Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 12 – उपनिषदों का चिंतन

दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा पक्षी फल नहीं खाता अपितु अपने सखा को देखता है।     

– मुण्डक उपनिषद 3-1-1

ई.पू.600 के आसपास, उत्तर-वैदिक-काल का अंतिम चरण आरंभ हुआ। इस काल की दार्शनिक विवेचना के अन्य प्रधान ग्रन्थ आरण्यक हैं। आरण्यकों ने यज्ञीय प्रक्रिया से स्वतंत्र तथा ज्ञान की श्रेष्ठता से सम्पन्न जिस ‘तत्त्व चिंतन प्रधान धर्म’ की प्रवृत्ति आरम्भ की थी उसका चरमोत्कर्ष उपनिषदों में हुआ। इस काल में, विशेषतः पंचाल और विदेह में, पुरोहितों के आधिपत्य, कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरुद्ध प्रबल आंदोलन आरम्भ हुआ तथा अनेक उपनिषदों की रचना हुई। इन दार्शनिक ग्रंथों में अनुष्ठानों की आलोचना की गई और सम्यक् विश्वासों एवं ज्ञान पर बल दिया गया।

ऋग्वेद में बहुदेववाद के साथ-साथ एक ही परम शक्ति का भी किंचित् वर्णन किया गया था। उपनिषद् काल में यह चिंतन निष्कर्ष तक पहुँच गया। इस सृष्टि से परे एक अपरिवर्तनशील शक्ति है जिसे ‘ब्रह्म’ कहा गया। वह इस सृष्टि का निर्माता, नियंत्रणकर्ता और संहारकर्ता है। यह ‘परमात्मा’ आत्मा के रूप में सभी जीवों में निवास करता है। व्यक्ति की मृत्यु के बाद यह आत्मा नए शरीर में प्रवेश करता है।

इस प्रकार आत्मा बार-बार नए शरीर धारण करता हुआ अपने सत्कर्मों के बल पर अपने बंधनों से मुक्त होकर पुनः परमात्मा से युक्त हो जाता है। इस चिंतन के अनुसार कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता। किसी भी प्रकार का उचित या अनुचित कर्म परिपक्व होकर फलदायी अवश्य होता है। इसी कर्मफल को भोगने के लिए आत्मा को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। कर्म और आत्मा के इन सिद्धांतों के साथ मोक्ष का सिद्धांत जुड़ा हुआ है जो कि मनुष्य मात्र का अंतिम गंतव्य है।

उपनिषद काल में जीव, सृष्टि, आत्मा आदि के सम्बन्ध में बड़े स्तर पर चिंतन हुआ। याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों द्वारा ‘आत्मन्’ को पहचानने और ‘आत्मन्’ तथा ‘ब्रह्म’ के सम्बन्ध को सही रूप में समझने पर बल दिया गया। ‘ब्रह्मा’ सर्वोच्च देव के रूप में उदित हुए। पंचाल और विदेह के कुछ क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिन्तन में भाग लिया और पुरोहितों के एकाधिकार वाले धर्म में सुधार करने के लिए वातावरण तैयार किया।

उनके उपदेशों से स्थायित्व और एकीकरण की विचारधारा को बल मिला। आत्मा की अपरिवर्तनशीलता और अमरता पर बल दिए जाने से स्थायित्व की संकल्पना मजबूत हुई, राजशक्ति को इसी की आवश्यकता थी। आत्मा और ब्रह्मा के सम्बन्धों पर बल दिए जाने से उच्च अधिकारियों के प्रति स्वामिभक्ति की विचारधारा को बल मिला।

मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाता है? इस प्रश्न ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जन्म दिया। इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य का अगला जन्म उसके कर्मों पर निर्भर रहता है तथा अच्छा कार्य करने वाला, अच्छी योनि में और बुरा कार्य करने वाला बुरी योनि में जन्म लेता है। अच्छी और बुरी योनि के विचार ने स्वर्ग और नर्क की अवधारणा को जन्म दिया।

इस युग में ज्ञान की प्रधानता पर बल दिया गया। मोक्ष प्राप्त करने के लिए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक समझा गया। ज्ञान, विश्वास, संयम, सत्य और श्रद्धा आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न तपस्वी तथा सन्यासी मृत्यु के बाद देवयान से जाकर ब्रह्म से सायुज्य प्राप्त कर लेता है। कर्त्तव्यपालन तथा यज्ञादि करने वालो गृहस्थ मृत्यु के बाद पितृयान से जाकर चन्द्रमा में पहुँचता है।

अपना उत्तम कर्मफल समाप्त होने पर वह पुनः पृथ्वी पर पहले पौधे के रूप में और फिर द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) के रूप में जन्म लेता है। पापाचरण में रत व्यक्ति मर कर पुनः शूद्र वर्ण में अथवा कुत्ते आदि की योनि में जन्म लेता है, ये सारी धारणाएं इस युग में स्थापित हुईं।

मृत्यु के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों ने इस युग के धर्म को निराशावादी बना दिया तथा संसार को दुःखमय मानकर त्यागने के लिए प्रेरित किया। वैदिक युग के आर्यों का धर्म आशावादी तथा आनंदपूर्ण था, उसमें मोक्ष की धारण और चिंता नहीं थी। उत्तर-वैदिक युग के धर्म में स्वर्ग की प्राप्ति का विश्वास था किंतु उपनिषद् युग में धर्म का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति बन गया। मोक्ष के सम्मुख इहलोक के सुख या आनंद का कोई मूल्य नहीं था। वृहदारण्यक उपनिषद् में यह तथ्य बहुत मार्मिक रूप में समझाया गया है।

वानप्रस्थ ग्रहण करते समय याज्ञवल्क्य ऋषि ने अपनी सम्पत्ति अपनी दोनों पत्नियों- कात्यायनी तथा मैत्रेयी में बांट दी। मैत्रेयी ने याज्ञवलक्य से पूछा- ‘यदि धन सम्पत्ति, गायों से भरी यह पृथ्वी मेरी हो जाए, तो क्या मैं अमर हो जाऊंगी?’

 याज्ञवलक्य के मना करने पर मेत्रैयी ने कहा- ‘जिस धन सम्पत्ति से मैं अमर नहीं होती, उसे लेकर मैं कया करूंगी? इसलिए आप मुझे ज्ञान ही दे दीजिए।’ मैत्रेयी के इस सम्भाषण से प्रसन्न होकर याज्ञवलक्य ने उसे आत्मत्तव का ज्ञान दिया।

उपनिषद् तथा सूत्र युग के धर्म में नैतिकता का स्तर पूर्ववत् ही उच्च था। इस काल में नैतिकता पर सर्वाधिक बल दिया गया। सत्य, तप, श्रद्धा, दृढ़संकल्प, शुचिता, शरीर, वाणी और मन का संयम इन्द्रियों का वशीकरण, पापाचरण से विरति आदि से ही मनुष्य कर्म बंधन से छूटकर मोक्ष पद का अधिकारी बन जाता है।

प्रत्येक मनुष्य से उच्च नैतिकता की अपेक्षा करने के कारण इस काल में तीन ऋणों- पितृऋण, देवऋण तथा ऋषिऋण से उऋण होने तथा प्रतिदिन पंच महायज्ञ- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ तथा भूतयज्ञ करने को धार्मिक कार्यों में सम्मिलित किया गया। उपनिषद्कालीन ज्ञान और तपस्या पर बल देने वाली धार्मिक विचारधारा के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथों की यज्ञीय कर्मकाण्ड की धारा भी इस युग में बनी रही।

असंख्य पशुबलि तथा अनेक दीर्घकालिक यज्ञों की संख्या नगण्य रह गई किंतु फिर भी अनेक प्रकार के यज्ञ किए जाते रहे। श्रौतसूत्रों तथा गृह्यसूत्रों से इस धार्मिक प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

इस काल में रचे गए धर्मसूत्रों ने समाज को प्राणवान इकाई के रूप में ग्रहण किया था, व्यक्ति को नहीं। समाज का उत्कर्ष एवं अभ्युत्थान ही चरम लक्ष्य था। राजा हो या प्रजा, सभी के कर्त्तव्यों का निर्धारण धर्म के रूप में किया गया था। महत्व कर्त्तव्य का था, अधिकार का नहीं। इन कर्त्तव्यों का सफल पालन ही मनुष्य जीवन का चरम ध्येय था और वह उसी से मोक्ष प्राप्त कर सकता था। कर्त्तव्य और धर्म की इस पृष्ठभूमि में धर्मसूत्रों में शासन तथा राजनीति का विवेचन हुआ है।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर वैदिक धर्म तथा उपनिषद काल के धर्म में निम्नलिखित अंतर स्पष्ट किए जा सकते हैं-

1. वेदों का बहुदेववाद, इस युग में एकेश्वरवाद में परिणत हो गया।

2. धर्म के तात्विक चिंतन ने दर्शन को जन्म दिया।

3. पुनर्जन्म, मोक्ष और कर्मवाद के सिद्धांत प्रतिपादित हुए।

4. मृत्यु के पश्चात् कालीन जीवन के लिए स्वर्ग एवं नर्क की अवधारण पुष्ट हुई।

5. उच्च नैतिक गुणों एवं सत्कर्मों पर बहुत बल दिया गया।

उपनिषद कालीन धर्म की कठिनाइयाँ

ऋग्वेद काल में धर्म का स्वरूप सरल एवं सहज स्फूर्त था, ब्राह्मण ग्रंथों के काल में धर्म बाह्याडम्बर तथा कर्मकाण्ड बोझिल हो गया। उपनिषद काल में धर्म के उस आडम्बर-प्रधान कर्मकाण्ड तथा यज्ञों का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म, आत्मा, कर्म, मोक्ष आदि का प्रतिपादन किया गया किंतु धर्म का यह रूप भी मनुष्यों को संतुष्ट नहीं कर सका। उपनिषदों का इन्द्रियातीत निर्गुण ब्रह्म इतना अधिक गूढ़ तथा सूक्ष्म था कि स्थूल बुद्धि जनसामान्य के लिए वह अगम्य तथा दुर्बोध था।

इसके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि आदि जो साधन बताए गए थे, वे स्वयं में इतने कष्टसाध्य थे कि जन-सामान्य द्वारा उनका पालन करना अत्यंत दुष्कर था। सांसारिक मोहमाया का त्याग करके परिव्राजक या सन्यासी बनकर ब्रह्मप्राप्ति करना अधिकांश जनता के लिए दुराशा मात्र ही था। इसलिए धर्म के स्वतंत्र चिंतकों ने जीवन के विभिन्न प्रश्नों और धर्म के विभिन्न दृष्टिकोणों पर पुनः विचार किया।

जो आश्रम व्यवस्था उपनिषद् काल में सुनिश्चित हो चुकी थी, उसके अंतिम दो चरण वानप्रस्थ तथा सन्यास इस चिंतन के लिए सर्वाधिक उपादेय बने। उनके कारण भारत का आध्यात्मिक तथा धार्मिक नेतृत्व ऋषियों एवं ब्राह्मणों के हाथों से निकलकर वानप्रस्थी परिव्राजकों और सन्यासियों के हाथों में चला गया। इस कारण देश में अनेक नवीन धार्मिक मत-मतांतर उत्पन्न होने लगे।

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