Saturday, December 7, 2024
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अध्याय – 34 (ब) : भारत पर तुर्क आक्रमण एवं हिन्दू प्रतिरोध – मुहम्मद गौरी

गौर साम्राज्य का उत्कर्ष

महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा तथा एक नवीन राजवंश का उदय हुआ जिसे गौर वंश कहा जाता है। गौर का पहाड़ी क्षेत्र गजनी और हिरात के बीच में स्थित है। गौर प्रदेश के निवासी गौरी कहे जाते हैं। 1173 ई. में गयासुद्दीन गौरी ने स्थायी रूप से गजनी पर अधिकार कर लिया और अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन को वहां का शासक नियुक्त किया। यही शहाबुद्दीन, मुहम्मद गौरी के नाम से जाना गया। उसने 1175 ई. से 1206 ई. तक भारत पर कई आक्रमण किये तथा दिल्ली में मुस्लिम शासन की आधारशिला रखी।

मुहम्मद गौरी के भारत आक्रमणों के उद्देश्य

मुहम्मद गौरी ने महमूद गजनवी की भांति भारत पर अनेक आक्रमण किये और सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिमी भारत को रौंद डाला। भारत पर उसके आक्रमण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

1. वह पंजाब में गजनवी वंश के लोगों का नाश करना चाहता था ताकि भविष्य में उसके साम्राज्य विस्तार को कोई खतरा नहीं हो।

2. वह भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करके इतिहास में अपना नाम अमर करना चाहता था।

3. वह भारत की असीम धन-दौलत को प्राप्त करना चाहता था।

4. वह कट्टर मुसलमान था, इसलिये भारत से बुत परस्ती अर्थात् मूर्ति पूजा को समाप्त करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था।

इस प्रकार मुहम्मद गौरी द्वारा भारत पर आक्रमण करने के राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारण थे। अपने जीवन के 30 वर्षों तक वह इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में लगा रहा।

मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के समय भारत की स्थिति

राजनीतिक दशा

गौरी के आक्रमणों के समय सिंध, मुल्तान और पंजाब में मुसलमान शासक शासन कर रहे थे। उस समय उत्तर भारत में चार प्रमुख हिन्दू राजा शासन कर रहे थे- 1. दिल्ली तथा अजमेर में चौहान वंश का राजा पृथ्वीराज, 2. कन्नौज में गहड़वाल या राठौड़ वंश का राजा जयचंद, 3. बिहार में पाल वंश का राजा …. तथा बंगाल में सेन वंश का राजा लक्ष्मण सेन। इन समस्त राज्यों में परस्पर फूट थी तथा परस्पर संघर्षों में व्यस्त थे। पृथ्वीराज तथा जयचंद में वैमनस्य चरम पर था। दानों एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। दक्षिण भारत भी बुरी तरह बिखरा हुआ था। देवगिरि में यादव, वारंगल में काकतीय, द्वारसमुद्र में होयसल तथा मदुरा में पाण्ड्य वंश का शासन था। ये भी परस्पर युद्ध करके एक दूसरे को नष्ट करके अपनी आनुवांशिक परम्परा निभा रहे थे।

सामाजिक दशा

सामाजिक दृष्टि से भी भारत की दशा बहुत शोचनीय थी। समाज का नैतिक पतन हो चुका था। शत्रु से देश की रक्षा और युद्ध का समस्त भार पहले की ही तरह अब भी राजपूत जाति पर था। शेष प्रजा इससे उदासीन थी। शासकों को विलासिता का घुन भी खाये जा रहा था। राष्ट्रीय उत्साह पहले की ही भांति पूर्णतः विलुप्त था। कुछ शासकों में देश तथा धर्म के लिये मर मिटने का उत्साह था किंतु वे परस्पर फूट का शिकार थे। स्त्रियों की सामाजिक दशा, उत्तर वैदिक काल की अपेक्षा काफी गिर चुकी थी।

आर्थिक दशा

यद्यपि महमूद गजनवी भारत की आर्थिक सम्पदा को बड़े स्तर पर लूटने में सफल रहा था तथापि कृषि, उद्योग एवं व्यापार की उन्नत अवस्था के कारण भारत फिर से संभल गया था। राजवंश फिर से धनी हो गये थे और जनता का जीवन साधारण होते हुए भी सुखी एवं समृद्ध था।

धार्मिक दशा

इस समय हिन्दू धर्म की शैव तथा वैष्णव शाखायें शिखर पर थीं। बौद्ध धर्म का लगभग नाश हो चुका था। जैन धर्म दक्षिण भारत तथा पश्चिम के मरुस्थल में जीवित था। सिंध, मुलतान तथा पंजाब में मुस्लिम शासित क्षेत्रों में इस्लाम के अनुयायी भी निवास करते थे।

इस प्रकार देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक परिस्थतियां ऐसी नहीं थीं जिनके बल पर भारत, मुहम्मद गौरी जैसे दुर्दान्त आक्रांता का सामना कर सकता।

मुहम्मद गौरी के भारत पर आक्रमण

मुल्तान तथा सिंध पर आक्रमण

मुहम्मद गौरी का भारत पर पहला आक्रमण 1175 ई. में मुल्तान पर हुआ। मुल्तान पर उस समय शिया मुसलमान करमाथियों का शासन था। मुहम्मद गौरी ने उनको परास्त करके मुल्तान पर अधिकार कर लिया। उसी वर्ष गौरी ने ऊपरी सिंध के कच्छ क्षेत्र पर आक्रमण किया तथा उसे अपने अधिकार में ले लिया। इस आक्रमण के 7 साल बाद 1182 ई. में उसने निचले सिंध पर आक्रमण करके देवल के शासक को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया।

गुजरात पर आक्रमण

मुलतान पर आक्रमण के पश्चात् गौरी का अगला आक्रमण 1178 ई. में गुजरात के चालुक्य राज्य पर हुआ जो उस समय एक धनी राज्य था। गुजरात पर इस समय मूलराज शासन कर रहा था। उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ा थी। गौरी मुल्तान, कच्छ और पश्चिमी राजपूताना में होकर आबू के निकट पहुंचा। वहां कयाद्रा गांव के निकट मूलराज (द्वितीय) की सेना से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में गौरी बुरी तरह परास्त होकर अपनी जान बचाकर भाग गया। यह भारत में उसकी पहली पराजय थी।

पंजाब पर अधिकार

गौरी ने गुजरात की असफलता के बाद पंजाब के रास्ते भारत के आंतरिक भागों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उस समय पंजाब पर गजनवी वंश का खुसरव मलिक शासन कर रहा था। गौरी ने 1179 ई. में पेशावर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। उसके बाद 1181 ई. में गौरी ने दूसरा तथा 1185 ई. में तीसरा आक्रमण करके स्याल कोट तक का प्रदेश जीत लिया। अंत में लाहौर को भी उसने अपने प्रांत का अंग बना लिया। पंजाब पर अधिकार कर लेने से गौरी के अधिकार क्षेत्र की सीमा दिल्ली एवं अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज (तृतीय) से आ लगीं। मुहम्मद गौरी ने चौहान साम्राज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।

