Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 9 – वैदिक सभ्यता एवं साहित्य (अ)

न मुझे दाहिने का ज्ञान है और न बाएं, न मैं पूर्व दिशा को जानता हूँ और न पश्चिम को। मेरी बुद्धि परिपक्व नहीं है, मैं हताश तथा व्याकुल हूँ। यदि आप मेरा पथ प्रदर्शन करें तो मुझे इस प्रसिद्ध अभय ज्योति का ज्ञान हो जाएगा।                

-नासदीय सूक्त, ऋग्वेद।

प्राचीन आर्यों की बस्तियां यूरोप से लेकर मध्य एशिया एवं भारत में सप्त-सिंधु प्रदेश तथा सरस्वती के तट तक पाई गई हैं किंतु आर्यों की सभ्यता का इतिहास निश्चत रूप से इन बस्तियों से भी पुराना है। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य ई.पू. 2500 से मिलना आरम्भ हो जाता है किंतु संभव है कि भारत में आर्य इस अवधि से भी पहले से रह रहे हों।

प्राचीन आर्य संस्कृति के बारे में जानने के दो तरह के स्रोत उपलब्ध हैं-

(1.) पुरातत्त्व सामग्री: मृदभाण्ड, मुद्राएं, अस्त्र-शस्त्र, भवनावशेष आदि।

(2.) वैदिक साहित्य: वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र।

वैदिक-काल

वैदिक-काल, उस काल को कहते हैं जिसमें आर्यों ने वैदिक ग्रन्थों की रचना की। ये ग्रन्थ एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और इनका क्रमिक विकास हुआ है। सबसे पहले ऋग्वेद तथा उसके बाद अन्य वेदों की रचना हुई। वेदों की रचना के बाद उनकी व्याख्या करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थ रचे गए। वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों की संख्या और उनका स्वरूप जब इतना विशाल हो गया कि उन्हें कंठस्थ करना कठिन हो गया तो उन्हें संक्षिप्त स्वरूप देने के लिए सूत्रों की रचना हुई।

इस सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की रचना में सहस्रों वर्ष लगे। विद्वानों की मान्यता है कि वैदिक साहित्य की रचना ई.पू.4,000 से ई.पू.600 के बीच हुई। इसलिए इस काल को वैदिक-काल कहा जाता है तथा इस काल की आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा जाता है।

वैदिक सभ्यता का काल विभाजन

वैदिक-काल को दो भागों में विभक्त किया गया है-

(1) ऋग्वैदिक-सभ्यता ( ई.पू.4,000 से ई.पू.1000 ): चारों वेदों में ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। इसलिए ऋग्वेद की सभ्यता सर्वाधिक पुरानी है। ऋग्वेद के रचनाकाल के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। पी. वी. काणे आदि कुछ विद्वान इस ग्रंथ को ई.पू.4000 से ई.पू.2500 के बीच रचा गया मानते हैं तो मैक्समूलर आदि विद्वान इसका रचना काल ई.पू.2500 से ई.पू.1000 के बीच मानते हैं। ऋग्वेद काल में आर्य लोग सप्त-सिन्धु क्षेत्र (सिन्धु, सरस्वती, परुष्णी, वितस्ता, शतुद्रि, अस्किनी, विपाशा नदियों का क्षेत्र) में निवास करते थे। इस काल की सभ्यता को ऋग्वैदिक सभ्यता कहते हैं।

(2) उत्तर-वैदिक सभ्यता (ई.पू.1000 से ई.पू.600): उत्तर-वैदिक काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् रचे गए। इनमें से अथर्ववेद की रचना ई.पू.1000 के आसपास हुई जबकि ब्राह्मण-ग्रंथ एवं आरण्यक ई.पू.600 तक रचे जाते रहे। उपनिषदों की रचना ई.पू. से ई.पू. के बीच हुई। इस काल में आर्य सभ्यता सरस्वती, दृशद्वती तथा गंगा नदियों के मध्य की भूमि में पहुँच गई थी और आर्यों ने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे। इस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र था। उत्तर-वैदिक-काल के आर्यों की सभ्यता का यहीं विकास हुआ। यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद की रचना इसी क्षेत्र में हुई। उत्तर-वैदिक-काल में ऋग्वैदिक सभ्यता का क्रमशः विकास होता गया और इसमें अनेक परिवर्तन होते चले गए।

सूत्रकाल

उत्तर-वैदिक ग्रंथों की रचना सूत्र-ग्रंथों की रचना के आरम्भ होने के साथ समाप्त होती है। सूत्रों की रचना ई.पू.600 से ई.पू.200 तक हुई। इस अवधि को सूत्रकाल कहा जाता है।

वैदिक साहित्य

वैदिक ग्रन्थों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1.) वेद अथवा संहिता (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद), (2.) ब्राह्मण-ग्रंथ (ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद), (3.) सूत्र (श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र)। प्रथम दो अर्थात् संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों को श्रुति भी कहा गया है। श्रुति का अर्थ है जो सुना गया हो। प्राचीन आर्यों का विश्वास था कि संहिता और ब्राह्मण किसी मनुष्य की कृति नहीं थे। उनमें दिए गए उपदेशों को ऋषियों तथा मुनियों ने ब्रह्मा के मुख से सुना था। इसी से इन ग्रन्थों को श्रुति कहा जाता है।

इन ग्रन्थों में दिए गए उपदेश ब्रह्म-वाक्य हैं इसलिए वे सर्वथा सत्य हैं। उन पर संदेह नहीं किया जा सकता। संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों में जो उपदेश दिए गए हैं वे बहुत लम्बे हैं। अतः आर्य-विद्वानों ने जन-साधारण के लिए उपदेशों को संक्षेप में छोटे-छोटे वाक्यों में लिख दिया। इन्हीं रचनाओं को ‘सूत्र’ कहते हैं। सूत्र का अर्थ है- ‘संक्षेप में कहना।’ इन ग्रन्थों में बड़ी-बड़ी बातें संक्षेप में लिखी गई हैं इसलिए इन्हें सूत्र कहा गया।

(1.) वेद अथवा संहिता

वेद संस्कृत की विद् धातु से निकला है जिसका अर्थ है- जानना अथवा ज्ञान प्राप्त करना। वेद उन ग्रन्थों को कहते हैं जो ज्ञान की प्राप्ति के एकमात्र साधन समझे जाते थे। वेद-वाक्य ब्रह्म-वाक्य होने के कारण चिरन्तन सत्य थे और उनके अनुसार जीवन व्यतीत करने से इहलोक तथा परलोक दोनों ही सुधरता था। अर्थात् इस संसार में सुख की प्राप्ति होती थी और मृत्यु हो जाने पर मोक्ष मिलता था। वेदों का भारतीयों के जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है। वेद भारतीय धर्म और संस्कृति का शाश्वत और अक्षय कोष हैं।

 वेदों को संस्कृत-साहित्य की जननी कहा जाता है। सिन्धु-घाटी की सभ्यता भारत की प्राचीनतम सभ्यता थी तथा आर्य-सभ्यता का निर्माण वैदिक आर्यों द्वारा किया गया था। वेदों को हम भारतीय समाज का प्राण कह सकते हैं जिसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता था। वेदों के उपरान्त जितने साहित्य लिखे गए उन सब का आधार वेद ही है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। प्राचीन आर्यों द्वारा  केवल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद की रचना की गई। इन्हें सम्मिलित रूप से ‘वेद-त्रयी’ अथवा ‘त्रयी’ कहा गया। अथर्ववेद बहुत बाद का है जो सबसे अन्त में लिखा गया।

प्रारम्भ में वेदों का पठन-पाठन मौखिक था। विभिन्न आश्रमों के ऋषि-मुनि अपने-अपने ढंग से इनका पाठ करते थे। इस कारण विभिन्न पाठ-परम्पराएँ चल पड़ीं। गुरु-शिष्य परम्परा एवं पिता-पुत्र परम्परा द्वारा ये मंत्र ऋषि कुलों में स्थिर रहते थे और श्रुति द्वारा शिष्य, गुरु से या पुत्र, पिता से जानता था। इस कारण  उन्हें श्रुति भी कहा जाता था।

 विविध ऋषिकुलों में जो विविध सूक्त, श्रुति द्वारा चले आते थे, धीरे-धीरे उन्हें संकलित किया जाने लगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का प्रधान श्रेय महाभारत कलीन महर्षि वेदव्यास को है। उन्होंने वैदिक सूक्तों को एकत्रित करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद को संहिता बद्ध किया। जब वेदों को लिखित रूप में संहिताबद्ध कर दिया गया तब इन्हें ‘संहिता’ कहा जाने लगा। संहिता का अर्थ होता है- संग्रह। चूँकि इन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है, इसलिए इन्हें संहिता कहा गया।

(1.) ऋग्वेद: यह दो शब्दों से मिलकर बना है- ऋक् तथा वेद। ऋक् का अर्थ होता है स्तुति-मन्त्र। स्तुति-मन्त्र को ऋचा भी कहते हैं। जिस वेद में स्तुति मन्त्रों अर्थात् ऋचाओं का संग्रह किया गया है उसे ऋग्वेद कहते हैं। सूर्य, वायु, अग्नि आदि ऋग्वेद के प्रधान देवता हैं। इसलिए ये ऋचाएँ इन्हीं देवताओं की स्तुति में लिखी गयीं। ऋचाओं का संग्रह किसी एक ऋषि ने नहीं किया। वरन् वे विभिन्न ऋषियों द्वारा विभिन्न समय में संकलित की गईं। ऋग्वेद दस मण्डलों अथवा भागों में विभक्त है।

प्रत्येक मण्डल कई अनुवाकों में विभक्त है। अनुवाक् का अर्थ होता है जो बाद में कहा गया है। चूँकि इनका स्थान मण्डल के बाद है, इसलिए इन्हें अनुवाक् कहा गया है। प्रत्येक अनुवाक् कई सूक्तों में विभक्त है। सूक्त का अर्थ होता है अच्छी उक्ति अर्थात् जो अच्छी प्रकार कहा गया हो। ऋग्वेद में 10 मण्डल हैं जिनमें 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त कई ऋचाओं अर्थात् स्तुति-मन्त्रों में विभक्त है, ऋचाओं की कुल संख्या 10,580 है।

प्रत्येक सूक्त के साथ किसी ऋषि और देवता का नाम भी मिलता है। वस्तुतः ऋषि ही उस सूक्त का रचयिता होता था। इस प्रकार के ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्धाज और वशिष्ठ के नाम उल्लेखनीय हैं। मंत्र रचयिता ऋषियों में कुछ स्त्रियों के नाम भी हैं जिनमें लोपामुद्रा, घोषा, शची, पौलोमी और काक्षवृति के नाम उल्लेखनीय हैं। पहले, नौवें तथा दसवें मण्डल के प्रत्येक सूक्त के रचनाकार अलग-अलग ऋषि हैं। सम्भवतः ये ऋषि वैदिक सूक्तों के मूल लेखकों के पुराण पुरुष हैं।

नौवें मण्डल के सूक्त केवल सोम से सम्बद्ध हैं। कहीं-कहीं मण्डल के स्थान पर अष्टक शब्द का प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद के अधिकांश सूक्त देव-स्तुति और प्रार्थना रूप में हैं तथा यज्ञ और कर्मकाण्ड प्रधान हैं। यज्ञों में सुगन्धित सामग्री की आहुति देकर आर्य ऋषि, देवताओं से लम्बी आयु, पुत्र-पौत्र और धन-धान्य की प्राप्ति तथा शत्रुओं का विनाश करने की प्रार्थना करते थे।

ऋग्वेद आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी रचना सम्भवतः 4,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक के काल में हुई थी। यद्यपि ऋग्वेद स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है जिनका प्रधानतः धार्मिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व है तथापि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी इसका बहुत बड़ा महत्त्व है क्योंकि इस काल का इतिहास जानने के लिए यही ग्रन्थ एकमात्र साधन है। कुछ मन्त्रों से आर्यों के पारस्परिक तथा अनार्यों से किए गए युद्धों का पता लगता है। यह भारत ही नही, वरन् विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी प्राचीनता के कारण ही भारत का मस्तक विश्व की समस्त संस्कृतियों में सबसे ऊँचा है। इसकी रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई।

मैक्समूलर ने लिखा है- ‘विश्व के इतिहास में वेद उस रिक्त स्थान की पूर्ति करता है जिसे किसी भी भाषा का कोई भी साहित्यिक ग्रन्थ नहीं भर सकता। यह हमें अतीत के उस काल में पहुँचा देता है जिसका कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता और उस पीढ़ी के लोगों के वास्तविक शब्दों से परिचित करा देता है जिसका हम इसके अभाव में केवल धुधंला ही मूल्यांकन कर सकते थे।’

