सड़क किनारे लंच
तमन अयुन टेम्पल देख लेने के बाद हम पुतु के सथ तनाहलोट मंदिर के लिए रवाना हुए। यह मेंगवी से लगभग एक घण्टे की दूरी पर है। दोपहर हो चुकी थी। इसलिए हमने पुतु से कहा कि किसी ऐसे स्थान पर गाड़ी रोक ले जहाँ बैठक हम भोजन कर सकें। भोजन हमने प्रातः अपने सर्विस अपार्टमेंट में बनाकर अपने साथ ले लिया था। पुतु ने एक हरे-भरे स्थान पर सड़क के किनारे बने छपरे के नीचे गाड़ी रोकी। यहाँ लकड़ी की दो चौकियां रखी हुई थीं। हमने उन्हीं पर बैठकर भोजन किया। यह एक अच्छी-खासी पिकनिक मनाने जैसा था। पास ही दो ठेले वाले खड़े थे जिन पर कुछ तरकारी और फल बिक रहे थे। उन दोनों ठेलों को एक ही महिला देख रही थी। जब हम भोजन करने बैठे तो वह महिला यह देखने के लिए हमारे पास चली आई कि हम क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं! यह ठीक वैसी ही उत्सुकता थी जैसी भारत के लोग सड़कों पर चलते फिरंगियों को देखकर व्यक्त करते हैं।
प्याज बेचने वाले की नीयत में खराबी
भोजन करने के बाद हमने वहाँ खड़े एक ठेले पर जाकर देखा। वहाँ सब्जी के नाम पर केवल प्याज थी, वह भी बहुत छोटे आकार की। मैंने बड़ी कठिनाई से उससे समझा कि प्याज क्या भाव है। महिला ने मुझे एक किलो का बाट और बीस हजार रुपए निकालकर दिखाये। सौ रुपए किलो के भाव की छोटी प्याज थी तो अखरने वाली किंतु मैंने खरीदने का निर्णय लिया। जब महिला प्याज तोल चुकी, ठीक उसी समय उसका पुरुष साथी (संभवतः पति) वहाँ आया और उसने मुझे कैलकुलेटर पर टाइप करके बताया कि इस प्याज के लिए 40 हजार रुपए लगेंगे। मैंने अस्वीकृति में सिर हिलाया और तुली हुई प्याज वहीं छोड़ दी। महिला मुझ पर बहुत नाराज हुई और उसने मुझसे ईडियट कहा। संभवतः अंग्रेजी का एक यही शब्द था जिसे वह जानती थी और न जाने कब उसने किससे सीखा होगा! संभवतः वह समझ ही नहीं सकी थी कि उसके पति ने क्य बदमाशी की थी! मैं महिला की तरफ देखकर मुस्कुराया और पुतु की गाड़ी में बैठ गया।
मंदिर देखने के लिए तीन लाख रुपए के टिकट
लगभग एक घण्टे चलने के बाद हम तनाहलोट पहुंचे। प्राचीन तनाहलोट हिन्दू मंदिर, बाली द्वीप के तबनन रीजेंसी क्षेत्र में समुद्र के भीतर किंतु तट के काफी निकट बना हुआ है। पुतु ने हमें बताया कि यहाँ टिकट लेकर प्रवेश करना पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति के लिए साठ हजार रुपए का टिकट था। हमें पांच टिकट लेने पड़े इसलिए तीन लाख रुपए व्यय हो गए। यह एक विचित्र अनुभव था। भारत में किसी भी मंदिर में प्रवेश के लिए टिकट नहीं लेना पड़ता किंतु इण्डोनेशिया सरकार, देशी-विदेशी पर्यटकों से मंदिरों में प्रवेश के लिए भी इतना टिकट ले रही थी। संभवतः इण्डोनेशियाई सरकार की आय में पर्यटन से होने वाली आय बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। या फिर मुस्लिम देश होने के कारण हिन्दू मंदिरों पर टिकट लगाया गया है।
बाली, जावा और चीन के व्यापारियों का अनोखा संसार
मंदिर परिसर का आरम्भ एक भव्य और विशाल तोरण द्वार से होता है जिसकी ऊपर की ताकों में पीताम्बरधारी लम्बे दाढ़ी वाले ऋषि की मूर्ति स्थापित हैं। तोरण द्वार से लेकर समुद्र तट तक पहुंचने के लिए हमें लगभग एक किलोमीटर चलना पड़ा। इस पूरे मार्ग में बाली, जावा तथा चीन के सैंकड़ों व्यवसायी दुकानें लगाए हुए बैठे हैं। इन दुकानों पर हिन्दू देवी-देवताओं की एक से बढ़कर एक पेंटिंग देखी जा सकती हैं। चटखीले रंग, तीखे नाक-नक्श और भाव पूर्ण मुद्राओं में अंकित हिन्दू देवी-देवताओं का यह संसार, धरती से नितांत विलग ही दिखाई देता है।
छः लाख रुपए के 10 रुद्राक्ष
यहाँ भी वस्तुओं के दाम भारत की तुलना में कई गुना अधिक थे। हमने एक चीनी दुकान पर लगभग 10 रुद्राक्षों की एक माला के दाम पूछे जिसे कड़े की तरह हाथ की कलाई में पहना जाता है। भारत में यह माला अधिक से अधिक 20 रुपयों में खरीदी जा सकती है किंतु वहाँ हमें इस माला का दाम छः लाख इण्डोनेशियन रुपए अर्थात् तीन हजार भारतीय रुपए बताया गया। यहाँ भी नारियल 20 हजार इण्डोनेशियन रुपए में बिक रहा था।
ज्ञान मुद्रा में सरस्वती
इस बाजार में सरस्वती की श्वेत रंग की एक मनुष्याकार प्रतिमा भी बिकने के लिए आई थी जिसे देखकर कोई भी भारतीय दंग रह जाए। बाली शैली की इस प्रतिमा में देवी सरस्वती एक कमल पुष्प पर खड़ी हैं जिनके एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में वेद, तीसरे हाथ में बिंजौरा का पुष्प और चौथा हाथ ज्ञान मुद्रा में है। देवी के पैरों के पास हंस पंख खोले खड़ा है।
विशिष्ट शैली का द्वार
जहाँ सड़क समाप्त हुई, वहीं से समुद्र तक जाने के लिए सीढ़ियों का सिलसिला आरम्भ हो गया। ठीक यहीं पर बाली की विशिष्ट शैली का प्रवेश द्वार बना हुआ है। इस द्वार के दोनों तरफ के स्तंभों की बनावट इस प्रकार की होती है मानो किसी शिखरबंद मंदिर को ठीक बीच में से चीर कर दोनों हिस्सों को सड़क के दानों किनारों पर सरका दिया गया हो। इस द्वार पर भी बांस की भव्य सजावट है।
भारतीय ऋषि की प्रतिमा
यहाँ समुद्र के किनारे कुछ छोटे-छोटे स्तंभों पर विभिन्न प्रकार की प्रतिमाएं रखी हुई हैं। इनमें से एक प्रतिमा जटाजूट-धारी भारतीय ऋषि की जान पड़ती है जिसके गले एवं भुजाओं में मोटे-मोटे रुद्राक्ष पड़े हुए हैं। उसके एक हाथ में फूल और एक हाथ में देवता के समक्ष बजाई जाने वाली हाथ की घण्टी है। ऋषि प्रतिमा के सिर पर एक गोल टोपनुमा मुकुट है। आज किसी श्रद्धालु ने इस ऋषि प्रतिमा को पीताम्बर धारण करवा दिया था जिससे प्रतिमा की शोभा कई गुणा बढ़ गई प्रतीत होती थी।
समुद्र ने मनाया तनाहलोट में गुलंगान
जब हम समुद्र के किनारे पहुंचे तो हमें ज्ञात हुआ कि इस समय समुद्र में ज्वार आया हुआ है इसलिए मंदिर तक जाने की अनुमति नहीं है। हमें द्वीप की मुख्य भूमि पर खड़े रहकर, लगभग 100 मीटर दूर स्थित टापू पर स्थित मंदिर को देखकर संतोष करना पड़ा। समुद्र की लहरें उस टापू से टकराकर लौट रही थीं। ऐसा लगता था मानो समुद्र भी गुलंगान के त्यौहार पर, मंदिर की सीढ़ियों और दीवारों का स्पर्श करने के लिए चला आया था। समुद्र के इस प्रकार अड़ंगा लगा देने के कारण हमें लगा मानो तीन लाख रुपए के टिकट व्यर्थ ही चले गए।
नहीं मिला पवित्र जल
पुतु ने हमें कहा कि जब आप समुद्र में होकर मंदिर तक जाएं तो वहाँ से पवित्र जल लेकर अपने ऊपर छिड़कें तथा अपने साथ भी लेकर आएं। यह ठीक वैसा ही था जैसा भारत के लोग नदियों में स्नान के लिए जाते समय करते हैं तथा गंगाजल अपने साथ लेकर आते हैं। अब चूंकि हम मंदिर तक पहुंच ही नहीं सके थे, इसलिए पवित्र जल प्राप्त करना भी संभव नहीं रह गया था।
समुद्र किनारे सामूहिक पूजन