पृथ्वीराज चौहान (तृतीय)

ई.1179 में अजमेर के प्रतापी चौहान शासक सोमेश्वर की मृत्यु होने पर उसका 11 वर्षीय पुत्र पृथ्वीराज (तृतीय) अजमेर की गद्दी पर बैठा। उसने 1192 ई. तक उत्तर भारत के बड़े भू-भाग पर शासन किया। भारत के इतिहास में वह पृथ्वीराज चौहान तथा रायपिथौरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गद्दी पर बैठते समय अल्प वयस्क होने के कारण उसकी माता कर्पूर देवी अजमेर का शासन चलाने लगी। कर्पूर देवी, चेदि देश की राजकुमारी थी तथा कुशल राजनीतिज्ञ थी। उसने बड़ी योग्यता से अपने अल्पवयस्क पुत्र के राज्य को संभाला। उसने दाहिमा राजपूत कदम्बवास को अपना प्रधानमंत्री बनाया जिसे केम्बवास तथा कैमास भी कहते हैं। कदम्बवास ने अपने स्वामि के षट्गुणों की रक्षा की तथा राज्य की रक्षा के लिये चारों ओर सेनाएं भेजीं। वह विद्यानुरागी था जिसे पद्मप्रभ तथा जिनपति सूरि के शास्त्रार्थ की अध्यक्षता का गौरव प्राप्त था। उसने बड़ी राजभक्ति से शासन किया। नागों के दमन में कदम्बवास की सेवाएं श्लाघनीय थीं। चंदेल तथा मोहिलों ने भी इस काल में शाकम्भरी राज्य की बड़ी सेवा की। कर्पूरदेवी का चाचा भुवनायक मल्ल अथवा भुवनमल्ल पृथ्वीराज की देखभाल के लिये गुजरात से अजमेर आ गया तथा उसके कल्याण हेतु कार्य करने लगा। जिस प्रकार गरुड़ ने राम और लक्ष्मण को मेघनाद के नागपाश से मुक्त किया था, उसी प्रकार भुवनमल्ल ने पृथ्वीराज को शत्रुओं से मुक्त रखा।

कर्पूरदेवी के संरक्षण से मुक्ति

कर्पूरदेवी का संरक्षण काल कम समय का था किंतु इस काल में अजमेर और भी सम्पन्न और समृद्ध नगर बन गया। पृथ्वीराज ने कई भाषाओं और शास्त्रों का अध्ययन किया तथा अपनी माता के निर्देशन में अपनी प्रतिभा को अधिक सम्पन्न बनाया। इसी अवधि में उसने राज्य कार्य में दक्षता अर्जित की तथा अपनी भावी योजनाओं को निर्धारित किया जो उसकी निरंतर विजय योजनाओं से प्रमाणित होता है। पृथ्वीराज कालीन प्रारंभिक विषयों एवं शासन सुव्यवस्थाओं का श्रेय कर्पूरदेवी को दिया जा सकता है जिसने अपने विवेक से अच्छे अधिकारियों को अपना सहयोगी चुना और कार्यों को इस प्रकार संचालित किया जिससे बालक पृथ्वीराज के भावी कार्यक्रम को बल मिले। पृथ्वीराज विजय के अनुसार कदम्बवास का जीवन पृथ्वीराज व उसकी माता कर्पूरदेवी के प्रति समर्पित था। कदम्बवास की ठोड़ी कुछ आगे निकली हुई थी। वह राज्य की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता था। कहीं से गड़बड़ी की सूचना पाते ही तुरंत सेना भेजकर स्थिति को नियंत्रण में करता था।

कदम्बवास की मृत्यु

संभवतः संरक्षण का समय एक वर्ष से अधिक न रह सका तथा ई.1178 में पृथ्वीराज ने स्वयं सभी कार्यों को अपने हाथ में ले लिया। इस स्थिति का कारण उसकी महत्त्वाकांक्षा एवं कार्य संचालन की क्षमता उत्पन्न होना हो सकता है। संभवतः कदम्बवास की शक्ति को अपने पूर्ण अधिकार से काम करने में बाधक समझ कर उसने कुछ अन्य विश्वस्त अधिकारियों की नियुक्ति की जिनमें प्रतापसिंह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भाग्यवश कदम्बवास की मृत्यु ने कदम्बवास को पृथ्वीराज के मार्ग से हटाया। रासो के लेखक ने कदम्बवास की हत्या स्वयं पृथ्वीराज द्वारा होना लिखा है तथा पृथ्वीराज प्रबन्ध में उसकी मृत्यु का कारण प्रतापसिंह को बताया है। डॉ. दशरथ शर्मा पृथ्वीराज या प्रतापसिंह को कदम्बवास की मृत्यु का कारण नहीं मानते क्योंकि हत्या सम्बन्धी विवरण बाद के ग्रंथों पर आधारित है। मृत्यु सम्बन्धी कथाओं में सत्यता का कितना अंश है, यह कहना कठिन है किंतु पृथ्वीराज की शक्ति संगठन की योजनाएं इस ओर संकेत करती हैं कि पृथ्वीराज ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में कदम्बवास को बाधक अवश्य माना हो तथा उससे मुक्ति का मार्ग ढूंढ निकाला हो। इस कार्य में प्रतापसिंह का सहयोग मिलना भी असम्भव नहीं दिखता। इस कल्पना की पुष्टि कदम्बवास के ई.1180 के पश्चात् कहीं भी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के साथ उल्लेख के अभाव से होती है।

पृथ्वीराज चौहान की उपलब्ध्यिाँ

अपरगांग्य तथा नागार्जुन का दमन

उच्च पदों पर विश्वस्त अधिकारियों को नियुक्त करने के बाद पृथ्वीराज ने अपनी विजय नीति को आरंभ करने का बीड़ा उठाया। पृथ्वीराज के गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद उसके चाचा अपरगांग्य ने विद्रोह का झण्डा उठाया। पृथ्वीराज ने उसे परास्त किया तथा उसकी हत्या करवाई। इस पर पृथ्वीराज के दूसरे चाचा तथा अपरगांग्य के छोटे भाई नागार्जुन ने विद्रोह को प्रज्ज्वलित किया तथा गुड़गांव पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज ने गुड़गांव पर भी आक्रमण किया। नागार्जुन गुड़गांव से भाग निकला किंतु उसके स्त्री, बच्चे और परिवार के अन्य सदस्य पृथ्वीराज के हाथ लग गये। पृथ्वीराज ने उन्हें बंदी बना लिया। पृथ्वीराज बहुत से विद्रोहियों को पकड़कर अजमेर ले आया तथा उन्हें मौत के घाट उतार कर उनके मुण्ड नगर की प्राचीरों और द्वारों पर लगाये गये जिससे भविष्य में अन्य शत्रु सिर उठाने की हिम्मत न कर सकें। नागार्जुन का क्या हुआ, कुछ विवरण ज्ञात नहीं होता।

