वैदिक साहित्य के अंतर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, उपनिषद, आरण्यक एवं ब्राह्मण ग्रंथों पर हम पिछले अध्याय में चर्चा कर चुके हैं। इस अध्याय में वेदांग एवं महाकाव्यों पर चर्चा की जा रही है।
विपुल वैदिक साहित्य को पढ़ने एवं उसके अर्थ को समझने के लिए शिक्षा, छन्द, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष और कल्प नामक छः विधाएं बनाई गईं जिन्हें वेदांग कहते हैं। पाणिनी के अनुसार, व्याकरण वेद का मुख है, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त श्रोत्र, कल्प हाथ, शिक्षा नासिका और छन्द दोनों पैर हैं।
वेदांग
शिक्षा
इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। अर्थात् वे मंत्रों में प्रयुक्त स्वरों, व्यंजनों एवं विशिष्ट ध्वनियों का उच्चारण कैसे किया जा सकता है, इसका अध्ययन वेदांग की ‘शिक्षा’ नामक शाखा में करवाया जाता है।
कल्प
वेदों में यज्ञयाग आदि कर्मकांड के उपदेश आए हैं, किस यज्ञ में किन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए, किसमें कौन सा अनुष्ठान किस रीति से करना चाहिए, इत्यादि कर्मकांड की सम्पूर्ण विधि कल्पसूत्र ग्रंथों में है। इसलिए कर्मकांड की पद्धति जानने के लिए कल्पसूत्र ग्रंथों के अध्ययन की आवश्यकता होती है। यज्ञ यागादि का ज्ञान ‘श्रौतसूत्र’ से होता है और षोडश संस्कारों का ज्ञान ‘स्मार्तसूत्र’ से मिलता है।
वैदिक कर्मकांड में यज्ञों का बहुत विस्तार है। प्रत्येक यज्ञ की विधि श्रौतसूत्र से देखनी होती है। इसलिए अनेक श्रौतसूत्र उपलब्ध हैं। स्मार्तसूत्र सोलह संस्कारों का वर्णन करते हैं, इसलिए ये भी पर्याप्त विस्तृत हैं। श्रौतसूत्रों में यज्ञयाग के नियम हैं और स्मार्तसूत्रों में अर्थात् गृह्यसूत्रों में उपनयन, जातकर्म, विवाह, गर्भाधान, आदि षोडश संस्कारों का विधि विधान दिया गया है। कल्प की तीसरी शाखा ‘धर्मसूत्र’ कहलाती है।
व्याकरण
व्याकरण से प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। आचार्य वररुचि ने व्याकरण के पाँच प्रयोजन बताए हैं- (1) रक्षा (2) ऊह (3) आगम (4) लघु तथा (5) असंदेह।
(1) व्याकरण के अध्ययन का उद्देश्य वेदों की रक्षा करना है।
(2) ऊह का अर्थ है-कल्पना। वैदिक मन्त्रों में न तो लिंग है और न ही विभक्तियाँ। लिंगों और विभक्तियों का प्रयोग वही व्यक्ति कर सकता है जो व्याकरण का ज्ञाता हो।
(3) आगम का अर्थ है- श्रुति। श्रुति कहती है कि ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि वह वेदों का अध्ययन करे।
(4) लघु का अर्थ है- शीघ्र उपाय। वेदों में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी जानकारी एक जीवन में सम्भव नहीं है। व्याकरण वह साधन है जिससे समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है।
(5) असंदेह का अर्थ है- संदेह न होना। संदेहों को दूर करने वाला व्याकरण होता है, क्योंकि वह शब्दों का समुचित ज्ञान करवाता है।
निरुक्त
वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में हुआ है, निरूक्त में उनके उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख किया गया है। शब्द की उत्पत्ति तथा व्युत्पत्ति कैसे हुई, यह निरुक्त बताता है। यास्काचार्य का निरुक्त प्रसिद्ध है। इसको शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कह सकते हैं। वेद का यथार्थ अर्थ समझने के लिए निरुक्त को जानने की अत्यंत आवश्यकता है।
ज्योतिष
वेदमंत्रों में नक्षत्रों का जो वर्णन हुआ है, उसे ठीक प्रकार से समझने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान करवाया जाता है। इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से अर्थ वेदांग ज्योतिष से है। अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि आदि ग्रह किस प्रकार गति करते हैं, सूर्य, चंद्र आदि के ग्रहण कब होंगे, अन्य तारकों की गति कैसी होती है आदि का ज्ञान ज्योतिष शास्त्र में करवाया जाता है।
इस प्रकार वेदांगों का ज्ञान वेद का उत्तम बोध होने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
छन्द
वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, वृहती आदि छंदों का ज्ञान छंद-शास्त्र से होता है। इस शास्त्र में मुख्यतः यह बताया जाता है कि प्रत्येक छंद के पाद कितने होते हैं और ह्रस्व-दीर्घ आदि अक्षर प्रत्येक पाद में कैसे होने चाहिए। छन्द को वेदों का पाद, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।
मूल लेख – वैदिक सभ्यता एवं साहित्य
वेदांग