तैमूर लंग का प्रारंभिक जीवन
तैमूर लंग का जन्म 1336 ई. में समरकंद से 50 मील दूर मावरा उन्नहर के कैच नामक नामक नगर में हुआ था। उसके पिता का नाम अमीर तुर्क अथवा अमीर तुर्गे था जो तुर्कों के बरलस कबीले की गुरकन शाखा का नायक था। अमीर तुर्गे ने तैमूर की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की। तैमूर ने कुरान के अध्ययन के साथ-साथ घुड़सवारी, तलवारबाजी तथा युद्धकला में महारथ हासिल कर ली। अल्प आयु में ही वह एक छोटे भूभाग का शासक बना दिया गया।
तैमूर ने अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखा है कि बारह या चौदह वर्ष की अवस्था से ही स्वतंत्रता की भावना से उसका हृदय ओत-प्रोत हो गया था। एक सामन्त का पुत्र होने के कारण तैमूर पहले चगताई वंश के शासन के अधीन था। संयोग से उसमें तथा उसके स्वामी में अनबन हो गई। फलतः उसे कई तरह की यातनाएं सहन करनी पड़ी और सुरक्षति स्थान की खोज में इधर-उधर भटकना पड़ा। एक बार जब शत्रु उसका पीछा कर रहे थे, तब उसकी टांग टूट गई और वह लंगड़ा हो गया, तभी से वह तैमूर लंग कहलाने लगा।
समरकंद के तख्त की प्राप्ति
1369 ई. में 33 वर्ष की अवस्था में उसे अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो गई। 1370 ई. में उसने तुर्क सरदारों का एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें तुर्क सरदारों ने उसे अपना सरदार चुन लिया। 1370 ई. में उसने समरकंद पर अधिकार कर लिया और वहाँ का शासक बन गया।
साम्राज्य विस्तार
समरकंद हाथ में आते ही तैमूर ने अपने राज्य को विशाल साम्राज्य में बदलने का निर्णय लिया। कुछ ही समय में उसने ख्वारिज्म, फारस, मेसोपोटामिया आदि देशों पर विजय प्राप्त कर ली और उसका साम्राज्य चंगेज खाँ के साम्राज्य जितना विस्तृत हो गया। इसके बाद तैमूर ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
भारत पर आक्रमण के कारण
जफरनामा में तैमूर द्वारा भारत पर आक्रमण करने के कारणों का उल्लेख किया गया है। उसके द्वारा भारत पर आक्रमण किये जाने के निम्नलिखित कारण थे-
(1.) तैमूर ने कुरान का अच्छा अध्ययन किया था। वह इस्लाम को भारत में फैलाने के लिये भारत पर आक्रमण करने की योजनाएं बनाने लगा।
(2.) तैमूर अफगानिस्तान के भारत आक्रांताओं की तरह भारत पर विजय प्राप्त करके काफिरों का नाश करना और इस्लामी जगत में अपना नाम कमाना चाहता था।
(3.) उन दिनों भारत में तुगलक शासन अत्यन्त दुर्बल हो रहा था जिसके कारण कुव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार का प्रकोप था। तैमूर भारत की इस कमजोरी का लाभ उठाना चाहता था।
(4.) तैमूर भारत की समृद्धि से अवगत था और वह इसकी अथाह सम्पदा को लूटकर अपनी राजधानी समरकंद को समृद्ध करना चाहता था।
(5.) तैमूर मूर्ति पूजकों पर विजय प्राप्त करके गाजी की उपाधि प्राप्त करना चाहता था।
(6.) उन दिनों मुल्तान के शासक सारंग खाँ तथा तैमूर के पोते पीर मोहम्मद में संघर्ष चल रहा था। पीर मोहम्मद काबुल का गर्वनर था। उसने सारंग खाँ से कर मांगा और जब उसने कर देने से इन्कार कर दिया तब पीर मोहम्मद ने मुल्तान पर आक्रमण कर दिया। उसने सिन्ध नदी को पार करके छः माह में उच्च तथा मुल्तान पर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष ने भी तैमूर को भारत पर आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया।
