Saturday, November 2, 2024
spot_img

दिल्ली की तवायफें

दिल्ली में घुसे तिलंगों ने जब कुछ अंग्रेजों को मार दिया और कुछ अंग्रेजों को दिल्ली से भगा दिया तब तिलंगों की निगाहों को दिल्ली की तवायफें अपनी ओर खींचने लगीं। भारी श्रम के पश्चात् तिलंगे आराम करने के लिए इन तवायफों के कोठों पर कब्जा कर लिया!

अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की क्रांति के समय यद्यपि दिल्ली के साधारण नागरिकों ने देश भर से आ रहे क्रांतिकारी सैनिकों का हृदय से स्वागत किया था तथापि उन्हें दिल्ली में घुस आए बागी सिपाहियों का रवैया परेशान करता था। दिल्ली के सम्भ्रान्त नागरिकों का माथा तो पहले ही दिन ठनक गया था जब तिलंगों ने अंग्रेजों को मारने और भगाने के बाद दिल्ली के धनी-मानी सेठों, लालाओं ओर रईसों के यहाँ लूटमार मचाई थी।

12 मई को दिल्ली पूरी तरह से अंग्रेजों से खाली हो चुकी थी तथा बादशाह ने क्रांति का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया था। उसके बाद भी देश भर के क्रांतिकारी दिल्ली में आते जा रहे थे। दिल्ली में उनके खाने और रहने का कोई प्रबंध नहीं था। इसलिए दिल्ली के जन-साधारण पर दबाव बढ़ने लगा।

जब दिन बीतने लगे तथा देश भर के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले, विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले, अलग-अलग आदतों और अलग-अलग स्वभावों वाले सैनिकों का दिल्ली पहुंचना जारी रहा तो दिल्ली वालों को ये सैनिक खटकने लगे।

लाल किले की दर्दभरी दास्तान - bharatkaitihas.com
TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

चूंकि अंग्रेज दिल्ली छोड़कर भाग चुके थे इसलिए देश भर से आए क्रांतिकारी सैनिकों के पास इस समय करने के लिए कोई काम नहीं था। इसलिए उनके समूह दिल्ली की चकाचौंध देखने के लिए दिन रात दिल्ली की गलियों में घूमते रहते। दिल्ली की जनता क्रांतिकारी सैनिकों के लिए अधिक समय तक निःशुल्क भोजन का प्रबंध नहीं कर सकती थी। दिल्ली के लोग मेहमानवाजी से थकने लगे। विभिन्न क्षेत्रों से आए लोग विशेषकर पुरबिया सैनिकों का व्यवहार दिल्ली वालों को अधिक परेशान करता था। मुंहफट तिलंगे दिल्ली वासियों जितने सभ्य नहीं थे। वे बात-बात पर नागरिकों से झगड़ा करते थे, कोई भी दुकान लूट लेते थे, किसी का भी रास्ता रोक लेते थे।

विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है- ‘केवल दो ही हफ्ते में ये क्रांतिकारी सैनिक जिन्हें अब कहीं से वेतन नहीं मिलता था, दिल्ली के ज्यादातर बाजारों को लूट चुके थे और उनके दोस्तों की हवेलियों पर हमला कर चुके थे और दिल्ली के सबसे नफीस तवायफों के कोठों पर काबिज हो गए थे। यह देखकर दिल्ली वालों की राय बदल गई।’

24 मई को ‘देहली उर्दू अखबार’ के सम्पादक मौलवी मुहम्मद बाकर ने लिखा है- ‘सारी रियाया अब लूटमार से तंग आ चुकी है। शहर के रईसों और अमीरों के लिए सख्त खतरा है और पूरा शहर तबाह हो रहा है।’

जब दिल्ली के लोग मेहमानवाजी से थक गए तब दिल्ली की तवायफें तिलंगों की नई शरणगाह बनीं। वैसे भी इन दिनों दिल्ली की तवायफें अपने कोठों पर अकेली बैठी मक्खियां मारा करती थीं क्योंकि कोठों पर मण्डराने वाले धनी लोग तो तिलंगों एवं गुण्डों द्वारा मार डाले गए थे, जो कुछ बचे भी थे, वे दिल्ली छोड़कर भाग चुके थे या तहखानों में छिपे बैठे थे।

तिलंगे तवायफों से जो कुछ चाहते थे, तवायफें उन्हें सहर्ष देने को तैयार थीं किंतु इसके बदले में दिल्ली की तवायफें पैसों की मांग करती थीं जो कि तिलंगों के पास नहीं थे। तवायफों का शरीर नौंचने के बाद उन्हें कुछ देना तो दूर रहा तिलंगे उनके पैसों को भी छीन लेते थे।

अगस्त महीना आते-आते देहली उर्दू समाचार पत्र में ये किस्से छपने लगे थे कि किसी तरह दिल्ली की ऐशो-आराम भरी जिंदगी के कारण क्रांतिकारी सैनिक नाकारा होते जा रहे हैं-

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

‘जैसे ही क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली का पानी पीते हैं, या चांदनी चौक का एक चक्कर लगा लेते हैं, और जामा मस्जिद जाकर घंटेवाला की मिठाई चख लेते हैं, उनका दुश्मनों से लड़ने और उनको मारने का सारा जोश और उत्साह ठंडा पड़ जाता है। और सारी हिम्मत और हौंसला खत्म। बहुत से लोगों को कहना है कि वह लड़ाई पर तवायफों के कोठे से बगैर गुस्ल किए पहुंच जाते हैं और यह सब शिकस्त जो उनकी मिली है और आफत हम सब पर आई है, इसी नीच आदत का नतीजा है।’

विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है- ‘शाहजहानाबाद के लोग बहुत जल्द इन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिंसक और बेतरतीब देहातियों की विशाल और उज्जड फौज की मेहमानदारी से थक गए।’

दिल्ली से प्राप्त उन दिनों के दस्तावेजों में ऐसी बहुत सी अर्जियां भी हैं जो दिल्ली वालों ने बहादुरशाह जफर को लिखी थीं। इनमें लिखा था कि किस प्रकार देश भर से आए क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली के लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं! इन चिट्ठियों में इन घटनाओं को गदर या जंगे-आजादी नहीं कहा गया है अपितु दंगा एवं फसाद कहा गया है।

ईस्वी 1857 की क्रांति के समय दिल्ली में प्रकटतः केवल दो ही पक्ष लड़ रहे थे- क्रांतिकारी सैनिक और अंग्रेज सैनिक किंतु इन दोनों के बीच में दिल्ली की जनता बुरी तरह से फंस गई थी। इस प्रकार अब लड़ाई तीन तरफा हो गई थी।

एक तरफ तो क्रांतिकारी सैनिकों के दल दिल्ली वासियों के मकानों और दुकानों को लूट रहे थे और दूसरी ओर दिल्ली की सीमाओं पर अंग्रेजों की सेनाएं आ पहुंची थीं जो हिंसा और रक्तपात के भारी मंसूबे लेकर दिल्ली तथा दिल्लीवासियों की तरफ बढ़ रही थीं। तीसरी तरफ दिल्ली की वह निरीह जनता थी, जिसके ऊपर बिना बुलाई मुसीबत चौबीसों घण्टे मण्डराया करती थी!

इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली की जनता का एक हिस्सा इस बगावत में प्रत्यक्ष भाग ले रहा था, विशेषकर वे मुसलमान जो अंग्रेजों से इसलिए नाराज थे क्योंकि अंग्रेजों ने दल्ली के बहुत से मदरसों को बंद कर दिया था। उन्हें ये बागी सिपाही खुदा की तरफ से भेजे गए फरिश्तों की तरह प्रतीत होते थे।

विलियम डेलरिम्पल ने आरोप लगाया है कि दिल्ली के क्रांतिकारी सैनिकों ने अपनी जंग को मजहबी रंग देने के लिए दिल्ली के उन तमाम हिन्दुओं एवं मुसलमानों को मार दिया जिन्होंने अपना मजहब छोड़कर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। उन्होंने उन अंग्रेजों को हाथ भी नहीं लगाया जो ईसाई धर्म छोड़कर मुसलमान हो गए थे।

डॉ. चमनलाल जो कि हिन्दू से ईसाई बन गया था, उसे इन दंगों में मार दिया गया जबकि एंग्लो इण्डियन ईसाई औरत मिसेज ऑल्डवैल को इसलिए जीवित छोड़ दिया गया क्योंकि उसे कलमा पढ़ना आता था।

इसी प्रकार एक अंग्रेज जो कुछ साल पहले कम्पनी की नौकरी छोड़कर ईसाई से मुसलमान बन गया था और जिसने अपना नाम अब्दुल्लाह बेग रख लिया था, उसे भी नहीं मारा गया। वह क्रांतिकारी सैनिकों से मिल गया और पूरी बगावत के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध बहुत सक्रिय रहा।

एक और अंग्रेज, ईसाई धर्म छोड़कर मुसलमान हो गया था, उसका नाम सार्जेंट मेजर गॉर्डन था। वह भी अब्दुल्लाह बेग के साथ मिल गया और उसने क्रांतिकारियों की तरफ से उत्तरी दिल्ली के परकोटे पर तोपों की जिम्मेदारी ली।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source