ईक्ष्वाकु वंशी राजाओं में जितने भी प्रसिद्ध राजा हुए हैं उनमें महाराज हरिश्चंद्र का नाम भी अत्यधिक आदर से लिया जाता है। हिन्दू धर्म में सत्य को ईश्वरीय गुण माना गया है। परमात्मा को सत्यवादी प्रिय होता है और असत्यवादी अप्रिय।
भारत वर्ष में जब भी सत्यवादियों की चर्चा होती है, तब ईक्ष्वाकुवंशी महाराज हरिश्चन्द्र का नाम सबसे पहले लिया जाता है। महाराज हरिश्चंद्र उसी राजा सत्यव्रत के पुत्र थे जिन्हें भारतीय पौराणिक इतिहास में त्रिशंकु के नाम से जाना जाता है।
राजा हरिश्चंद्र त्रेता युग में ईक्ष्वाकु वंश के नौवें राजा थे। उनकी राजधानी अयोध्या थी। महाराज हरिश्चंद्र के बहुत काल तक कोई संतान नहीं हुई। अतः उन्होंने अपने कुलगुरु महिर्ष वशिष्ठ के आदेश से वरुण की उपासना की। वरुण ने राजा को एक पुत्र का वरदान दिया। समय आने पर राजा हरिश्चंद्र की रानी तारामती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम रोहिताश्व रखा गया। कुछ ग्रंथों में रानी तारामती का नाम शैव्या भी मिलता है।
राजा हरिश्चंद्र सत्य भाषण और वचन पालन के लिए प्रसिद्ध हुए। ऋषि विश्वामित्र ने भी राजा हरिश्चंद्र की प्रसिद्धि सुनी और उन्होंने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने का निश्चय किया। महर्षि के तप बल के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में देखा कि उनके पास एक ऋषि आए हैं तथा राजा से उसका राजपाट मांग रहे हैं। राजा ने ऋषि को राजपाट देने का वचन दिया। कुछ देर बाद राजा की नींद खुल गई और वे स्वप्न के बारे में भूल गए।
जब प्रातः हुई तो महर्षि विश्वामित्र राजा हरिश्चंद्र के महल में आए। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र से कहा कि आपने अपना समस्त राज्य मुझे देने का वचन दिया है। अपना वचन पूरा कीजिए। राजा को रात में देखे हुए स्वपन की याद आ गई और उसने महर्षि विश्वामित्र को स्वप्न में दिए गए वचन के अनुसार अपना समस्त राज्य उन्हें सौंप दिया।
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जब राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी तारामती एवं पुत्र रोहिताश्व के साथ महल छोड़कर जाने लगे तो महर्षि विश्वामित्र ने राजा से दान के पश्चात् दी जाने वाली दक्षिण मांगी तथा दक्षिणा में पांच सौ स्वर्ण मुद्राओं की मांग की।
अब राजा के पास ऋषि को देने के लिए कुछ भी नहीं था, वे अपना राजपाट एवं राजकोष सभी महर्षि विश्वामित्र को दान कर चुके थे। इस पर राजा ने ऋषि से अनुरोध किया- ‘मुझे कुछ समय दीजिए, मैं आपको दक्षिणा अवश्य दे दूंगा।’
ऋषि ने राजा का अनुरोध स्वीकार कर लिया। इसके बाद राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी एवं पुत्र के साथ अयोध्या छोड़कर काशी चले गए तथा उन्होंने स्वयं को दास के रूप में बेचकर पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त करनी चाहीं किंतु काशी में किसी ने भी राजा को दास के रूप में नहीं खरीदा। इस पर राजा हरिश्चंद्र ने अपनी रानी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को बेचकर स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त कीं किंतु वे भी पांच सौ नहीं हो पाईं। इस पर राजा हरिश्चंद्र ने स्वयं को काशी नगर से बाहर शमशान में निवास करने वाले एक डोम के हाथों बेच दिया। इस प्रकार पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं एकत्रित करके राजा ने ऋषि की दक्षिणा चुका दी।
जिस डोम ने राजा हरिश्चंद्र को क्रय किया था, उसने राजा को शवदाह के लिए आने वाले शवों से ‘शमशान-कर’ एकत्रित करने के काम पर लगा दिया। इधर राजा शमाशान में रहकर अपने दिन व्यतीत कर रहे थे और उधर नगर में दासी के रूप में काम कर रही रानी तारामती के पुत्र रोहिताश्व को एक दिन सर्प ने डंस लिया जिससे राजकुमार रोहिताश्व की मृत्यु हो गयी। रानी तारामती अपने पुत्र रोहिताश्व की मृत्यु पर संताप करने लगीं। रानी को भय था कि राजा हरिश्चंद्र अपने पुत्र के शव को देखकर दुःख से कातर हो जाएंगे। इसलिए वह रात होने की प्रतीक्षा करने लगी। जब रात का अंधेरा घिर आया तब रानी अपने पुत्र के शव को लेकर शमशान पहुंची।
