Thursday, May 22, 2025
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तमन अयुन पुराडेसा (22)

तमन अयुन पुराडेसा में प्रवेश करते ही एक बड़ा सा मण्डप है। इसमें प्रतिमाओं के माध्यम से बाली की सांस्कृतिक झांकी प्रस्तुत की गई है।

तमन अयुन पुराडेसा मंदिर में प्रवेश के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बीस हजार इण्डोनेशियन रुपए मूल्य का टिकट खरीदना होता है। हमने पांच टिकट खरीदे इसलिए एक लाख रुपए खर्च हो गए। यदि यह मुद्रा हमसे भारतीय रुपए में ली जाती तो हमें पांच सौ रुपए देने पड़ते जो कि इतने नहीं अखरते किंतु एक लाख रुपए सुनकर हमारा मन बैठ गया।  

यह बाली के प्राचीन राजवंश का मंदिर है। इसके भीतर प्राचीन झौंपड़ीनुमा मंदिर बने हुए हैं। ये एक मंजिल से लेकर ग्यारह मंजिले तक हैं तथा इन्हें मेरू कहा जाता है। इनकी ऊंचाई लगभग चालीस-पचास फुट है। आधार वाली झौंपड़ी का आकार एवं छज्जा सबसे चौड़ा होता है, इसके ऊपर हर मंजिल की चौड़ाई कम होती जाती है। सबसे ऊपर की झौंपड़ी का आकार एवं छज्जा सबसे कम चौड़ा होता है। इनके छज्जों पर काले रंग की लम्बी-लम्बी घास जैसी सजावट की गई है।

 पर्यटकों को बाहर से ही मंदिर देखने की अनुमति है। पर्यटकों की सुविधा के लिए मुख्य मंदिर परिसर के चारों ओर एक पक्का गलियारा बनाया गया है। पर्यटक इस गलियारे में चारों ओर घूम कर मंदिर के बाहरी हिस्से में बनी देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के चित्र उतार सकते हैं। मंदिर परिसर में कुछ लोग समूह के रूप में बैठकर पूजा कर रहे थे। यह एक सुंदर प्राकृतिक स्थान है तथा सघन वनस्पति से आच्छादित है।

जनजीवन की झांकी

तमन अयुन मंदिर के प्रवेश द्वार में प्रवेश करते ही एक बड़ा सा मण्डप स्थित है। इसमें प्रतिमाओं के माध्यम से बाली की सांस्कृतिक एवं जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत की गई है। एक दृष्य में दो पुरुष मुर्गा लड़ाते हुए दिखाए गए हैं तथा दो मनुष्य उन्हें मुर्गा लड़ाते हुए देख रहे हैं।

इनमें से एक धनी मनुष्य कुर्सी पर बैठा है जिसने हाथ में चिलम जैसी कोई चीज उठा रखी है। दूसरा व्यक्ति हाथ ऊपर करके लड़ाई प्रारम्भ करने का संकेत कर रहा है। एक तरफ बैलों की एक जोड़ी है जिसके कंधों पर हल रखा हुआ है। इनमें से एक बैल काले रंग का है और दूसरा बैल सफेद रंग का है। पास ही एक नृत्यांगना नृत्य की मुद्रा में है।

देव प्रतिमाओं का खुला संग्रहालय

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तमन अयुन पुराडेसा मंदिर परिसर में स्थान-स्थान पर सैंकड़ों प्रतिमाएं रखी हुई हैं जिनमें से पत्थर से निर्मित बहुत सी प्रतिमाएं सैंकड़ों साल पुरानी प्रतीत होती हैं तो क्ले से निर्मित कुछ प्रतिमाएं आधुनिक काल की हैं। इन मूर्तियों के हाथों में तरह-तरह के पुष्प, वाद्ययंत्र एवं अस्त्र-शस्त्र लगे हुए हैं। बहुत सी अप्सराओं के वस्त्र भारतीय तथा यूनानी देवियों से मिलते-जुलते हैं। इनमें कुछ प्रतिमाएं पंखों वाले सिंहों की हैं तो कुछ प्रतिमाएं पंखों वाली अप्सराओं की भी हैं। यहाँ स्थित बहुत सी मनुष्याकार प्रतिमाओं चेहरे मनुष्यों जैसे होते हुए भी बंदरों, चिम्पांजियों एवं औरंगुटानों से मिलते हैं। इन्हें देखकर ऐसा आभास होता है कि इस द्वीप पर कभी इस प्रकार के चेहरे वाले मनुष्य पाए जाते होंगे! ऐसे मनुष्यों की आकृतियां हमने बाली द्वीप पर और भी कई स्थानों पर देखीं। उबुद वानर वन में ऐसी मूर्तियों का खुला संग्रहालय ही प्रतीत होता है। इनके शरीर पर नाम मात्र के वस्त्र, सिर पर वनवासियों जैसी पगड़ियां, चेहरे फूले हुए, नाक गोल एवं मोटी, होंठों के भीतर स्थित बड़े-बड़े दांत, मांसल भुजाएं, पुष्ट जंघाएं तथा चेहरों पर हंसी दिखाई देती है।

गोल आंखों वाले देवता

मंदिर परिसर में स्थान-स्थान पर छोटे चबूतरे बने हुए हैं जिन पर तरह-तरह की आकृतियों एवं आकारों वाले देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हुई हैं। इनमें से कुछ देवताओं की आंखे गेंद की तरह बिल्कुल गोल हैं। ये अत्यंत प्राचीन जान पड़ती हैं, लगभग एक हजार साल पुरानी भी हों तो आश्चर्य नहीं। इन मूर्तियों के माध्यम से मूर्तिकार, भविष्य के मानवों के लिए क्या संदेश छोड़कर गए, कुछ कहा नहीं जा सकता! पत्थर-नुमा जिन चबूतरों पर ये मूर्तियां खड़ी हैं, वे भी बहुत पुराने हैं। कुछ चबूतरों पर रखी मूर्तियां वर्षा, आंधी एवं समय के थपेड़ों से घिस-टूटकर, भारत में रखे जाने वाले शिवलिंगों की तरह, गोल-लम्बी पिण्डियों में बदल गई हैं।

दीपा की शैतानियां

मंदिर परिसर में ही रंग-बिरंगे पक्षियों का एक छोटा सा चिड़ियाघर बना हुआ है। अलग-अलग आकार और रंगों वाले पक्षी अपने-अपने पिंजरे में भांति-भांति की किल्लोल कर रहे थे। मेरी डेढ़ वर्षीय पौत्री दीपा इन पक्षियों को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। सभी पक्षी अलग-अलग प्रकार की आवाजें निकाल रहे थे। दीपा ने भी पक्षियों की नकल उतारने का प्रयास किया तथा अपने हाव-भाव से हमें यह समझाने का प्रयास किया कि देखो यहाँ कितनी तरह के पक्षी हैं।

बाली वासियों से दोस्ती

हम बड़ी कठिनाई से दीपा को पक्षियों वाले खण्ड से निकाल कर बाहर लाए। यहाँ कुछ पुरुष और महिलाएं एक तरफ छाया में बैठकर बांस की खपच्चियों की टोकरियां बुन रहे थे। दीपा ने इस तरह का काम होते हुए पहली बार देखा था। वह गोद से उतरकर उन लोगों की तरफ भाग गई और टोकरी बुनने वाली एक महिला की गोद में जाकर बैठ गई।

उसने अपनी अटपटी शब्दावली में उन लोगों से बात करने का प्रयास किया मानो पूछना चाहती हो कि इतनी सुंदर टोकरियां आप कैसे बुन लेती हैं! हम भी हैरान थे, वातावरण का बच्चों पर कितना शीघ्र और कितना गहरा प्रभाव होता है!

रंगीन घोंघे, कछुए, चिड़ियाएं और मछलियां

 मंदिर से बाहर निकले तो हमने मंदिर के बाहर एक अच्छा-खासा मेला लगा हुआ पाया। यह मेला गुलंगान के अवसर पर लगा था। इसका स्वरूप किसी भारतीय मेले जैसा ही दिखाई देता था किंतु इसमें बिकने वाली सामग्री भारतीय मेलों की अपेक्षा बहुत अलग थी। इसमें रंग-बिरंगे घोंघे, कछुए, चिड़ियाएं, मछलियां और कई प्रकार के पक्षियों के चूजे बिकने आए थे।

इनमें से बहुत से पक्षी एवं मछलियां प्राकृतिक तौर पर ही चटख रंगों की थीं किंतु अधिकांश घोंघे, कछुए, चिड़ियाएं और मछलियां कृत्रिम रूप से रंगे गए थे। दीपा ने जब उन्हें देखा तो उसकी प्रसन्नता का पार न रहा। दीपा को वे सब पक्षी, घोंघे और कछुए खेलने के लिए चाहिये थे और हम उनमें से एक भी दिलवाने को तैयार नहीं थे।

काफी देर तक छोटी चिड़ियाओं के एक पिंजरे को ध्यान से देखते रहने के बाद दीपा ने उनकी ही तरह चीं-चीं की आवाज लगानी शुरु कर दी। तमन अयुन पुराडेसा का भ्रमण याद रखने वाला बन गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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