तैमूर द्वारा भारत पर आक्रमण
तैमूर ने अप्रैल 1398 में 92,000 घुड़सवार सेना के साथ समरकन्द से प्रस्थान किया और कुछ ही समय में सिंधु नदी को पार कर लिया। उसके पोते पीर मोहम्मद ने तब तक सिंध के पश्चिमी भाग को रौंद कर मुल्तान पर अधिकार कर रखा था।
पंजाब का पतन
तैमूर लाहौर की ओर बढ़ा और उसने लाहौर के गर्वनर मुबारक खाँ को परास्त कर दिया। तैमूर की सेनाएं चिनाब नदी के पास पीर मोहम्मद की सेनाओं से मिल गईं। वहाँ से तैमूर की सेनाएं तुलम्बा की ओर बढ़ीं और वहाँ के शासक जसरथ को परास्त किया जो खोखरों का सरदार था। इसके बाद तैमूर लंग पाक-पतन, भटनेर, सरस्वती, फतेहाबाद तथा कैथल को लूटता हुआ पानीपत के मार्ग से दिल्ली की ओर बढ़ा। वह दिल्ली से थोड़ी दूर रुक कर दिल्ली पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा।
एक लाख हिन्दू बंदियों की हत्या
उस समय तक उसने एक लाख हिन्दुओं को बंदी बना लिया था। इतने सारे बंदियों के रहते वह दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर सकता था। इसलिये उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि एक लाख हिन्दू बंदियों का कत्ल कर दिया जाये। तैमूर की सेना ने यह काम सफलता पूर्वक सम्पादित कर लिया।
दिल्ली में प्रवेश
दिल्ली का सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद तथा उसका प्रधान मन्त्री मल्लू इकबाल खाँ अपनी विशाल सेना लेकर तैमूर का सामना करने के लिए दिल्ली से निकले परन्तु जब उन्होंने सुना कि तैमूर ने एक लाख हिन्दू बंदियों का कत्ल करवा दिया, तो दिल्ली की सेना बुरी तरह घबरा गई और युद्ध के मैदान से भाग खड़ी हुई। मल्लू इकबाल बरान की ओर तथा नासिरुद्दीन महमूद गुजरात की ओर भाग गया। 7 सितम्बर 1398 को तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसने फीरोजशाह तुगलक की कब्र के पास अल्लाह को धन्यवाद दिया।
दिल्ली में कत्ले आम
तैमूर पंद्रह दिन तक दिल्ली में रहा। यद्यपि उसने दिल्ली वालों को यह आश्वासन दिया था कि वह दिल्ली में कत्लेआम नहीं मचायेगा किंतु दिल्ली में प्रवेश करते ही उसने अपनी सेना को कत्ले आम करने का आदेश दिया। यह कत्ले आम पूरे तीन दिन तक चलता रहा। उसने असंख्य स्त्रियों तथा पुरुषों को गुलाम बनाया। कई हजार शिल्पकार और यंत्रकार शहर से बाहर लाये गये और युद्ध में सहायता देने वाले राजाओं, अमीरों और अफगानों में बांटे गये। जफरनामा के अनुसार शहरपनाह तथा सिरी के महल नष्ट कर दिये गये। हिन्दुओं के सिर काट कर उनके ऊँचे ढेर लगा दिये गये और उनके धड़ हिंसक पशु-पक्षियों के लिये छोड़ दिये गये……. जो निवासी किसी तरह बच गये वे बंदी बना लिये गये। लेनपूल ने लिखा है- इस लूट के पश्चात् तैमूर का प्रत्येक सिपाही धनवान हो गया तथा उन्हें बीस से दो सौ तक गुलाम अपने देश ले जाने को मिले। तैमूर लिखता है- ‘काबू के बाहर हो मेरी सेना पूरे शहर में बिखर गई और उसने लूटमार तथा कैद के अतिरिक्त और कुछ परवाह न की। यह सब कुछ अल्लाह की मर्जी से हुआ है। मैं नहीं चाहता था कि नगरवासियों को किसी भी प्रकार की तकलीफ हो, पर यह अल्लाह का आदेश था कि नगर नष्ट कर दिया जाये।’
उत्तर भारत में भारी तबाही