भण्डानकों का दमन

राज्य के उत्तरी भाग में मथुरा, भरतपुर तथा अलवर के निकट भण्डानक जाति रहती थी। विग्रहराज (चतुर्थ) ने इन्हें अपने अधीन किया था किंतु उसे विशेष सफलता नहीं मिली। ई.1182 के लगभग पृथ्वीराज चौहान दिगिवजय के लिये निकला। उसने भण्डानकों पर आक्रमण किया तथा उनकी बस्तियां घेर लीं। बहुत से भण्डानक मारे गये और बहुत से उत्तर की ओर भाग गये। इस आक्रमण का वर्णन समसामयिक लेखक जिनपति सूरि ने किया है। इस आक्रमण के बाद भण्डानकों की शक्ति सदा के लिये क्षीण हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि पृथ्वीराज के राज्य की दो धुरियां- अजमेर तथा दिल्ली एक राजनीतिक सूत्र में बंध गईं।

चंदेलों का दमन

अब पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमायें उत्तर में मुस्लिम सत्ता से, दक्षिण-पश्चिम में गुजरात से, पूर्व में चंदेलों के राज्य से जा मिलीं। चंदेलों के राज्य में बुन्देलखण्ड, जेजाकभुक्ति तथा महोबा स्थित थे। कहा जाता है कि एक बार चंदेलों के राजा परमारदी देव ने पृथ्वीराज के कुछ घायल सैनिकों को मरवा दिया। उनकी हत्या का बदला लेने के लिये पृथ्वीराज चौहान ने चंदेलों पर आक्रमण किया। उसने जब चंदेल राज्य को लूटना आरंभ किया तो परमारदी भयभीत हो गया। परमारदी ने अपने सेनापतियों आल्हा तथा ऊदल को पृथ्वीराज के विरुद्ध रणक्षेत्र में उतारा। तुमुल युद्ध के पश्चात् परमारदी के सेनापति परास्त हुए। आल्हा तथा ऊदल ने इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। उनके गुणगान सैंकड़ों साल से लोक गीतों में किये जाते हैं। आल्हा की गणना सप्त चिरंजीवियों में की जाती है। महोबा राज्य का बहुत सा भूभाग पृथ्वीराज चौहान के हाथ लगा। उसने अपने सामंत पंजुनराय को महोबा का अधिकारी नियुक्त किया।

ई.1182 के मदनपुर लेख के अनुसार पृथ्वीराज ने जेजाकभुक्ति के प्रवेश को नष्ट किया। सारंगधर पद्धति और प्रबंध चिंतामणि के अनुसार परमारदी ने मुख में तृण लेकर पृथ्वीराज से क्षमा याचना की। चंदेलों के राज्य की दूसरी तरफ की सीमा पर कन्नौज के गहरवारों का शासन था। माऊ शिलालेख के अनुसार महोबा और कन्नौज में मैत्री सम्बन्ध था। चंदेलों और गहड़वालों का संगठन, पृथ्वीराज के लिये सैनिक व्यय का कारण बन गया।

चौहान-चौलुक्य संघर्ष

पृथ्वीराज (तृतीय) के समय में चौहान-चौलुक्य संघर्ष एक बार पुनः उठ खड़ा हुआ। पृथ्वीराज ने आबू के सांखला परमार नरेश की पुत्री इच्छिना से विवाह कर लिया। इससे गुजरात का चौलुक्य राजा भीमदेव (द्वितीय) पृथ्वीराज से नाराज हो गया क्योंकि भीमदेव भी इच्छिना से विवाह करना चाहता था। डॉ. ओझा इस कथन को सत्य नहीं मानते क्योंकि ओझा के अनुसार उस समय आबू में धारावर्ष परमार का शासन था न कि सांखला परमार का।

पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज के चाचा कान्हड़देव ने भीमदेव के चाचा सारंगदेव के सात पुत्रों की हत्या कर दी। इससे नाराज होकर भीमदेव ने अजमेर पर आक्रमण कर दिया और सोमेश्वर चौहान की हत्या करके नागौर पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिये भीमदेव को युद्ध में परास्त कर मार डाला और नागौर पर पुनः अधिकार कर लिया। इन कथानकों में कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है क्योंकि सोमेश्वर की मृत्यु किसी युद्ध में नहीं हुई थी तथा भीमदेव (द्वितीय) ई.1241 के लगभग तक जीवित था।

चौहान-चालुक्य संघर्ष के फिर से उठ खड़े होने का कारण जो भी हो किंतु वास्तविकता यह भी थी कि चौहानों तथा चौलुक्यों के राज्यों की सीमायें मारवाड़ में आकर मिलती थीं। इधर पृथ्वीराज (तृतीय) और उधर भीमदेव (द्वितीय), दोनों ही महत्त्वाकांक्षी शासक थे। इसलिये दोनों में युद्ध अवश्यम्भावी था। खतरगच्छ पट्टावली में ई.1187 में पृथ्वीराज द्वारा गुजरात अभियान करने का वर्णन मिलता है। बीरबल अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। कुछ साक्ष्य इस युद्ध की तिथि ई.1184 बताते हैं। इस युद्ध में चौलुक्यों की पराजय हो गई। इस पर चौलुक्यों के महामंत्री जगदेव प्रतिहार के प्रयासों से चौहानों एवं चौलुक्यों में संधि हो गई। संधि की शर्तों के अनुसार चौलुक्यों ने पृथ्वीराज चौहान को काफी धन दिया।

खतरगच्छ पट्टावली के अनुसार अजमेर राज्य के कुछ धनी व्यक्ति जब इस युद्ध के बाद गुजरात गये तो गुजरात के दण्डनायक ने उनसे भारी राशि वसूलने का प्रयास किया। जब चौलुक्यों के महामंत्री जगदेव प्रतिहार को यह बात ज्ञात हुई तो उसने दण्डनायक को लताड़ा क्योंकि जगदेव के प्रयासों से चौलुक्यों एवं चौहानों के बीच संधि हुई थी और वह नहीं चाहता था कि यह संधि टूटे। इसलिये जगदेव ने दण्डनायक को धमकाया कि यदि तूने चौहान साम्राज्य के नागरिकों को तंग किया तो मैं तुझे गधे के पेट में सिलवा दूंगा। वि.सं.1244 के वेरवल से मिले जगदेव प्रतिहार के लेख में इससे पूर्व भी अनेक बार पृथ्वीराज से परास्त होना सिद्ध होता है। इस अभियान में ई.1187 में पृथ्वीराज चौहान ने आबू के परमार शासक धारावर्ष को भी हराया।