(2.) यजुर्वेद: यह दो शब्दों से मिलकर बना है- यजुः तथा वेद। यज् शब्द का अर्थ होता है यजन करना। यजुः उन मन्त्रों को कहते थे जिसके द्वारा यजन अथवा पूजन किया जाता था अर्थात् यज्ञ किए जाते थे। इसलिए यजुर्वेद उस वेद को कहते हैं जिसमें यज्ञों का विधान है। मूलतः यह कर्म-काण्ड प्रधान ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में बलि की प्रथा, उसकी महत्ता तथा विधियों का वर्णन है। यजुर्वेद में सूक्तों के साथ-साथ अनुष्ठान भी हैं जिन्हें सस्वर पाठ करते जाने का विधान है। ये अनुष्ठान अपने समय की उन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के परिचायक हैं जिनमें इनका उद्गम हुआ था।

यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। पहला भाग शुक्ल यजुर्वेद कहलाता है जो स्वतन्त्र रूप से लिखा गया है और दूसरा भाग कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है जिसमें पूर्व साहित्य का संकलन है। शुक्ल यजुर्वेद को ‘वाजसनेयी संहिता’ भी कहते है। पाठ भेद के कारण इसकी दो शाखाएँ है- ‘कृण्व’ और ‘माध्यन्दनीय’।

कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं का उल्लेख मिलता है- काठक संहिता, कपिष्ठक संहिता, मैत्रेयी संहिता और तैतिरीय संहिता। इन सब में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें चालीस अध्याय हैं जिनमें से प्रत्येक का सम्बन्ध किसी न किसी याज्ञिक अनुष्ठान से है। अन्तिम अध्याय ‘इशोपनिषद’ है जिसका सम्बन्ध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर अध्यात्म चिन्तन से है।

यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुए थी। इस वेद की ऐतिहासिक उपयोगिता भी है। इसमें आर्यों के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन की झांकी मिलती है। इस वेद से ज्ञात होता है कि अब आर्य, सप्त-सिन्धु से कुरुक्षेत्र में चले आए थे तथा अब प्रकृति-पूजा की उपेक्षा होने लगी थी और वर्ण-व्यवस्था का प्रादुर्भाव हो गया था। इस प्रकार यजुर्वेद, ऋग्वैदिक-काल के बाद, आर्यों के जीवन में आए परिवर्तनों को भी प्रकट करता है।

(3.) सामवेद: साम के दो अर्थ होते हैं- शान्ति तथा गीत। यहाँ पर साम का अर्थ है गीत। इसलिए सामवेद का अर्थ हुआ वह वेद जिसके पद गेय हैं और जो संगीतमय हैं। सामवेद में केवल 66 मन्त्र नए हैं। शेष मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। सामवेद के मन्त्र गेय होने के कारण मन को शान्ति देते हैं। यज्ञादि अवसरों पर इन मन्त्रों का पाठ किया जाता है। पाठ-भेद के कारण इसकी तीन  शाखाएँ हैं- कौथुम शाखा, राणायीनय शाखा और जैमिनीय शाखा।

(4.) अथर्ववेद: ‘अथ’ का अर्थ होता है मंगल अथवा कल्याण, अथर्व का अर्थ होता है अग्नि और अथर्वन् का अर्थ होता है पुजारी। इसलिए अथर्ववेद उस वेद को कहते है जिसमें पुजारी मन्त्रों तथा अग्नि की सहायता से भूत-पिशाचों से रक्षा कर मनुष्य का मंगल अथवा कल्याण करते हैं। इसकी रचना प्रथम तीन वेदों की रचना के बहुत बाद में हुई। अथर्ववेद की दो शाखाएँ मिलती हैं- शौनक और पिप्लाद। इसमें चालीस अध्याय हैं और इसका सम्बन्ध मुख्यतः आर्यों के घरेलू जीवन से है।

 अथर्ववेद में बहुत से प्रेतों तथा पिशाचों का उल्लेख है जिनसे बचने के लिए मन्त्र दिए गए हैं। विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए भी मंत्र-तंत्र दिए गए हैं। ये मन्त्र जादू-टोने की सहायता से मनुष्य की रक्षा करते हैं। इस ग्रन्थ में कुछ मन्त्र ऋग्वेद के हैं और कुछ सामवेद के। यह आर्यों के पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डालता है तथा इसमें आर्येतर लोगों के विश्वासों तथा प्रथाओं की भी जानकारी मिलती है।

