Friday, April 19, 2024
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11. भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए भगवान ने नृसिंह अवतार धारण किया!

हमने इस धारावाहिक की पिछली कड़ियों में चर्चा की थी कि सनकादि ऋषि के श्राप से भगवान विष्णु के जय एवं विजय नामक दो गण, दैत्य बनकर कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से धरती पर आए। इनमें से दैत्यों के राजा हिरण्याक्ष के वध हेतु भगवान श्री हरि विष्णु के वाराह अवतार की कथा हम बता चुके हैं। इस कथा में हम दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध के लिए भगवान श्री हरि विष्णु के अवतार की कथा की चर्चा करेंगे।

नृसिंह को पुराणों में भगवान विष्णु का चौथा अवतार कहा गया है जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका चेहरा तथा पंजे सिंह के तथा सिर एवं धड़ मानव का है। वे सम्पूर्ण भारत में वैष्णव भक्तों द्वारा पूजे जाते हैं किंतु दक्षिण भारत में उनकी पूजा अधिक लोकप्रिय है। महाभारत के सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ सहित अनेक पुराणों में नृसिंह अवतार की कथा किंचिंत् अंतरों के साथ मिलती है।

हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिप ने घनघोर तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया तथा उनसे वरदान मांगा कि उन्हें देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच न मार सकें। हम अस्त्र-शस्त्र, पर्वत या वृृक्ष से मरें। हम न जल में मरें, न आकाश पर और न पृथ्वी पर मरें। हम न रात में मरें न दिन में, न बाहर मरें न भीतर। किसी मृग, पक्षी अथवा सरीसृप से भी हमारी मृत्यु न हो। जब ब्रह्माजी ने उन्हें यह वरदान दे दिया तो वे दोनों महादैत्य ब्रह्माजी की बनाई सृष्टि को अत्यंत कष्ट देने लगे।

इसलिए भगवान श्रीहरि विष्णु ने वराह का रूप धारण करके संध्या काल में आधे समुद्र के भीतर और आधे समुद्र से बाहर खड़े होकर अपने दांत से हिरण्याक्ष का वध किया था।

जब भगवान श्रीहरि विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध किया तो उसका भाई हिरण्यकश्यप दैत्यों का राजा बन गया तथा भगवान श्रीहरि का शत्रु हो गया। हिरण्यकश्यप और उसके दैत्य, भगवान के भक्तों को कष्ट देने लगे। उसने अपने राज्य में भगवान विष्णु की भक्ति करने तथा पूजा करने पर प्रतिबंध लगा दिया।

दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने तीनों लोकों को जीत लिया और देवताओं को स्वर्ग से निकालकर स्वयं अपने दैत्यों सहित स्वर्ग में रहने लगा। नर्क में पड़े हुए सब जीवों को वहाँ से निकालकर उसने स्वर्ग का निवासी बना दिया। हिरण्यकश्यप ने देवताओं को दिए जाने वाले यज्ञ-भाग पर रोक लगा दी और स्वयं ही यज्ञ-भाग का अधिकारी बन बैठा। वह मुनियों के आश्रमों पर आक्रमण करके कठोर व्रत पालन करने वाले, सत्यधर्म परायण एवं जितेन्द्रिय महाभाग मुनियों को सताने लगा। उसने दैत्यों को यज्ञभाग का अधिकारी बनाया और देवताओं को यज्ञभाग के अधिकार से वंचित कर दिया। वह देवताओं के पीछे पड़ गया। जहाँ-जहाँ देवता जाते थे, वह वहाँ-वहाँ उनका पीछा करता था। इस प्रकार उस दुरात्मा को राज्य करते हुए पाँच करोड़ इकसठ लाख साठ हजार वर्ष बीत गए।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

महाबली हिरण्यकश्यप से पीड़ित होकर इन्द्र आदि देवता ब्रह्मलोक में गए और ब्रह्माजी के समक्ष हाथ जोड़कर बोले- ‘आप हमारी रक्षा कीजिये। हमें उस दैत्य से छुटकारा दिलाइये। आपसे मिले वरदान के बल पर वह त्रिलोकी को सता रहा है।’

ब्रह्माजी ने कहा कि अन्तर्यामी भगवान श्रीनारायण ही हमारी सहायता कर सकते हैं। हिरण्यकश्यप दैत्य का वे ही संहार करेंगे। इस पर देवगण ब्रह्माजी के साथ क्षीरसागर में शयन कर रहे भगवान नारायण की शरण में गए। भगवान श्रीहरि विष्णु ने देवताओं को अभयदान देते हुए कहा- ‘मैं इस दुष्ट दानव का नाश अवश्य करूंगा।’

हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना परम शत्रु समझता था परंतु उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और दिन-रात भगवान हरि की भक्ति किया करता था। कुछ ग्रंथों के अनुसार जब हिरण्यकश्यप ब्रह्माजी की तपस्या कर रहा था, तब देवताओं ने हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु को पकड़ लिया। इस पर देवर्षि नारद ने कयाधु को छुड़ाया और उसे भगवद्-भक्ति का उपदेश दिया। उस समय भक्त प्रह्लाद अपनी माता के गर्भ में थे। इसलिए गर्भस्थ शिशु ने भी उन उपदेशों को सुना और वह भगवान का भक्त हो गया।

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जब प्रह्लाद का जन्म हुआ तो हिरयण्कश्प ने उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पुत्रों षण्ड तथा अमर्क के पास भेजा। गुरुओं ने बालक प्रह्लाद को अर्थ, धर्म और काम की शिक्षा प्रदान की। जब प्रह्लाद घर लौटा तो हिरण्यकश्यप ने पूछा- ‘संसार में किसकी भक्ति श्रेष्ठ है!’

इस पर भक्त प्रह्लाद ने उत्तर दिया- ‘श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन नामक नौ भक्तियों से प्राप्त किए जाने वाले भगवान श्री हरि विष्णु की भक्ति ही श्रेष्ठ है।’

अपने पुत्र के मुंह से अपने शत्रु का नाम सुनकर हिरण्यकश्यप बड़ा क्रोधित हुआ। उसने बालक प्रह्लाद से कहा- ‘तू भगवान विष्णु की भक्ति छोड़कर मेरी अर्थात् हिरणकश्यप की भक्ति कर!’

प्रह्लाद ने अपने पिता के आदेश को स्वीकार नहीं किया तथा वह ईश्भक्ति पर ही अडिग रहा। बहुत समझाने पर भी जब बालक प्रह्लाद न माना तो हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया तथा अपने सैनिकों को आदेश दिया- ‘इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु का पक्षपाती हो गया है।’

जब असुरों ने बालक प्रह्लाद पर आघात किया तो उनके खड्ग टूट गए तथा त्रिशूल टेढ़े हो गए किंतु बालक के शरीर पर खरोंच तक नहीं आई। इस पर बालक प्रह्लाद को विष दिया गया किंतु बालक पर उसका भी प्रभाव नहीं हुआ। बालक पर सर्प छोड़े गए किंतु वे भी भक्त प्रह्लाद के निकट जाकर शांत हो गए। इस पर उन्हें मत्त गजराज के समक्ष फैंका गया। गजराज ने भक्त प्रह्लाद को उठाकर अपने मस्तक पर रख लिया।

पर्वत से नीचे फेंके जाने पर प्रह्लाद ऐसे उठ खड़े हुए, जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बाँधकर डुबाने पर वे पुनः जल के ऊपर आ गए। गुरु-पुत्रों ने मन्त्रबल से कृत्या नामक राक्षसी को बुलाया किंतु कृत्या ने भक्त प्रह्लाद की जगह दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पुत्रों को ही मार डाला। भक्त प्रह्लाद ने प्रभु से प्रार्थना करके अपने गुरुओं को जीवित करवाया।

हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। होलिका के पास एक ऐसी मायावी चद्दर थी जिसे ओढ़ने पर अग्नि का प्रभाव नहीं होता था। हिरण्यकश्यप ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठ जाये। होलिका ने वह मायावी चद्दर ओढ़ ली तथा प्रह्लाद को लेकर चिता पर बैठ गई। जब चिता में आग लगाई गई तो वह मायावी चद्दर होलिका के शरीर से हटकर भक्त प्रह्लाद के शरीर पर चली गई जिससे होलिका तो जल गई किंतु भक्त प्रह्लाद पूरी तरह सुरक्षित रहे।

होलिका के जल जाने के बाद हिरण्यकश्यप ने स्वयं ही प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया तथा क्रोध में भरकर बोला- ‘मैं तुझे मार रहा हूँ, तेरा भगवान कहाँ है, उसे बुला ले!’

इस पर भक्त प्रह्लाद ने कहा- ‘भगवान तो कण कण में हैं। वे तो मुझ में, आप में और इस खड्ग में भी हैं।’

इस पर हिरण्यकश्यप एक स्तंभ की तरफ संकेत करके बोला- ‘क्या इसमें भी तेरा भगवान है?’

भक्त प्रह्लाद ने कहा- ‘हाँ इस स्तम्भ में भी भगवान हैं।’

जब हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रह्लाद पर अपनी गदा से प्रहार किया तो उसी समय भगवान श्रीहरि विष्णु स्तम्भ को फाड़कर नृसिंह के रूप में प्रगट हो गए। भगवान का आधा शरीर सिंह का तथा आधा शरीर मानव का था। अपने भक्त को सताए जाने के कारण भगवान अत्यंत क्रोध में थे। भगवान श्रीनृसिंह ने भयंकर सिंह-गर्जना करते हुए हिरण्यकश्यप को पकड़ लिया और उसे घसीटते हुए हिरण्यकश्यप के महल की चौखट तक ले गए।

भगवान इस समय न नर के वेश में थे, न मृग के। वे न घर के अंदर थे, न बाहर। उस समय संध्या हो रही थी, अर्थात् तब न दिन थी, न रात। नृसिंह अवतारधारी भगवान श्रीहरि विष्णु ने हिरण्यकश्यप को उठाकर अपनी जंघाओं पर लिटा लिया। इस प्रकार हिरण्कश्यप न भीतर था न बाहर, न न धरती पर था, न आकाश में। भगवान ने अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का पेट फाड़ डाला जो न अस्त्र थे, न शस्त्र!

महाभारत में लिखा है कि भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धरकर हिरण्यकश्यप पर आक्रमण किया। दैत्यों ने कुपित होकर नृसिंह पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा कर दी। भगवान उन सभी शस्त्रों को खा गए तथा कई हजार दैत्यों का संहार कर दिया। इस पर हिरण्यकश्यप ने अत्यंत क्रोध में भरकर भगवान पर आक्रमण किया।

दैत्य को सामने आया देख महातेजस्वी भगवान नृसिंह ने नखों के तीखे अग्र-भागों के द्वारा उस दैत्य के साथ घनघोर युद्ध किया। फिर संध्याकाल आने पर भगवान उसे पकड़कर महल की देहरी पर बैठ गए और उसे अपनी जाँघों पर रखकर अपने नखों से उसका वक्षस्थल विदीर्ण कर डाला।

हिरण्यकश्यप के मर जाने के बाद भी भगवान क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करते रहे। उनका यह उग्र रूप देखकर देवता डर गए, ब्रह्माजी भी अवसन्न हो गए, लक्ष्मीजी भगवान को शांत करने के लिए गईं किंतु दूर से लौट आयीं। इस पर भक्त प्रह्लाद ने भगवान की स्तुति की। भगवान नृसिंह ने शांत होकर अपने भक्त को गोद में बैठा लिया और उसे स्नेह से दुलारने लगे।

बिहार के लोगों का मानना है कि भगवान नृसिंह का अवतार पूर्णिया जिला के ‘बनमनखी’ क्षेत्र के सिकलीगढ़ धरहरा गांव में हुआ था। इसी गांव में होलिका भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठी थी। इस गांव में 12 फुट मोटा एवं 65 डिग्री पर झुका हुआ एक खम्भा है जिसे माणिक्य स्तम्भ कहते हैं। मान्यता है कि इसी खंभे को फाड़कर भगवान श्रीहरि विष्णु नृसिंह के रूप में प्रकट हुए थे। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के 31वें साल के तीर्थांक विशेषांक में सिकलीगढ़ धरहरा का उल्लेख किया गया है। मान्यता है कि नृसिंह अवतार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को हुआ था।

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