डच सरकार ने इण्डोनेशिया को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी तो इण्डोनेशिया की राजधानी योग्यकार्ता से जकार्ता लाई गई। राष्ट्रपति सुकार्णो की पहल पर ई.1961 में मर्डेका स्कैवयर में राष्ट्रीय स्मारक का निर्माण आरम्भ किया गया। यह ई.1975 में बनकर तैयार हुआ तथा देश की जनता को समर्पित किया गया। इस लाट के ऊपरी हिस्से में 14.5 टन कांसे से 14 मीटर ऊंची एवं 6 मीटर चौड़ी, आग की लपटें बनाई गई हैं जिन पर 50 किलो स्वर्ण से बनी हुई चद्दर मंढी हुई है। यह प्रातः 8 बजे से सायं 4 बजे तक खुला रहता है। सायंकाल में 7 बजे से 10 बजे तक रात्रि कालीन पर्यटन के लिए पुनः खोला जाता है। सोमवार को पूरी तरह छुट्टी रहती है।
संसार का सबसे बड़ा शिवलिंग
इस स्मारक के निर्माण के लिए इण्डोनेशिया सरकार ने दो बार खुली प्रतियोगिताएं आयोजित कीं तथा दोनों ही बार एक ही डिजाइन चुना गया। जब यह डिजाइन राष्ट्रपति सुकार्णो को दिखाया गया तो उसे यह पसंद नहीं आया। सुकार्णो इस स्थान पर एक विशालाकाय शिवलिंग का निर्माण करना चाहता था जो जावा की संस्कृति का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर सके। वह यह भी चाहता था कि इस शिवलिंग को इस तरह बनाया जाए कि उसके आधार की योनि, चावल कूटने की ओखली की तरह दिखाई दे और शिवलिंग, चावल कूटने के मूसल की तरह हो।
सुकार्णो के मस्तिष्क में जितनी विशाल योजना थी, यदि उसे अपनाया जाता तो इण्डोनेशिया की आर्थिक स्थिति ही डांवाडोल हो जाती। अतः 132 मीटर ऊंचे शिवलिंग का निर्माण किया गया जो चावल कूटने के मूसल को भी प्रदर्शित करता है तथा इसके आधार पर योनि को इस तरह बनाया गया है जो चावल कूटने की ओखली का प्रतिनिधित्व करती है। इसी तरह का एक छोटा स्मारक सेंट्रल जोगजा में भी बनाया गया है। इण्डोनेशिया के राष्ट्रीय स्मारक के रूप में बने शिवलिंग को सकारात्मकता, शक्ति एवं दिन का प्रतीक माना जाता है जबकि इसके आधार में बनी योनि जीव के शाश्वत अस्तित्व, संतुलन, सामंजस्य, ऊर्वरता एवं रात्रि का प्रतीक है।
इस स्मारक को इण्डोनेशिया के स्थानीय पुष्प ‘एमोर्फोफलुस टिटेनम’ का प्रतीक भी माना जाता है। इस पुष्प के आधार भाग में एक योनि जैसी संरचना बनी होती है जिसके बीच स्तंभाकार रचना बाहर निकलती हुई दिखाई देती है। इस प्रकार यह संसार का सबसे बड़ा शिवलिंग है जो अपने आधार से 132 मीटर अर्थात् 433 फुट लम्बा है। इस लाट के भीतर म्यूजियम स्थापित किया गया है। इसके बाहरी हिस्से में प्रस्तर शिलाएं लगाई गई हैं जिन पर इण्डोनेशिया का इतिहास लिखा गया है। इसके आधार भाग में बने स्वातंत्र्य द्वार की बाईं दीवार पर इण्डोनेशिया का राष्ट्रीय चिह्न गरुड़ अंकित है जिसे यहाँ गरुड़ पंचशील कहा जाता है तथा Garuda Pancasila लिखा जाता है।
मर्डेका स्क्वैयर से वापसी
अभी लगभग साढ़े चार ही बजे थे कि अंधेरा घिरने लगा। आकाश में काले बादलों के समूह चारों तरफ उमड़-घुमड़ने लगे। आज न तो पुतु हमारे साथ था और न मि. अंतो। इसलिए हमने तत्काल होटल वापस लौटने का निर्णय लिया। विजय ने उबर की टैक्सी बुक की। केवल पांच मिनट में टैक्सी आ गई और हम अपने होटल लौट पड़े। हमने होटल पहुंचकर उसी छोटे से डिपार्टमेंटल स्टोर से चाय खरीदी। यह एक अच्छी और सुविधाजनक दुकान थी। जहाँ जरूरत की बहुत सारी चीजें उपलब्ध थीं।