ईक्ष्वाकु वंश में राजा मांधाता के वंशजों में से सातवां वंशज राजा सत्यव्रत था। उसे पुराणों में त्रिशंकु के नाम से जाना जाता है। राजा त्रिशंकु की कहानी का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में भी किया गया है।
इस कथा के अनुसार राजा सत्यव्रत ईक्ष्वाकु वंशी राजा पृथु के पुत्र और राजा रामचंद्र के पूर्वज हैं। राजा सत्यव्रत जब वृद्ध होने लगे तो उन्हें राज-पाट त्याग कर अपने पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा घोषित कर दिया। राजा सत्यव्रत एक धार्मिक पुरुष थे इसलिए उनकी आत्मा स्वर्ग के योग्य थी परंतु उनकी इच्छा स-शरीर स्वर्ग जाने की थी। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होने अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ से यज्ञ करने की प्रार्थना की। ऋषि वशिष्ठ ने यज्ञ करने से मना कर दिया कि स-शरीर स्वर्ग में प्रवेश की कामना प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है।
सत्यव्रत अपनी ज़िद पर अड़े रहे और इच्छा की पूर्ति के लिए ऋषि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति को यज्ञ करने के लिए धन एवं प्रसिद्धि का लालच दिया। सत्यव्रत के इस दुस्साहस ने ऋषिपुत्र शक्ति को क्रोधित कर दिया और शक्ति ने सत्यव्रत को चाण्डाल होने का श्राप दे दिया। इस पर राजा सत्यव्रत दुखी होकर वनों में भटकने लगा।
वन में भटकते हुये सत्यव्रत की भेंट ऋषि विश्वामित्र से हुई। ऋषि विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत से पूछा कि वनों में क्यों भटक रहे हैं? इस पर राजा ने ऋषि को सम्पूर्ण वृत्तांत बताया।
ऋषि विश्वामित्र को राजा सत्यव्रत पर दया आ गई। उन्होंने पहले भी राजा सत्यव्रत के पूर्वज रोहित के प्राणों की रक्षा की थी। ऋषि विश्वामित्र ने राजा को सांत्वना दी और कहा कि आप निराश न हों, मैं आपके लिए यज्ञ करूंगा और आपको स-शरीर स्वर्ग पहुंचाउंगा।
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ऋषि की बात सुनकर राजा सत्यव्रत बहुत प्रसन्न हुआ और ऋषि द्वारा बताए गए अनुष्ठान करने लगा। विश्वामित्र ने अपने चार पुत्रों से कहा कि वे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करें तथा वन में निवास कर रहे समस्त ऋषि-मुनियों को यज्ञ में भाग लेने के लिए आमंत्रित करें।
बहुत से ऋषि-मुनियों ने विश्वामित्र के निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु महर्षि वसिष्ठ के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र ने वसिष्ठ के पुत्रों को श्राप दिया कि वे कालपाश में बँधकर यमलोक जाएं और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करें। विश्वामित्र के शाप से महर्षि वसिष्ठ के पुत्र यमलोक चले गए।
जब आसपास के वनों के बहुत से ऋषि आ गए तब विश्वामित्र ने यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने समस्त देवताओं के नाम ले-लेकर उन्हें यज्ञ-भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा- हे सत्यव्रत! मैं आपको अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ।’
इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुए आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ता हुआ स्वर्ग जा पहुँचा।
राजा सत्यव्रत को सशरीर देवलोक में आया जानकर स्वर्ग में खलबली मच गयी। इन्द्र ने क्रोध में भरकर राजा से कहा- ‘रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है।’
इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगा। स्वर्ग से धकेले जाने पर राजा सत्यव्रत करुण पुकार लगाता हुआ धरती की तरफ गिरने लगा। इस पर विश्वामित्र ने जोर से कहा- ‘तत्रैव तिष्ठ!’ अर्थात्- वहीं पर ठहरो।
विश्वामित्र के आदेश से राजा सत्यव्रत का धरती पर गिरना रुक गया और वह त्रिशंकु की तरह अंतरिक्ष में औंधा लटक गया। तभी से इस राजा का नाम त्रिशंकु पड़ गया।
आकाश में उलटे लटके हुए त्रिशंकु ने ऋषि विश्वामित्र से सहायता करने की प्रार्थना की। विश्वामित्र ने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग करके धरती एवं स्वर्ग के बीच में एक नया स्वर्ग बना दिया और त्रिशंकु को श्राप से मुक्त करते हुये इस नए स्वर्ग में रहने के लिए भेज दिया। मान्यता है कि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के साथ नए तारों का निर्माण किया तथा दक्षिण दिशा में नया सप्तर्षि मण्डल भी बना दिया। विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के लिए कुछ नवीन प्राणियों एवं वनस्पतियों की रचना की। उन्होंने जौ के स्थान पर गेहूँ, गाय के स्थान पर भैंस, हाथी के स्थान पर ऊंट तथा फलों के स्थान पर नारियल की रचना की।
कुछ ग्रंथों की मान्यता है कि विश्वामित्र द्वारा बनाए गए नवीन स्वर्ग को देवताओं ने नष्ट कर दिया किंतु विश्वामित्र के अनुरोध पर गेहूं, भैंस, ऊंट तथा नारियल को नष्ट नहीं किया गया। इसी प्रकार विश्वामित्र द्वारा निर्मित त्रिशंकु नक्षत्र मण्डल भी सप्तऋषि मण्डल के दक्षिण में आज भी देखा जा सकता है।
कुछ पुराणों के अनुसार जब विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को नवीन स्वर्ग का इन्द्र बनाने के लिए तप आरम्भ किया तब इस तप से चिंतित देवताओं ने विश्वामित्र को समझाया कि वे यह तप न करें। देवताओं ने विश्वामित्र की अवज्ञा नहीं की है, अपितु उन्होंने किसी भी मनुष्य के स-शरीर स्वर्ग में प्रवेश की अप्राकृतिक घटना को रोका है।
महर्षि विश्वामित्र ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली तथा उनसे कहा कि मैं अपनी तपस्या रोक दूंगा किंतु देवताओं को भी वचन देना होगा कि वे राजा सत्यव्रत को नए स्वर्ग में सुख से रहने देंगे। इस पर देवताओं ने राजा सत्यव्रत से वचन लिया कि वह कभी भी स्वयं इन्द्र नहीं बनेगा तथा देवराज इन्द्र की आज्ञा की अवहेलना नहीं करेगा।
इस प्रकार राजा सत्यव्रत को स्वर्ग में तो प्रवेश नहीं मिला किंतु उसे रहने के लिए एक नया स्वर्ग मिल गया। मान्यता है कि राजा त्रिशंकु अपने स्वर्ग के साथ आज भी वास्तविक स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में लटका हुआ है।