जब हम समुद्र के किनारे पहुंचे तो हमने वहाँ लगभग 150 फुट लम्बे, 40 फुट चौड़े एवं लगभग 4 फुट ऊंचे चबूतरे पर शानदार पीले रंग की छतरियां तनी हुई देखीं जो वहाँ स्थाई रूप से बने छोटे-छोटे लगभग दो-ढाई फुट ऊंचे देवालयों के ऊपर तानी गई थीं। इन लघु देवालयों के समक्ष केले एवं नारियल के पत्तों एवं बांस की बनी हुई छोटी-छोटी ट्रे अथवा थाली में पूजन सामग्री अर्पित की गई थी। इस पूरे चबूतरे को एक शानदार लम्बे पीले रंग के कपड़े से चारों ओर से ढंका गया था। इसके समक्ष सैंकड़ों नर-नारी परम्परागत नए परिधानों में सज-धज कर बैठे थे। कुछ पुजारी मंत्रों का उच्चारण करते हुए श्रद्धालुओं पर पवित्र जल का छिड़काव कर रहे थे। इस पूरे वातावरण में पीला और श्वेत रंग ही छाया हुआ था।
सभी पुरुष सुखासन में अर्थात पालथी मार कर बैठे थे। अधिकांश महिलाएं भी उन्हीं की तरह सुखासन में विराजमान थीं किंतु कुछ महिलाएं बौद्ध भिक्षुओं की तरह घुटने मोड़कर, घुटनों और पंजों के सहारे उकड़ूं बैठी थीं। इस सामूहिक पूजन को देखना अत्यंत रोमांचकारी था। सारा काम बिना किसी आवाज के, बिना किसी भागम-भाग और चिल्ल-पौं के हो रहा था। यहाँ माता-पिता अपने छोटे बच्चों को साथ लेकर नहीं आए थे। पुरुषों ने पुतु जैसी टोपियां पहनी हुई थीं जिनके आगे के हिस्से को गांठें लगाकर भारतीय कौए जैसी आकृति दी गई थी।
पूजन क्षेत्र लोहे की जाली से घिरा हुआ था। इसके चारों ओर सैंकड़ों देशी-विदेशी पर्यटक घूम रहे थे, किंतु श्रद्धालु जन उनकी तरफ से नितांत निश्चिंत थे। इस जाली के बाहर बहुत सी स्त्रियां अपने स्टॉल लगाकर खड़ी थीं जहाँ पूजा की थालियां बेची जा रही थीं।
हाथ जोड़कर नमस्कार
सभी स्त्री-पुरुष, देव पूजन के बीच-बीच में दोनों हाथ जोड़कर तथा उन्हें अपने माथे से लगाकर देवताओं को नमस्कार कर रहे थे, नमस्कार की यह मुद्रा ठीक वैसी ही थी, जैसी कि भारतीय हिन्दू, मंदिरों में देवताओं को प्रणाम करते हैं।
कुता में खरीददारी
अभी सायं के चार बजे थे किंतु धूप की चमक कम होने लगी। हम भी थकान का अनुभव कर रहे थे। इसलिए हमने मैंगवी लौटने का निर्णय लिया। यह मार्ग कुता से होकर जाता था जो बाली द्वीप के मुख्य नगरों में से एक है। हमने पुतु से कहा कि किसी बड़े जनरल स्टोर पर चले ताकि हम कुछ तरकारी और दूध खरीद सकें। यदि हम भारत में होते तो अब तक तो मार्ग में दो-तीन बार चाय पी चुके होते किंतु यहाँ ऐसी कोई दुकान नहीं थी जिस पर चाय बिकती हो। तबनन क्षेत्र में एक रेस्टोरेंट में कॉफी थी किंतु वह भी बिना दूध-चीनी की। इसे पीना हमारे लिए न तो संभव था और न आनंददायक।
काफी देर चलने के बाद कुता में एक बड़े मॉल के सामने पुतु ने गाड़ी रोकी। पुतु के हिसाब से यह एक मॉल था किंतु भारत के हिसाब से यह एक मध्यम आकार के जनरल स्टोर से अधिक कुछ भी नहीं था। यहाँ हमें कई तरह की हरी तरकारियां देखने को मिलीं। आलू, प्याज, टमाटर, दूध, फल भी प्रचुर मात्रा में थे। वहाँ कई तरह की प्याज और आलू रखे हुए थे जिनके कंटेनर पर लगे लेबल पर उसके भाव के साथ-साथ उस देश का नाम भी लिखा हुआ था जहाँ से वह तरकारी आई थी। यह देखकर हमारे आश्चर्य का पार नहीं था कि अधिकांश तरकारी न्यूजीलैण्ड, नीदरलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया तथा मुम्बई से आई थी। यहाँ तक कि केले भी विदेशी थे। बाली द्वीप के केले आकार में बहुत छोटे, स्वाद में खट्टे-मीठे और अपेक्षाकृत कम मुलायम थे। सेब कई प्रकार का था और विश्व के अनेक देशों से मंगाया गया था। विदेशों से आई हुई यह सारी तरकारी और फल, भारत की अपेक्षा कई गुना अधिक दामों पर उपलब्ध थी।
हमने आगे के दिनों के हिसाब से तरकारी और दूध के डिब्बे खरीद लिए। दूध के इन डिब्बों पर दुधारू पशुओं चित्र बने हुए थे किंतु उनमें मिल्क पाउडर के साथ-साथ कई तरह के प्रोटीन और वनस्पति तेल भी मिले हुए थे।