(2.) ब्राह्मण ग्रंथ

ब्राह्मण, ‘ब्रह्म’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है वेद। इसलिए ब्राह्मण उन ग्रन्थों को कहते है जिनमें वैदिक मन्त्रों की व्याख्या की गई है। इनमें यज्ञों के स्वरूप तथा उनकी विधियों का वर्णन किया गया है। चूँकि यज्ञ करने तथा कराने का कार्य पुरोहित करते थे जो ब्राह्मण होते थे, इसलिए केवल ब्राह्मणों से संबंधित होने के कारण इन ग्रन्थों का नाम ब्राह्मण रखा गया। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना ‘ब्रह्मर्षि देश’ में हुई थी।

ब्राह्मण ग्रन्थों के दो भाग हैं- (1.) विधि और (2.) अर्थनाद अर्थात् आख्यानों, पुराणों और इतिहास द्वारा नियमों के अर्थ की व्याख्या।

प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं। ऋग्वेद के कौषितकी या सांख्यायान और ऐतरेय ब्राह्मण हैं। कृष्ण यजुर्वेद का तैतिरीय ब्राह्मण तथा शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण है। शतपथ ब्राह्मण एक विशाल ग्रन्थ है जिसमें एक सौ अध्याय हैं। इसके रचयिता याज्ञवल्क्य ऋषि हैं। इस ग्रंथ में याज्ञिक अनुष्ठानों का विस्तार से वर्णन है तथा विविध अनुष्ठानों के प्रयोजनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

सामवेद के तीन ब्राह्मण हैं- ताण्ड्य ब्राह्मण, षडविश ब्राह्मण और जैमिनीय ब्राह्मण। सामवेद के छान्दोग्य के मंत्र ब्राह्मण एवं सामविधान ब्राह्मण हैं। अर्थवेद का गोपथ ब्राह्मण है।

यद्यपि ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना याज्ञिकों के पथ-प्रदर्शन के लिए की गई थी तथापि इनसे आर्यों के सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना प्रधानतः गद्य में की गई है परन्तु कहीं-कहीं पद्य भी विरल रूप से मिलते हैं। इनकी भाषा परिष्कृत तथा उच्च कोटि की है।

आरण्यक तथा उपनिषद् भी ब्राह्मण-ग्रन्थों के अन्तर्गत आते हैं। ब्राह्मणों के परिशिष्ट ‘आरण्यक’ कहलाते हैं और उनके अन्तिम भाग ‘उपनिषद’ हैं।

आरण्यक: आरण्यक उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनकी-रचना ‘अरण्यों’ अर्थात् ‘जंगलों’ के शान्त वातावरण में हुई और जिनका अध्ययन-चिन्तन भी जंगलों में एकान्तवास में किया जाना चाहिए। ये ग्रन्थ वानप्रस्थाश्रमियों के लिए होते थे। वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने पर लोग जंगलों में चले जाते थे और वहीं पर चिन्तन तथा मनन किया करते थे। आत्मा क्या है, सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ, सृष्टि किन तत्त्वों से बनी है, सृष्टि का नियन्त्रक कौन है, परमसत्ता का स्वरूप कैसा है, इस प्रकार के गूढ़ विषयों का चिन्तन आरण्यक ग्रन्थों में किया गया है। अध्यात्म-चिन्तन आरण्यक ग्रन्थों की सबसे बड़ी विशेषता है।

उपनिषद्: यह तीन शब्दों से मिलकर बना है- उप+नि+षद्। उप का अर्थ होता है समीप, नि का अर्थ होता है नीचे और षद् का अर्थ होता है बैठना। इसलिए उपनिषद् उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनका अध्ययन गुरु के समीप नीचे बैठकर श्रद्धापूर्वक किया जाना चाहिए। उपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थ के अन्तिम भाग में आते हैं। ये ज्ञान प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें उच्च कोटि का दार्शनिक विवेचन मिलता है। उपनिषदों की तुलना में संसार में कोई अन्य श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है।