चौहान-गहड़वाल संघर्ष

जैसे दक्षिण में चौलुक्य चौहानों के शत्रु थे, वैसे ही उत्तर पूर्व में गहड़वाल चौहानों के शत्रु थे। जब पृथ्वीराज ने नागों, भण्डानकों तथा चंदेलों को परास्त कर दिया तो कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद्र में चौहानराज के प्रति ईर्ष्या जागृत हुई। कुछ भाटों के अनुसार दिल्ली के राजा अनंगपाल के कोई लड़का नहीं था अतः अनंगपाल तोमर ने दिल्ली का राज्य भी अपने दौहित्र पृथ्वीराज चौहान को दे दिया। अनंगपाल की दूसरी पुत्री का विवाह कन्नौज के राजा विजयपाल से हुआ था जिसका पुत्र जयचन्द हुआ। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) तथा जयचन्द मौसेरे भाई थे। जब अनंगपाल ने पृथ्वीराज को दिल्ली का राज्य देने की घोषणा की तो जयचन्द पृथ्वीराज का शत्रु हो गया और उसे नीचा दिखाने के अवसर खोजने लगा। पृथ्वीराज चौहान स्वयं तो सुन्दर नहीं था किन्तु उसमें सौन्दर्य बोध अच्छा था। उसने पांच सुन्दर स्त्रियों से विवाह किये जो एक से बढ़ कर एक रमणीय थीं।

पृथ्वीराज रासो के लेखक कवि चन्द बरदाई ने चौहान तथा गहड़वाल संघर्ष का कारण जयचंद की पुत्री संयोगिता को बताया है। कथा का सारांश इस प्रकार से है- पृथ्वीराज की वीरता के किस्से सुनकर जयचन्द की पुत्री संयोगिता ने मन ही मन उसे पति स्वीकार कर लिया। जब राजा जयचन्द ने संयोगिता के विवाह के लिये स्वयंवर का आयोजन किया तो पृथ्वीराज को आमन्त्रित नहीं किया गया। जयचंद ने पृथ्वीराज की लोहे की मूर्ति बनवाकर स्वंयवर शाला के बाहर द्वारपाल की जगह खड़ी कर दी। संयोगिता को जब इस स्वयंवर के आयोजन की सूचना मिली तो उसने पृथ्वीराज को संदेश भिजवाया कि वह पृथ्वीराज से ही विवाह करना चाहती है। पृथ्वीराज अपने विश्वस्त अनुचरों के साथ वेष बदलकर कन्नौज पंहुचा। संयोगिता ने प्रीत का प्रण निबाहा और अपने पिता के क्रोध की चिन्ता किये बिना, स्वयंवर की माला पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में डाल दी। जब पृथ्वीराज को संयोगिता के अनुराग की गहराई का ज्ञान हुआ तो वह स्वयंवर शाला से ही संयोगिता को उठा लाया। कन्नौज की विशाल सेना उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी। पृथ्वीराज के कई विश्वस्त और पराक्रमी सरदार कन्नौज की सेना से लड़ते रहे ताकि राजा पृथ्वीराज, कन्नौज की सेना की पकड़ से बाहर हो जाये। सरदार अपने स्वामी की रक्षा के लिए तिल-तिलकर कट मरे। राजा अपनी प्रेयसी को लेकर राजधानी को सुरक्षित पहुँच गया।

भाटों की कल्पना अथवा वास्तविकता

प्रेम, बलिदान और शौर्य की इस प्रेम गाथा को पृथ्वीराज रासो में बहुत ही सुन्दर विधि से अंकित किया है। सुप्रसिद्ध उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने अपने उपन्यास पूर्णाहुति में भी इस प्रेमगाथा को बड़े सुन्दर तरीके से लिखा है। रोमिला थापर, आर. एस. त्रिपाठी, गौरीशंकर ओझा आदि इतिहासकारों ने इस घटना के सत्य होने में संदेह किया है क्योंकि संयोगिता का वर्णन रम्भामंजरी में तथा जयचंद्र के शिलालेखों में नहीं मिलता। इन इतिहासकारों के अनुसार संयोगिता की कथा 16वीं सदी के किसी भाट की कल्पना मात्र है। दूसरी ओर सी. वी. वैद्य, गोपीनाथ शर्मा तथा डा. दशरथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने इस घटना को सही माना है।

रहस्यमय शासक

पृथ्वीराज चौहान का जीवन शौर्य और वीरता की अनुपम कहानी है। वह वीर, विद्यानुरागी, विद्वानों का आश्रयदाता तथा प्रेम में प्राणांे की बाजी लगा देने वाला था। उसकी उज्जवल कीर्ति भारतीय इतिहास के गगन में धु्रव नक्षत्र की भांति दैदीप्यमान है। आज आठ सौ साल बाद भी वह कोटि-कोटि हिन्दुओं के हदय का सम्राट है। उसे अन्तिम हिन्दू सम्राट कहा जाता है। उसके बाद इतना पराक्रमी हिन्दू राजा इस धरती पर नहीं हुआ। उसके दरबार में विद्वानों का एक बहुत बड़ा समूह रहता था। उसे छः भाषायें आती थीं तथा वह प्रतिदिन व्यायाम करता था। वह उदारमना तथा विराट व्यक्तित्व का स्वामी था। चितौड़ का स्वामी समरसी (समरसिंह) उसका सच्चा मित्र, हितैषी और शुभचिंतक था। पृथ्वीराज का राज्य सतलज नदी से बेतवा तक तथा हिमालय के नीचे के भागों से लेकर आबू तक विस्तृत था। जब तक संसार में शौर्य जीवित रहेगा तब तक पृथ्वीराज चौहान का नाम भी जीवित रहेगा। उसकी सभा में धार्मिक एवं साहित्यक चर्चाएं होती थीं। उसके काल में कार्तिक शुक्ला 10 वि.सं. 1239 (ई.1182) में अजमेर में खतरगच्छ के जैन आचार्य जिनपति सूरि तथा उपकेशगच्छ के आचार्य पद्मप्रभ के बीच शास्त्रार्थ हुआ। ई.1190 में जयानक ने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराज विजय’ की रचना की। डा. दशरथ शर्मा के अनुसार, अपने गुणों के आधार पर पृथ्वीराज चौहान योग्य व रहस्यमय शासक था।

शहाबुद्दीन गौरी द्वारा चौहान साम्राज्य पर आक्रमण

पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के बीच 21 लड़ाइयां हुईं जिनमें चौहान विजयी रहे। हम्मीर महाकाव्य ने पृथ्वीराज द्वारा सात बार गौरी को परास्त किया जाना लिखा है। पृथ्वीराज प्रबन्ध आठ बार हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का उल्लेख करता है। प्रबन्ध कोष का लेखक बीस बार गौरी को पृथ्वीराज द्वारा कैद करके मुक्त करना बताता है। सुर्जन चरित्र में 21 बार और प्रबन्ध चिन्तामणि में 23 बार गौरी का हारना अंकित है।

तराइन का प्रथम युद्ध

ई.1189 में मुहम्मद गौरी ने भटिण्डा का दुर्ग हिन्दुओं से छीन लिया। उस समय यह दुर्ग चौहानों के अधीन था। पृथ्वीराज उस समय तो चुप बैठा रहा किन्तु ई.1191 में जब मुहम्मद गोरी, तबरहिंद (सरहिंद) जीतने के बाद आगे बढ़ा तो पृथ्वीराज ने करनाल जिले के तराइन के मैदान में उसका रास्ता रोका। यह लड़ाई भारत के इतिहास में तराइन की प्रथम लड़ाई के नाम से जानी जाती है। युद्ध के मैदान में गौरी का सामना दिल्ली के राजा गोविंदराय से हुआ। गौरी ने गोविंदराय पर भाला फैंक कर मारा जिससे गोविंदराय के दो दांत बाहर निकल गये। गोविंदराय ने भी प्रत्युत्तर में अपना भाला गौरी पर देकर मारा। इस वार से गौरी बुरी तरह घायल हो गया और उसके प्राणों पर संकट आ खड़ा हुआ। यह देखकर एक खिलजी सैनिक उसे घोड़े पर बैठाकर मैदान से ले भागा। बची हुई फौज में भगदड़ मच गई। राजपूतों ने चालीस मील तक गौरी की सेना का पीछा किया। मुहम्मद गौरी लाहौर पहुँचा तथा अपने घावों का उपचार करके गजनी लौट गया। पृथ्वीराज ने आगे बढ़कर तबरहिंद का दुर्ग गौरी के सेनापति काजी जियाउद्दीन से छीन लिया। काजी को बंदी बनाकर अजमेर लाया गया जहाँ उससे विपुल धन लेकर उसे गजनी लौट जाने की अनुमति दे दी गई।

तराइन का द्वितीय युद्ध

गजनी पहुँचने के बाद पूरे एक साल तक मुहम्मद गौरी अपनी सेना में वृद्धि करता रहा। जब उसकी सेना में 1,20,000 सैनिक जमा हो गये तो 1192 ई. में वह पुनः पृथ्वीराज से लड़ने के लिये भारत की ओर चल दिया। इस बीच उसने अपनी सहायता के लिये कन्नौज के राजा जयचंद को भी अपनी ओर मिला लिया। हर बिलास शारदा के अनुसार कन्नौज के राठौड़ों तथा गुजरात के सोलंकियों ने एक साथ षड़यंत्र करके पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिये शहाबुद्दीन को आमंत्रित किया। गौरी को कन्नौज तथा जम्मू के राजाओं द्वारा सैन्य सहायता उपलब्ध करवाई गई।

संधि का छलावा

जब गौरी लाहौर पहुँचा तो उसने अपना दूत अजमेर भेजा तथा पृथ्वीराज से कहलवाया कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले और गौरी की अधीनता मान ले। पृथ्वीराज ने उसे प्रत्युत्तर भिजवाया कि वह गजनी लौट जाये अन्यथा उसकी भेंट युद्ध स्थल में होगी। मुहम्मद गोरी, पृथ्वीराज को छल से जीतना चाहता था। इसलिये उसने अपना दूत दुबारा अजमेर भेजकर कहलवाया कि वह युद्ध की अपेक्षा सन्धि को अच्छा मानता है इसलिये उसके सम्बन्ध में उसने एक दूत अपने भाई के पास गजनी भेजा है। ज्योंही उसे गजनी से आदेश प्राप्त हो जायेंगे, वह स्वदेश लौट जायेगा तथा पंजाब, मुल्तान एवं सरहिंद को लेकर संतुष्ट हो जायेगा।

इस संधि वार्ता ने पृथ्वीराज को भुलावे में डाल दिया। वह थोड़ी सी सेना लेकर तराइन की ओर बढ़ा, बाकी सेना जो सेनापति स्कंद के साथ थी, वह उसके साथ न जा सकी। पृथ्वीराज का दूसरा सेनाध्यक्ष उदयराज भी समय पर अजमेर से रवाना न हो सका। पृथ्वीराज का मंत्री सोमेश्वर जो युद्ध के पक्ष में न था तथा पृथ्वीराज के द्वारा दण्डित किया गया था, वह अजमेर से रवाना होकर शत्रु से जाकर मिल गया। जब पृथ्वीराज की सेना तराइन के मैदान में पहुँची तो संधि वार्ता के भ्रम में आनंद में मग्न हो गई तथा रात भर उत्सव मनाती रही। इसके विपरीत गौरी ने शत्रुओं को भ्रम में डाले रखने के लिये अपने शिविर में भी रात भर आग जलाये रखी और अपने सैनिकों को शत्रुदल के चारों ओर घेरा डालने के लिये रवाना कर दिया। ज्योंही प्रभात हुआ, राजपूत सैनिक शौचादि के लिये बिखर गये। ठीक इसी समय तुर्कों ने अजमेर की सेना पर आक्रमण कर दिया। चारों ओर भगदड़ मच गई। पृथ्वीराज जो हाथी पर चढ़कर युद्ध में लड़ने चला था, अपने घोड़े पर बैठकर शत्रु दल से लड़ता हुआ मैदान से भाग निकला। वह सिरसा के आसपास गौरी के सैनिकों के हाथ लग गया और मारा गया। गोविंदराय और अनेक सामंत वीर योद्धाओं की भांति लड़ते हुए काम आये।

सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हत्या

तराइन की पहली लड़ाई का अमर विजेता दिल्ली का राजा तोमर गोविन्दराज तथा चितौड़ का राजा समरसिंह भी तराइन की दूसरी लड़ाई में मारे गये। तुर्कों ने भागती हुई हिन्दू सेना का पीछा किया तथा उन्हें बिखेर दिया। पृथ्वीराज के अंत के सम्बन्ध में अलग-अलग विवरण मिलते हैं।

पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज का अंत गजनी में दिखाया गया है। इस विवरण के अनुसार पृथ्वीराज पकड़ लिया गया और गजनी ले जाया गया जहॉं उसकी आंखें फोड़ दी गईं। पृथ्वीराज का बाल सखा और दरबारी कवि चन्द बरदाई भी उसके साथ था। उसने पृथ्वीराज की मृत्यु निश्चित जानकर शत्रु के विनाश का कार्यक्रम बनाया। कवि चन्द बरदाई ने गौरी से निवेदन किया कि आंखें फूट जाने पर भी राजा पृथ्वीराज शब्द भेदी निशाना साध कर लक्ष्य वेध सकता है। इस मनोरंजक दृश्य को देखने के लिये गौरी ने एक विशाल आयोजन किया। एक ऊँचे मंच पर बैठकर उसने अंधे राजा पृथ्वीराज को लक्ष्य वेधने का संकेत दिया। जैसे ही गौरी के अनुचर ने लक्ष्य पर शब्द उत्पन्न किया, कवि चन्द बरदाई ने यह दोहा पढ़ा-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण

ता उपर सुल्तान है मत चूके चौहान।

गौरी की स्थिति का आकलन करके पृथ्वीराज ने तीर छोड़ा जो गौरी के कण्ठ में जाकर लगा और उसी क्षण उसके प्राण पंखेरू उड़ गये। शत्रु का विनाश हुआ जानकर और उसके सैनिकों के हाथों में पड़कर अपमानजनक मृत्यु से बचने के लिए कवि चन्द बरदाई ने राजा पृथ्वीराज के पेट में अपनी कटार भौंक दी और अगले ही क्षण उसने वह कटार अपने पेट में भौंक ली। इस प्रकार दोनों अनन्य मित्र वीर लोक को गमन कर गये। उस समय पृथ्वीराज की आयु मात्र 26 वर्ष थी। इतिहासकारों ने चंद बरदाई के इस विवरण को सत्य नहीं माना है क्योंकि इस ग्रंथ के अतिरिक्त इस विवरण की और किसी समकालीन स्रोत से पुष्टि नहीं होती।