दिल्ली को नष्ट-भ्रष्ट कर तैमूर मेरठ और हरिद्वार की ओर बढ़ा। स्थान-स्थान पर हिन्दुओं तथा मुसलमानों में भीषण संग्राम हुआ। इसमें लाखों हिन्दू मारे गये। स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बनाया गया। हरिद्वार में उसने प्रत्येक घाट पर गाय का वध करवाया। लेनपूल लिखता है कि कत्लेआम के यथार्थ उत्सव के उपरांत धर्म के सैनिक तैमूर ने अल्लाह को धन्यवाद दिया और समझा कि उसका भारत आने का उद्देश्य पूरा हुआ। तैमूर ने शिवालिक की पहाड़ियों पर विजय प्राप्त कर ली और वहाँ से लूट का माल लेकर वह जम्मू की ओर बढ़ा। तैमूर ने जम्मू के राजा को पराजित कर उसे मुसलमान बनने के लिये बाध्य किया। तैमूर ने खिज्र खाँ सैयद को सुल्तान, लाहौर तथा दिपालपुर का शासक बनाया। 19 मार्च 1399 को तैमूर ने फिर से सिंधु नदी पार की तथा समरकन्द चला गया।
तैमूर के भारत आक्रमण के प्रभाव
तैमूर का भारत आक्रमण, मध्यकालीन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। वह उस तेज तूफान की तरह आया जो अपने मार्ग में पड़ने वाली हर वस्तु को उजाड़कर चला गया। लाखों हिन्दू मर गये। लाखों गुलाम बनाकर ले जाये गये। लाखों गायें काट कर खाई गईं। तीर्थों की पवित्रता भंग की गई। स्त्रियों के सतीत्व लूटे गये। खेतों और घरों को आग के हवाले कर दिया गया तथा लाखों हिन्दुओं को मुसलमान बनने पर विवश किया गया। इस आक्रमण से भारत में इतने बड़े परिवर्तन हुए कि हम इसे नये युग का आरम्भ करने वाला कह सकते हैं। इस आक्रमण का न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से वरन् सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टिकोण से भी बहुत बड़ा महत्व है।
राजनीतिक प्रभाव
इस आक्रमण से तैमूर के वंशज भारत के घनिष्ट सम्पर्क में आ गये। तैमूर ने पंजाब अपने राज्य में मिला लिया और खिज्र खाँ को उस प्रान्त का शासन चलाने के लिए गर्वनर नियुक्त कर दिया। जब तक खिज्र खाँ जीवित रहा तब तक वह समरकन्द की अधीनता में कार्य करता रहा। तैमूर की मृत्यु के उपरान्त उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और खिज्र खाँ के उत्तराधिकारी स्वतंत्रता पूर्वक पंजाब में शासन करने लगे। तैमूर के वंशज कभी इस बात को नहीं भूले कि पंजाब उनके साम्राज्य का एक अंग था। इसलिये अब उनकी दृष्टि सदैव पंजाब पर लगी रहती थी। आगे चलकर जब बाबर ने पंजाब पर आक्रमण किया तब उसने दावा किया कि पंजाब पर उसके पूर्वज तैमूर का अधिकार था। तैमूर के आक्रमण से तुगलक साम्राज्य के प्रान्तपति दिल्ली से स्वतंत्र हो गये। ख्वाजा जहाँ ने जौनपुर में, दिलावर खाँ ने मालावा में तथा मुजफ्फर ने गुजरात में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। तैमूर के आक्रमण ने तुगलकवंश पर ऐसा घातक प्रहार किया कि थोड़े ही दिनों के बाद उसका अन्त हो गया और दिल्ली में एक नये राजवंश की स्थापना हुई।
सांस्कृतिक प्रभाव
तैमूर के आक्रमण का भारत पर सांस्कृतिक प्रभाव भी हुआ। भारत के विभिन्न प्रांत छोटे-छोटे राज्यों में बंटकर दिल्ली की छाया से मुक्त हो गये और स्वतंत्रता पूर्वक अपनी संस्कृति का सृजन तथा संवर्धन करने लगे। इस प्रकार मालवा, गुजरात, बंगाल, जोनपुर तथा बहमनी राज्यों में शिल्पकला की वृद्धि हुई। साहित्यिक क्षेत्र में जौनपुर की विशेष रूप से उन्नति हुई। जौनपुर साहित्यकारों तथा धर्माचार्यों का केन्द्र बन गया। गुजरात तथा बहमनी राज्यों में भी जौनपुर की भांति साहित्य की विपुल उन्नति हुई। तैमूर