उपनिषदों से हमें ज्ञात होता है कि इस युग में वर्ण तथा वर्णाश्रम व्यवस्था दृढ़ रूप से स्थापित हो गए थे तथा मानव की सभ्यता एवं संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था।

उपलब्ध उपनिषद ग्रन्थों की संख्या लगभग दो सौ है किन्तु उनमें से केवल बारह का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनके नाम हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैतिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषितकी और श्वेताश्वतर। अधिकांश उपनिषद ई.पू.1000 से ई.पू.300 के बीच की अवधि में रचे गए। विभिन्न काल-खण्डों में रचे जाने के कारण उपनिषदों की भाषा, कथन-शैली तथा वैचारिक पृष्ठभूमि में अंतर है।

उपनिषदों का प्रमुख विषय ‘दर्शन’ है। वेदों में ज्ञान-मार्ग सम्बन्धी जो बातें पाई जाती है, उन्हीं का विकास आगे चलकर उपनिषदों के रूप में हुआ। वस्तुतः उपनिषद्, वेद के उन स्थलों की व्याख्या है जिनमें यज्ञों से अलग हटकर ऋषियों ने जीवन के गहन तत्त्वों पर विचार किया गया है। दूसरे शब्दों में, उपनिषद आर्य मस्तिष्क के धर्म से दर्शन की ओर झुकाव का परिणाम हैं। इनकी प्रवृत्ति उपासना से ध्यान की ओर, यज्ञ से चिन्तन की ओर तथा बाह्य प्रकृति की आराधना से अन्तरात्मा की खोज की ओर है।

ये ब्रह्मज्ञान के श्रेष्ठतम ग्रन्थ हैं। आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष तथा सृष्टि आदि के सम्बन्ध में उपनिषदों में व्यक्त विचार ही शंकर के दर्शन के मूल में है। उपनिषद ही वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों- अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि को मूल सामग्री उपलब्ध करवाते हैं। गीता में भी उपनिषदों का सार है। बौद्ध और जैन मतों के अधिकांश सिद्धान्त भी इन्हीं पर आधारित हैं। वर्तमान समय में हिन्दू-धर्म के प्रमुख सिद्धान्त भी उपनिषदों से ही लिए गए हैं।

जर्मन विद्वान शोपेन हावर ने लिखा है- ‘सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को उँचा उठाने वाला कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है। इनसे मुझे जीवन में शान्ति मिली है। इन्हीं से मृत्यु के समय भी शान्ति मिलेगी।’

(3.) सूत्र

सूत्र का शाब्दिक अर्थ होता है धागा। इसलिए सूत्र उन ग्रन्थों को कहते हैं जो इस प्रकार लिखे जाते थे मानो कोई चीज धागे में पिरो दी गई हो। और उनमें एक क्रम स्थापित हो गया हो। जब वैदिक साहित्य का रूप अत्यन्त विशाल हो गया तो उसे कंठस्थ करना बहुत कठिन हो गया। इसलिए एक ऐसी रचना-शैली का विकास किया गया जिसमें वाक्य तो छोटे-छोटे हों परन्तु उनमें बड़े-बड़े भावों तथा विचारों का समावेश हो। इन्हीं रचनाओं को सूत्र कहा गया। महर्षि पाणिनि ने सूत्रों की तीन विशेषताएँ बताई हैं-

(1.) वे कम अक्षरों में लिखे जाते हैं,

(2.) वे असंदिग्ध होते हैं और

(3.) वे सारगर्भित होते हैं।

सूत्र साहित्य के तीन भाग हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र। श्रौत सूत्रों में वैदिकयुगीन यज्ञों और उनके वर्गीकरण का समावेश है, गृह्य सूत्रों में गार्हस्थिक संस्कार, अनुष्ठान, आचार-विचार और कर्मकाण्ड का वर्णन है तथा धर्म सूत्रों में धार्मिक नियम, राजा-प्रजा के कर्त्तव्य और अधिकार, सामाजिक वर्ण प्रधान भेद, आश्रम आदि विभिन्न व्यवस्थाओं का उल्लेख है।

सूत्रों में कल्प-सूत्र सर्वाधिक महत्त्व का है। सूत्रों की रचना करने वालों में महर्षि पाणिनि प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों की रचना 700 ई.पू. से 200 ई.पू. के बीच हुई। सूत्रों में आर्यों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन का भी पर्याप्त परिचय मिलता है।

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