हम्मीर महाकाव्य में पृथ्वीराज को कैद करना और अंत में उसको मरवा देने का उल्लेख है। विरुद्धविधिविध्वंस में पृथ्वीराज का युद्ध स्थल में काम आना लिखा है। पृथ्वीराज प्रबन्ध का लेखक लिखता है कि विजयी शत्रु पृथ्वीराज को अजमेर ले आये और वहाँ उसे एक महल में बंदी के रूप में रखा गया। इसी महल के सामने मुहम्मद गौरी अपना दरबार लगाता था जिसको देखकर पृथ्वीराज को बड़ा दुःख होता था। एक दिन उसने मंत्री प्रतापसिंह से धनुष-बाण लाने को कहा ताकि वह अपने शत्रु का अंत कर दे। मंत्री प्रतापसिंह ने उसे धनुष-बाण लाकर दे दिये तथा उसकी सूचना गौरी को दे दी। पृथ्वीराज की परीक्षा लेने के लिये गौरी की मूर्ति एक स्थान पर रख दी गई जिसको पृथ्वीराज ने अपने बाण से तोड़ दिया। अंत में गौरी ने पृथ्वीराज को गड्ढे में फिंकवा दिया जहाँ पत्थरों की चोटों से उसका अंत कर दिया गया।

दो समसामयिक लेखक यूफी तथा हसन निजामी पृथ्वीराज को कैद किया जाना तो लिखते हैं किंतु निजामी यह भी लिखता है कि जब बंदी पृथ्वीराज जो इस्लाम का शत्रु था, सुल्तान के विरुद्ध षड़यंत्र करता हुआ पाया गया तो उसकी हत्या कर दी गई। मिनहाज उस सिराज उसके भागने पर पकड़ा जाना और फिर मरवाया जाना लिखता है। फरिश्ता भी इसी कथन का अनुमोदन करता है। अबुल फजल लिखता है कि पृथ्वीराज को सुलतान गजनी ले गया जहाँ पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई।

उपरोक्त सारे विवरणों में से केवल यूफी और निजामी समसामयिक हैं, शेष लेखक बाद में हुए हैं किंतु यूफी और निजामी पृथ्वीराज के अंत के बारे में अधिक जानकारी नहीं देते। निजामी लिखता है कि पृथ्वीराज को कैद किया गया तथा किसी षड़यंत्र में भाग लेने का दोषी पाये जाने पर मरवा दिया गया। यह विवरण पृथ्वीराज प्रबन्ध के विवरण से मेल खाता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पृथ्वीराज को युद्ध क्षेत्र से पकड़कर अजमेर लाया गया तथा कुछ दिनों तक बंदी बनाकर रखने के बाद अजमेर में ही उसकी हत्या की गई।

मुहम्मद गौरी की सेनाओं द्वारा अजमेर का विध्वंस

ई.1192 में शहाबुद्दीन गौरी के समकालीन लेखक हसन निजामी ने अपनी पुस्तक ताजुल मासिर में अजमेर नगर का वर्णन करते हुए इसकी मिट्टी, हवा, पानी, जंगल तथा पहाड़ों की तुलना स्वर्ग से की है। शहाबुद्दीन गौरी ने इस स्वर्ग को तोड़ दिया। शहाबुद्दीन की सेनाओं ने अजमेर नगर में विध्वंसकारी ताण्डव किया। नगर में स्थित अनेक मन्दिर नष्ट कर दिये। बहुत से देव मंदिरों के खम्भों एवं मूर्तियों को तोड़ डाला। वीसलदेव द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला एवं सरस्वती मंदिर को तोेड़ कर उसके एक हिस्से को मस्जिद में बदल दिया। यह भवन उस समय धरती पर स्थित सुंदरतम भवनों में से एक था किंतु इस विंध्वस के बाद यह विस्मृति के गर्त में चला गया तथा छः सौ साल तक किसी ने इसकी सुधि नहीं ली। उन दिनों अजमेर में इन्द्रसेन जैनी का मंदिर हुआ करता था। गौरी की सेनाओं ने उसे नष्ट कर दिया। शहाबुद्दीन गौरी ने अजमेर के प्रमुख व्यक्तियों को पकड़कर उनकी हत्या कर दी।

भारत के इतिहास का प्राचीन काल समाप्त

ई.1192 में चौहान पृथ्वीराज (तृतीय) की मृत्यु के साथ ही भारत का इतिहास मध्यकाल में प्रवेश कर जाता है। इस समय भारत में दिल्ली, अजमेर तथा लाहौर प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे। ये तीनों ही मुहम्मद गौरी और उसके गवर्नरों के अधीन जा चुके थे।

गोविंदराज चौहान

पृथ्वीराज को मारने के बाद शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज चौहान के अवयस्क पुत्र गोविन्दराज से विपुल कर राशि लेकर गोविंदराज को अजमेर की गद्दी पर बैठाया। गोविंदराज को अजमेर का राज्य सौंपने के बाद शहाबुद्दीन गौरी कुछ समय तक अजमेर में रहकर दिल्ली को लौट गया।

मुहम्मद गौरी द्वारा कन्नौज पर आक्रमण

पृथ्वीराज को परास्त करने के बाद मुहम्मद गौरी ने 1194 ई. में कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद्र पर आक्रमण किया। चंदावर के मैदान में दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। गौरी की पराजय होने ही वाली थी कि जयचंद्र को अचानक कुतुबुद्दीन का एक तीर लगा जिससे जयचंद्र की मृत्यु हो गई। उसके मरते ही हिन्दू सेना भाग खड़ी हुई। इस युद्ध से गौरी को अपार धनराशि प्राप्त हुई। कन्नौज पर अधिकार करने के बाद गौरी ने बनारस पर भी अधिकार कर लिया। उसने कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में अपने द्वारा विजित क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किया। इसके पश्चात वह गजनी को लौट गया।

राजपूतों की पराजय के कारण

राजपूत जाति भारत की सबसे वीर तथा साहसी जाति थी जो रणप्रिय तथा युद्धकुशल भी थी परन्तु जब भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए तब वह उन्हें रोक न सकी और देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता की रक्षा न कर सकी। आठवीं शताब्दी ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय राजपूतों की विफलता का जो सिलसिला आरंभ हुआ वह ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में महमूद गजनवी के 17 आक्रमणों तथा बारहवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में आरंभ हुए मुहम्मद गौरी के आक्रमणों में लगातार जारी रहा। राजपूतों की पराज के कई कारण थे-