रानी ने अपना मुंह अपनी साड़ी से ढंक लिया तथा अपने पुत्र के मुंह पर भी कपड़ा डाल दिया ताकि राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी एवं पुत्र को इस संकट में देखकर दुःखी न हों। रानी संकटों में घिरे अपने पति के दुःखों को और नहीं बढ़ाना चाहती थी तथा राजकुमार की मृत्यु का समाचार राजा से छिपाना चाहती थी।
शमशान पहुंचकर रानी तारामती अपने पुत्र की मृत-देह की चुपचाप अंत्येष्टि करने की चेष्टा करने लगी। तभी डोम का सेवक अर्थात् राजा हरिश्चंद्र वहाँ आ गए और उन्होंने अपने पुत्र का शवदाह करने वाली स्त्री से शमशान का कर मांगा। रानी के पास देने के लिए कुछ नहीं था। इसलिए उसने शमशान का कर देने में असमर्थता प्रकट की।
राजा ने कहा- ‘मैं शमशान का कर लिए बिना आपको इस बालक का शवदाह नहीं करने दूंगा।’
उसी समय आकाश में बिजली चमकी तथा हवा के झौंके से रानी के मुंह से कपड़ा हट गया। राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी को पहचान लिया। वह समझ गए कि जिस बालक का शवदाह किया जाना है, वह उनका अपना पुत्र रोहिताश्व है। राजा हरिश्चंद्र को अपनी रानी एवं पुत्र की यह दशा देखकर बहुत बहुत दुःख हुआ। उस दिन राजा और रानी का एकादशी का व्रत था और उन दोनों ने ही पूरे दिन में पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं की थी। उस पर यह घनघोर विपत्ति आन पड़ी थी। फिर भी राजा ने रानी को दुःख की इस घड़ी में धैर्य से काम लेने का उपदेश दिया तथा उससे शमशान का कर मांगा ताकि रानी अपने पुत्र की अंत्येष्टि कर सके। रानी ने पुनः कहा कि मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है।
इस पर राजा ने कहा कि शमशान का कर तो तुम्हें देना ही होगा। उससे कोई मुक्त नहीं हो सकता। यदि मैं किसी को छोड़ दूँ तो यह अपने स्वामी के प्रति विश्वासघात होगा। यदि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है तो अपनी साड़ी का आधा भाग कर के रूप में दे दो।
राजा ने कहा- जिस सत्य की रक्षा के लिए हमने अपना महल और राजपाट त्याग दिए, स्वयं को और अपने पुत्र को बेच दिया, उसी सत्य की रक्षा के लिए हमें प्राण भी त्यागने पड़ें तो भी हम पीछे नहीं हटेंगे।’
राजा का यह संकल्प सुनकर आकाशवाणी हुई और महर्षि विश्वामित्र सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र एवं रानी तारामती के समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने कहा- ‘हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित किया है। तुम्हारी कर्त्तव्य-निष्ठा महान् है, तुम कोई वर मांगो!’
इस पर राजा ने कहा- ऋषिवर! मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए किंतु यदि आप देना ही चाहते हैं तो इस स्त्री के पुत्र को जीवित कर दीजिए। यह पुत्र ही इसके जीवन का आधार है।’ राजा के इच्छा व्यक्त करते ही राजकुमार रोहिताश्व जीवित हो उठा।
महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से कहा- ‘राजन्! मुझे तुम्हारा राजपाट नहीं चाहिए, यह तो मैं तुम्हारी सत्यनिष्ठा की परीक्षा ले रहा था। तुम धन्य हो जिसने स्वप्न में दिए गए वचन का भी पूरी सत्यनिष्ठा से पालन किया। तुम ही अपनी प्रजा के राजा हो, जाओ धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो।
ऋषि की आज्ञा पाकर राजा और रानी राजकुमार रोहिताश्व के साथ फिर से अपनी राजधानी अयोध्या में चले गए और उन्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया तथा अपनी प्रजा को सुखी बनाया। राजा हरिश्चंद्र के बारे में यह दोहा कहा जाता है-
चन्द्र टरे सूरज टरे, टरे जगत व्यवहार।
पै दृढ़व्रत हरिश्चन्द्र को, टरे न सत्य विचार।