भारत की भव्य शिल्प-कला से अत्यधिक प्रभावित हुआ था और उसने भारतीय कारीगरों को अपने साथ ले जाकर समरकन्द में कई मस्जिदें एवं भवन बनवाये। इससे भारतीय भवन निर्माण कला को नया क्षेत्र तथा नया वायुमण्डल प्राप्त हुआ। भारतीय भवन निर्माण कला ने मध्य एशिया को स्थापत्य कला के सम्मिश्रण से नया स्वरूप प्रदान किया और लगभग सवा-सौ वर्षों के उपरान्त पुनः विदेश से अपनी मातृ-भूमि में इसका प्रत्यागमन हुआ। भारत में इसका अपने नये स्वरूप में मुगल बादशाहों के आश्रय में विकास हुआ जो अपने चरम को पहुँच गया।
आर्थिक प्रभाव
तैमूर के आक्रमण का भारत पर आर्थिक प्रभाव भी पड़ा। इस आक्रमण ने भारत की आर्थिक व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर दी। तैमूर के मार्ग में जितने समृद्ध नगर तथा गांव पड़े, सब नष्ट हो गये क्योंकि आक्रमणकारी जिधर से निकलते, गांवों को लूटते, उजाड़ते, जलाते तथा लोगों की हत्या करते जाते थे। लाखों लोगों के शव खुले में पड़े हुए सड़ते रहे जिससे उत्तर भारत में भांति-भांति के रोग फैल गये। जनता की पीड़ा का कहीं अन्त न था। कृषि तथा व्यापार नष्ट-भ्रष्ट हो गया और अकाल पड़ गया। इससे मानवों एवं पशुओं की मृत्यु हुई। आक्रमणकारी भारत की अपार सम्पत्ति लूट कर अपने देश को ले गये और जनता में ऐसा भय और आंतक फैल गया कि लम्बे समय तक उत्तर भारत में हा-हाकार मचा रहा।
सामाजिक प्रभाव
तैमूर के आक्रमण और तबाही से उत्तरी भारत में भारतीय समाज का ताना-बाना हिल गया। लोगों का मनोबल टूट कर बिखर गया। वे स्वयं को परास्त और निस्तेज अनुभव करने लगे। उन्होंने अपनी आँखों के सामने अपनी बहिन बेटियों की इज्जत लुटते देखी। अपने पुत्रों और भाइयों के कटे हुए सिरों के ढेर देखे। अपनी गायों को शत्रुओं द्वारा खाये जाते हुए देखा। उन्होंने अपने खेतों और घरों को जले हुए देखा। वे एक दूसरे से आँख मिलाने लायक नहीं रहे। चारों तरफ ऐसी भयानक बर्बादी मची कि लोग उस बर्बादी से फिर कभी उबर ही नहीं सके। वे हमेशा के लिये निर्धन और पराजित हो गये। वे भविष्य में न कोई युद्ध लड़ सके न किसी आक्रांता का सामना कर सके।
मुसलमानों पर प्रभाव
भारत में जो मुसलमान मुहम्मद गौरी के समय से रह रहे थे, उनमें विजेता होने का भाव था और वे हिन्दू प्रजा को अपने से नीचे के स्तर का समझते थे किंतु तैमूर की सेना ने भारत में रह रहे मुसलमानों को भी नहीं बख्शा तथा उनका भी कत्ले आम मचाया। इससे भारत के हिन्दू तथा मुसलमान एक ही धरातल पर खड़े हुए दिखाई दिये। के. एस. लाल ने लिखा है कि इस आक्रमण से हिन्दुओं तथा मुसलमानों में एकता की भावना उत्पन्न हुई।
दिल्ली सल्तनत पर प्रभाव
तैमूर की वापसी के बाद सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद, अपने वजीर मल्लू इकबाल के भय से कन्नौज की तरफ भाग गया तथा दिल्ली पर वजीर का शासन कायम हो गया। कुछ दिन बाद मल्लू ने पंजाब के प्रांतपति खिज्र खाँ के विरुद्ध अभियान किया जिसे तैमूर ने नियुक्त किया था। खिज्र खाँ ने मल्लू को मार दिया। इससे दिल्ली का तख्त खाली हो गया और एक अफगान सरदार दौलत खाँ लोदी ने दिल्ली को अपने अधिकार में ले लिया। 1412 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूदशाह की मृत्यु हो गई तथा 1414 ई. में खिज्र खाँ ने दिल्ली पर अधिकार करके सैयद वंश के शासन की स्थापना की।