(1) राजनीतिक एकता का अभाव: जिन दिनों भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए उन दिनों भारत में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था। देश के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई थी और देश में कोई ऐसी प्रबल केन्द्रीय शक्ति न थी, जो विदेशी आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘सम्पूर्ण देश अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों में विभक्त था जो सदैव एक दूसरे से लड़ा करते थे, उनमें एकता और संगठन की कमी थी।’

(2) पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष: छोटे-छोटे राजपूत राज्यों में परस्पर सद्भावना तथा सहयोग का सर्वथा अभाव था। वे एक दूसरे से ईर्ष्या-द्वेष रखते थे और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए उद्यत रहते थे। इनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था, जिससे उनकी श्क्ति क्षीण होती जा रही थी। आन्तरिक कलह के कारण वे आपत्ति काल में भी शत्रु के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा उपस्थित न कर सके और एक-एक करके शत्रु के समक्ष धराशायी हो गये। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘हिन्दुओं की राजनीतिक व्यवस्था प्राचीन आदर्शों से गिर चुकी थी और पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष तथा झगड़ों से उनकी शक्ति क्षीण हो गई थी। गर्व तथा विद्वेष के कारण वे एक नेता की आज्ञा का पालन नहीं कर पाते थे और संकट काल में भी जब विजय प्राप्त करने के लिए संयुक्त मोर्चे की आवश्यकता पड़ती थी, वे अपनी व्यक्तिगत योजनाओं को कार्यान्वित करते रहते थे। शत्रु के विरुद्ध जो सुविधाएँ उन्हें प्राप्त रहती थीं उनसे कोई लाभ नहीं उठा पाते थे।’

(3) सीमा नीति का अभाव: राजपूतों ने देश की सीमा की सुरक्षा के लिये कोई व्यवस्था नहीं की। इससे शत्रु को भारत में प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। उत्तर-पश्चिमी सीमा की न तो कोई किलेबन्दी की गई और न वहाँ पर कोई सेना रखी गई। सीमान्त प्रदेश के छोटे-छोटे राज्य मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके। राजपूतों की इस उदासीनता पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय राज्यों का कोई सतर्क विदेशी कार्यालय न था और न उन्होंने सीमा की सुरक्षा की कोई व्यवस्था ही की और न हिन्दूकुश के उस पार जो राज्य थे उनकी शक्ति, साधन अथवा राज्य विस्तार को जानने का प्रयत्न ही किया गया।’

(4) राजपूतों का रक्षात्मक युद्ध: सीमा की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण शत्रु सरलता से देश में प्रवेश कर जाते थे, इस कारण राजपूतों को रक्षात्मक युद्ध करना पड़ता था और समस्त युद्ध भारत भूमि पर ही होते थे। इसका परिणाम यह होता था कि विजय चाहे जिस दल की हो, क्षति भारतीयों को ही उठानी पड़ती थी। उनकी कृषि तथा सम्पत्ति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती थी।

(5) राजपूतों की सैनिक दुर्बलताएँ: राजपूतों में अनेक सैनिक दुर्बलताएँ थीं, जिससे वे मुसलमानों के विरुद्ध सफल नहीं हो सके। राजपूतों की सैनिक दुर्बलताओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूतों की सैनिक व्यवस्था पुराने ढंग की थी। जब उन्हें भयानक तथा सुशिक्षित घुुड़सवारों के नताओं से लड़ना पड़ा तब उनका हाथियों पर निर्भर रहना उनके लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। यद्यपि हिन्दुओं को उनके अनुभव ने अनेक बार चेतावनी दी परन्तु हिन्दू सैनिकों ने निरन्तर इसकी उपेक्षा की और पुराने ढंग से ही युद्ध करते रहे।’

उनकी पहली दुर्बलता यह थी कि उनकी सेना में पैदल सैनिकों की संख्या अत्यधिक होती थी, जिससे उसका तीव्र गति से संचालन करना कठिन हो जाता था और वह मुस्लिम अश्वारोहियों के सामने ठहर नहीं पाती थी। राजपूत लोग तलवार, भाले आदि से लड़ते थे, जो मुस्लिम तीरन्दाजों के सामने ठहर नहीं पाते थे। राजपूत योद्धा अपने हाथियों को प्रायः अपनी सेना के आगे रखते थे। यदि ये हाथी बिगड़ कर घूम पड़ते थे, तो अपनी ही सेना को रौंद डालते थे। विदेशों के साथ कोई सम्बन्ध न रखने के कारण राजपूत नवीन रण-पद्धतियों से भी अनभिज्ञ थे। राजपूत सेनापति केवल सेना का संचालन हीं नहीं करते थे वरन् स्वयं लड़ते भी थे और अपनी रक्षा की चिन्ता नहीं करते थे। इस कारण सेनापति के घायल हो जाने पर सारी सेना भाग खड़ी होती थी। राजपूत अपनी सारी सेना को एक साथ जमा करते थे। इससे सुरक्षा की कोई दूसरी पंक्ति नहीं रह जाती थी।

(6) कूटनीति का अभाव: राजपूतों में कूटनीतिज्ञता भी नहीं थी। वे सदैव धर्मयुद्ध करने के लिए उद्यत रहते थे और छल-बल का प्रयोग नहीं करते थे। उनके युद्ध आदर्श उनके लिए बड़े घातक सिद्ध हुए। वे संकट में पड़ने पर पीठ नहीं दिखाते थे और युद्ध करके मर जाते थे। इससे राजपूतों को बड़ी क्षति उठानी पड़ती थी। चूंकि राजपूत योद्धा छल-कपट में विश्वास नहीं करते थे, इसलिये वे प्रायः अपने शत्रुओं के जाल में फँस जाते थे।

(7) गुप्तचर व्यवस्था का अभाव: भारत के राजपूत शासकों ने चाणक्य द्वारा स्थापित गुप्तचर व्यवस्था की उपेक्षा की। उन्होंने अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में गुप्तचरों की नियुक्ति नहीं की। इसके कारण उन्हें शत्रुओं की गतिविधियों की पहले से जानकारी नहीं हो पाती थी। न ही उन्हें शत्रु की शक्ति का वास्तविक ज्ञान होता था। न वे शत्रुओं द्वारा रचे जा रहे षड़यंत्रों का अनुमान लगा पाते थे। इस कारण राजपूत सदैव पराजित होते रहे।

(8) सैनिकों का सीमित निर्वाचन क्षेत्र: भारत में केवल राजपूत ही सैनिकवृत्ति धारण करते थे। अन्य जातियाँ इससे वंचित थीं। राजपूतों की युद्ध में निरन्तर क्षति होने से उनकी संख्या में उत्तरोत्तर कमी होती गई। राजपूत नवयुकों के विनाश की पूर्ति अन्य जातियों के नवयुवकों से नहीं की जा सकी और राजपूत सेना दुर्बल हो गई। इस सम्बन्ध में डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘हिन्दुओं की राजनीतिक व्यवस्था में सैनिक सेवा एक ही वर्ग तक सीमित थी, जिसके फलस्वरूप साधारण जनता या तो सैनिक सेवा के अयोग्य हो गयी या उन राजनीतिक क्रान्तियों की ओर से उदासीन हो गई, जिन्होंने भारतीय समाज की जड़ों को हिला दिया।’

(9) मुसलमानों की सैनिक सबलता: कई दृष्टिकोणों से मुसलमानों में भारतीयों से अधिक सैनिक गुण थे। मुसलमानों की सेना में अश्वारोहियों की अधिकता रहती थी, जो बड़ी तीव्र गति से आक्रमण करते थे। ये अश्वारोही कुशल तीरंदाज होते थे। और अपनी बाण-वर्षा से भारतीय हाथियों की सेना को खदेड़ देते थे। मुसलमानों की व्यूहरचना भी अधिक उत्तम होती थी। उनमें नेतृत्व की कमी नहीं थी। उनके सेनापति रण कुशल थे और प्रायः छल-बल का प्रयोग करते थे। मुसलमान इस्लाम के प्रचार तथा लूट के लिए लड़ते थे इसलिये उनमें उत्साह भी अधिक रहता था।

(10) पृथ्वीराज चौहान की अदूरदर्शिता: पृथ्वीराज चौहान ने तराइन के पहले युद्ध में गौरी को पकड़ कर जीवित ही छोड़ दिया। इसे वह अपनी राजपूती शान समझता था किंतु वास्तविकता यह थी कि उसने मुहम्मद गौरी के खतरे को ठीक से समझा ही नहीं। उसने गौरी के प्रति उदासीन रहकर चौलुक्यों एवं गहड़वालों को अपना शत्रु बना लिया जिन्होंने षड़यंत्र करके मुहम्मद गौरी को भारत आक्रमण के लिये आमंत्रित किया। तराइन के दूसरे युद्ध से पहले पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेनापतियों को भी अपना शत्रु बना लिया था। उसकी सेना का एक बड़ा भाग सेनापति स्कंद के साथ था, वह युद्ध के मैदान में पहुंचा ही नहीं। पृथ्वीराज का दूसरा सेनाध्यक्ष उदयराज भी समय पर अजमेर से रवाना नहीं हुआ। पृथ्वीराज का मंत्री सोमेश्वर युद्ध के पक्ष में नहीं था। उसे पृथ्वीराज के द्वारा दण्डित किया गया था, इसलिये वह अजमेर से रवाना होकर शत्रु से जा मिला।

(11) मुस्लिम आक्रांताओं के दोहरे उद्देश्य: मुहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनवी तथा मुहम्मद गौरी के भारत आक्रमण के दोहरे उद्देश्यों ने उन्हें मजबूती प्रदान की तथा सफलता दिलवाई। उनका पहला उद्देश्य भारत की अपार सम्पदा को लूटना था जिसमें से सैनिकों को भी हिस्सा मिलता था। इस कारण अफगानिस्तान, गजनी तथा गौर आदि अनुपजाऊ प्रदेशों के सैनिक भारत पर आक्रमण करने के लिये लालयित रहते थे। मुस्लिम आक्रांताओं का दूसरा उद्देश्य भारत में मूर्ति पूजा को नष्ट करके इस्लाम का प्रचार करना था। मुस्लिम सैनिक भी इस कार्य को अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे इसलिये वे प्राण-पण से अपने सेनापति अथवा सुल्तान का साथ देते थे।

मुहम्मद गौरी के भारत आक्रमणों के परिणाम

मुहम्मद गौरी द्वारा 1175 ई. से 1194 ई. तक की अवधि में भारत पर कई आक्रमण किये गये। इन आक्रमणों के गहरे परिणाम सामने आये जिनमें से प्रमुख इस प्रकार से हैं-

1. मुहम्मद गौरी द्वारा 1175 ई. से 1182 ई. की अवधि में भारत पर किये गये विभिन्न आक्रमणों में पंजाब तथा सिंध के विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया गया।

2. 1192 ई. में हुई तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी को भारी विजय प्राप्त हुई। इससे अजमेर, दिल्ली, हांसी, सिरसा, समाना तथा कोहराम के क्षेत्र मुहम्मद गौरी के अधीन हो गये।

3. तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज की हार से हिन्दू धर्म की बहुत हानि हुई। मन्दिर एवम् पाठशालायें ध्वस्त कर अग्नि को समर्पित कर दी गईं। हजारों-लाखों ब्राह्मण मौत के घाट उतार दिये गये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया गया।

4. इस युद्ध में हजारों हिन्दू योद्धा मारे गये। इससे चौहानों की शक्ति नष्ट हो गईं। हिन्दू राजाओं का मनोबल टूट गया।

5. जैन साधु उत्तरी भारत छोड़कर नेपाल तथा तिब्बत आदि देशों को भाग गये।

6. देश की अपार सम्पति म्लेच्छों के हाथ लगी। उन्हांेने पूरे देश में भय और आतंक का वातावरण बना दिया जिससे पूरे देश में हाहाकार मच गया।

7. भारत में दिल्ली, अजमेर तथा लाहौर प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे और ये तीनों ही मुहम्मद गौरी और उसके गवर्नरों के अधीन जा चले गये।

8. मुहम्मद गौरी ने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का गवर्नर नियुक्त किया। जिससे दिल्ली में पहली बार मुस्लिम सत्ता की स्थापना हुई। भारत की हिन्दू प्रजा मुस्लिम सत्ता की गुलाम बनकर रहने लगी।

9. 1194 ई. में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के बाद कन्नौज से गहरवारों की सत्ता सदा के लिये समाप्त हो गई और इस वंश के शासक कन्नौज छोड़कर मरुभूमि में चले गये।

10. कुछ समय बाद मुहम्मद गौरी ने बनारस पर भी अधिकार करके वहां अपना गवर्नर नियुक्त कर दिया।

मुहम्मद गौरी के अंतिम दिन

मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी अब तक अपने बड़े भाई गयासुद्दीन गौरी के अधीन शासन कर रहा था। 1203 ई. में गयासुद्दीन गौरी की मृत्यु हो गई तथा मुहम्मद गौरी स्वतंत्र शासक बन गया। 1205 ई. में मुहम्मद गौरी को ख्वारिज्म के बादशाह के हाथों अपमानजनक पराजय का सामना करना पड़ा। 1206 ई. में मुहम्मद गौरी पंजाब में हुए खोखर विद्रोह को दबाने के लिये भारत आया। जब इस विद्रोह का दमन करके वह वापस गौर को लौट रहा था, मार्ग में झेलम के किनारे एक खोखर सैनिक ने उसकी हत्या कर दी। इस समय तक मुहम्मद गौरी निःसंतान था। इसलिये उसके गुलामों एवं उसके रक्त सम्बन्धियों में उसके साम्राज्य पर अधिकार करने को लेकर झगड़ा हुआ। अंत में उसके गुलाम ताजुद्दीन याल्दुज ने गजनी पर कब्जा कर लिया जबकि भारत के क्षेत्रों को कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने अधिकार में ले लिया।

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