गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि उनके साहित्य में निहित लोकहित पर टिकी हुई है। उनके साहित्य के सम्बन्ध में लोकदृष्टि पर जितनी अधिक बात हुई है, उतनी बात किसी और साहित्यकार की दृष्टि पर नहीं हुई। यह एक अद्भुत बात है कि जिसकी दृष्टि सबसे अधिक स्पष्ट है, उसी की दृष्टि पर सर्वाधिक बात हुई।
यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि के विभिन्न आयाम हैं तथापि मैं इस आलेख में उनके साहित्य में निहित दृष्टि के केवल एक आयाम की चर्चा कर रहा हूँ- तुलसी की दृष्टि में लौकिक दुखों का महत्व।
संत साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह इस जीवन को नश्वर बताकर मृत्यु के बाद मिलने वाले जीवन पर अधिक जोर देता है किंतु तुलसीदासजी की दृष्टि में मनुष्य का वर्तमान जीवन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। पार्वतीजी की महिमा का बखान करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-
भव भव विभव पराभव कारिणी, बिस्व बिमोहिनी स्वबस बिहारिणी।
अर्थात्- आपने इस संसार को संभव बनाया है, आपने ही वैभव दिया है और आप ही इस संसार का पराभव करने वाली हैं। इस उक्ति के माध्यम से गोस्वामीजी पार्वतीजी के साथ-साथ संसार की महत्ता को भी प्रकारांतर से स्थापित करते हैं। स्पष्ट है कि पार्वती जैसी महान शक्ति ने किसी अनुपयोगी चीज की रचना तो नहीं की होगी!
‘नहीं दरिद्र सम दुख जग माहीं’ अथवा ‘नारी कित सिरजी जग माहीं’ अथवा ‘नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना’ जैसी पंक्तियां सांसारिक सुखों एवं दुखों की ही तो स्वीकार्यता है।
गोस्वामीजी जब भी बात करते हैं, दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों की बात करते हैं। उनकी दृष्टि जितनी संसार से ऊपर के सुखों पर टिकी हुई है, उतनी ही संसार के भीतर स्थित दुखों पर भी टिकी हुई है-
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहुहि व्यापा।
अल्प मृत्यु नहीं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।
गोस्वामीजी ने जीवन के कष्टों को बहुत लम्बे समय तक झेला था, इसलिए वे मनुष्य को पानी का बुलबुला और जगत् को मिथ्या नहीं बताते हैं। उनका आराध्य देव भी अन्य भक्त-कवियों के आराध्य देवों से भिन्न प्रकार का है-
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू, लोक लाह, परलोक निबाहू।
तुलसीदासजी को केवल परलोक के सुखों की चिंता नहीं है, उन्हें लोक लाभ पहले चाहिए और परलोक में निर्वाह बाद में। रामचरित मानस की उपयोगिता के बारे में वे कहते हैं-
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा, सेवत सादर समन कलेसा।
गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि का सौंदर्य इस तथ्य में निहित है कि वे भौतिक शोकों के नष्ट होने की बात करते हैं, किसी मोक्ष या मुक्ति का आश्वासन नहीं देते। क्योंकि उनकी दृष्टि में कष्टों से मुक्ति पा जाना, यहाँ तक कि पेट भर भोजन पा जाना भी अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष जैसी बड़ी उपलब्धियों से कम नहीं है-
बारे ते ललात द्वार-द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को।
जब वे गंगाजी की बात करते हैं तो कहते हैं-
कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई।
अर्थात्- उनकी इस चौपाई में यह बात प्रकारांतर से निहित है कि सुरसरि (गंगाजी) इसलिए अच्छी हैं क्योंकि वे इस जगत् का भला करती हैं।
वे राम नाम स्मरण की बात भी इसी कामना में करते हैं कि इसके गायन से भव सार पार कर लिया जाएगा-
गाई गाई भव सागर तरहिं।
राम नाम मनि दीप धरू जीह देहरीं द्वार,
तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि उजियार।
भायं कुभायं अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
तुलसी या संसार में भांति-भांति के लोग,
सब से हिल-मिल चाहिए नदी नाव संयोग।
इस तरह का दृष्टिपरक चिंतन साहित्य में कब शामिल होता है? जब कवि या साहित्यकार सत्य का अनुभव केवल अपने चिंतन से नहीं अपितु अनुभव से करता है। वे हनुमान बाहुक में अपने शरीर की पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं-
पायं पीर पेट पीर, बांह पीर, मुंह पीर जरजर सकल सरीर पीर मई है।
घेर लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि ज्यों बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
तुलसीदासजी को केवल अपने जीवन के कष्ट दिखाई नहीं देते, उन्हें सम्पूर्ण समाज के कष्ट दिखते हैं-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को न बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस
कहै एक-एकन सौं कहां जाय का करी।
रामराज स्थापित होने पर वे इसलिए प्रसन्न होते हैं क्योंकि इसमें प्रजा के शोक नष्ट हो जाते हैं-
राम राज बैठे त्रय लोका, हर्षित भए गए सब सोका।
बयरू न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।
तुलसीदासजी द्वारा किया गया कलियुग का वर्णन वस्तुतः समाज के कष्टों का ही वर्णन है-
बाढ़ खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन पर दारा।
मानहिं मातु-पिता नहीं देवा, साधुन्ह संग करवावहिं सेवा।
यही गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि का सौंदर्य है कि वे किसी काल्पनिक संसार में विचरण नहीं करते, भौतिक धरातल पर आकर लोगों के सुख-दुख की बात करते हैं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता