अंग्रेज सरकार द्वारा किए गए बंग-भंग के निर्णय की परिणति बंग-भंग आन्दोलन में हुई। इससे देश में उग्र हिन्दुत्व की लहर उत्पन्न हुई। बंग-भंग आन्दोलन भारत की आजादी की लड़ाई का एक प्रमुख पड़ाव है जिसने पूरे भारत में बिजली सी कौंध गई।
भारतीयों की मांग से पूरी तरह बेपरवाह अंग्रेज सत्ता भारत में अपना राजनीतिक दांव खेल रही थी। नवाब सिराजुद्दौला एवं मीर जाफर से छीने हुए जिस बंगाल में अंग्रेजों ने प्रथम ब्रिटिश प्रांत की स्थापना की थी, उस बंगाल में बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा छोटा नागपुर तक विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। लॉर्ड कर्जन ने 18 जुलाई 1905 को बंगाल का विभाजन करके पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल नामक दो प्रांत बनाये।
पहले टुकड़े में बंगाल का पूर्वी भाग और आसाम का क्षेत्र रखा गया। इस प्रांत के लिये पृथक् लेफिटनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जिसकी राजधानी ढाका रखी गई। पश्चिमी बंगाल में बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र रखे गये। इसकी राजधानी कलकत्ता में रही। बंगाल को विभाजित करने का वास्तविक उद्देश्य बंगाल की एकजुट राजनीतिक शक्ति को भंग करना था। अँग्रेजों ने बंग-भंग के माध्यम से पूर्वी बंगाल के रूप में एक ऐसा प्रान्त बना दिया जिसमें मुसलमानों की प्रधानता थी। अँग्रेजों को आशा थी कि नया प्रांत, हिन्दू बहुल पश्चिमी प्रांत के विरुद्ध आवाज बुलंद करता रहेगा। सैयद अहमद खाँ तथा उनके साथियों ने इस कार्य में अँग्रेजों का साथ दिया ताकि उनकी राजनीति चमक जाये।
पूर्वी बंगाल में 3 करोड़ 10 लाख लोग रहते थे जिनमें से 1 करोड़ 80 लाख मुसलमान थे। लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल प्रान्त में मुसलमानों की सभाएं आयोजित कीं जिनमें उसने कहा कि यह विभाजन केवल शासन की सुविधा के लिए ही नहीं किया जा रहा है वरन् उसके द्वारा एक मुस्लिम प्रान्त बनाया जा रहा है जिसमें इस्लाम के अनुयायियों की प्रधानता होगी। बचे हुए पश्चिमी बंगाल प्रान्त में 1 करोड़ 70 लाख बंगला-भाषी लोगों की तुलना में बिहारी तथा उड़िया भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 4 करोड़ 10 लाख थी।
इस प्रकार बंगाली हिन्दू, पूर्वी बंगाल में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये तथा पश्चिमी बंगाल में भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये। बंगाल विभाजन के पीछे अँग्रेजों के मन में कई प्रकार के भय कार्य कर रहे थे। उस समय के भारत सरकार के गृह सचिव हारवर्ट होप रिसले ने एक गोपनीय रिपोर्ट लिखी- ‘संयुक्त बंगाल एक शक्ति है। बंगाल का विभाजन हो जाने पर वह अलग-अलग रास्तों में बंट जायेगा…….. हमारा एक मुख्य उद्देश्य है हमारे विरोध में संगठित शक्ति को विभाजित करना और उसे कमजोर बनाना।’
लॉर्ड रोनाल्डशे ने कहा था– ‘बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई दृढ़ता पर आघात किया गया था।’ कर्जन के इस कृत्य की ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने भी निन्दा की। मैनचेस्टर गारजियन ने लिखा- ‘बंगाल को दो टुकड़ों में बांट देने की कर्जन की योजना को समझना कठिन है और उसे क्षमा कर देना और भी कठिन।’
बंगाल के विभाजन से उग्र हिन्दुत्व आधारित राष्ट्रीय आन्दोलन में अचानक तेजी आ गयी। समस्त भारत ने इस विभाजन का कड़ा विरोध किया। सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए दमन का सहारा लिया जिससे गरम दल नेताओं को नया कार्यक्षेत्र एवं अनुकूल वातावरण प्राप्त हो गया।
कलकत्ता में महाराजा जतीन्द्रमोहन ठाकुर की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई जिसमें सरकार से बंगाल विभाजन के सम्बन्ध में कुछ संशोधन करने की मांग की गई। कर्जन ने किसी भी प्रकार का संशोधन करने से मना कर दिया।
7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट जनसभा हुई जिसमें बड़े-बड़े नेता तथा विभिन्न जिलों के प्रतिनिधि मण्डल उपस्थिति थे। इसके बाद पूरे बंगाल में बंग-भंग के विरोध में जनसभाएँ हुईं। इन सभाओं में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम स्वीकार किया गया।
16 अक्टूबर 1905 को कर्जन ने बंग-भंग की घोषणा को कार्यान्वित कर दिया। बंगाली जनता ने इस दिन को शोक-दिवस के रूप में मनाया। प्रातःकाल से ही कलकत्ता सहित विभिन्न नगरों की सड़कें वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठीं। मनुष्यों के समूह नदी के किनारे एकत्रित होकर एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधने लगे।
गायन मण्डलियों ने वीर रस से ओत-प्रोत गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जागृत की। उस दिन पूरे बंगाल में हड़ताल रही। स्थान-स्थान पर आयोजित जन-सभाओं में बंगालियों ने प्रण लिया कि हम एक जाति की हैसियत से, अपने प्रांत के बँटवारे से पैदा हुए बुरे प्रभावों को दूर करने और अपनी जाति की एकता बनाये रखने के लिए शक्ति-भर सब-कुछ करेंगें।
कलकत्ता में एक फेडरेशन हॉल का शिलान्यास किया गया जिसमें समस्त जिलों की मूर्तियों को रखा गया। पृथक् किये गये जिलों की मूर्तियों को पुनः एक होने तक के लिये ढक दिया गया। अनेक स्थानों पर हड़ताल एवे उपवासों के आयेाजन किये गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बुनकर उद्योग की सहायता से राष्ट्रीय निधि की स्थापना की। विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए व्यापक अभियान आरम्भ हुआ। देश भर में बंग-भंग के विरोध में जनसभाएं आयोजित की गईं।
पूरा बंगाल वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठा। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और अधिक उग्र बना दिया। वन्देमातरम् के गीत पर नियन्त्रण व आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी से आन्दोलन ने अत्यधिक उग्र रूप धारण कर लिया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल ने समूचे बंगाल का दौरा करके जनता से अपील की कि वे बंग-भंग विरोधी अभियान को सफल बनायें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व इस समय भी उदारवादियों के हाथों में था किंतु कांग्रेस ने बंग-भंग की कटु आलोचना की। नवयुवकों और विद्यार्थियांे ने इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लिया।
लॉर्ड कर्जन और उनके सहयोगियों ने मुसलमानों को इस आन्दोलन से अलग रखने के प्रयास किये किंतु अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन, अब्दुल हलीम गजनवी, यूसुफ खान बहादुर, मुहम्मद इस्माइल चौधरी आदि नेताओं के नेतृत्व में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में भाग लिया।
मुसलमान नेताओं ने विशाल सभा का आयोजन करके प्रस्ताव पारित किया कि देश की उन्नति के लिए जो काम हिन्दू करेंगे, मुसलमान उसका समर्थन करेंगे, मुसलमान हिन्दुओं का साथ बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में ही नहीं अपितु दूसरे मामलों में भी देंगे, और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के प्रयोग का समर्थन करेंगे। इस पर अँग्रेजों ने उन अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को दंगे करने के लिये भड़काया जो अपने लिये एक मुस्लिम-बहुल प्रांत चाहते थे। इससे हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की स्थिति बिगड़ गई।
सरकार ने सार्वजनिक सभाओें पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अध्यापकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने छात्रों को इस आन्दोलन से दूर रखें। मैमनसिंह जिले में दो लड़कों पर केवल इसलिए जुर्माना किया गया कि वे वन्देमातरम् गा रहे थे। सरकार ने निजी शिक्षण संस्थाओं को धमकी दी कि जिस स्कूल के अधिकारी अपने छात्रों एवं अध्यापकों को इस आन्दोलन से अलग नहीं रखेंगे उनकी मान्यता समाप्त करके सरकारी सहायता बंद कर दी जायेगी।
इन स्कूलों के प्रबंधकों ने बहुत से छात्रों और शिक्षकों को स्कूलों से हटा दिया। सरकार ने बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को बन्दी बनाकर उन्हें अमानवीय सजाएं दीं। गोरी सरकार का भयावह चेहरा उस समय खुलकर सामने आया जब सरकार ने पूर्वी-बंगाल के मुसलमानों को हिन्दुओं पर आक्रमण करने तथा उन पर अत्याचार करने के लिये उकसाया। एक स्थान पर तो मुसलमानों ने ढोल-बजा-बजा कर घोषणा करवाई कि सरकार ने उन्हें, हिन्दुओं को लूटने एवं हिन्दू-विधवाओं के साथ विवाह करने की अनुमति दे दी है।
बंगाल के गवर्नर वैमफील्ड फुलर ने लोगों को भड़काने के लिये यह बयान दिया- ‘…… मेरी हिन्दू और मुस्लिम पत्नियों में, मुस्लिम पत्नी मेरी ज्यादा चहेती है।’
बंगाल में घटी इन घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए उन दिनों के प्रसिद्ध समाचार पत्र मार्डन रिव्यू ने लिखा था- ‘आन्दोलन-काल की घटनाएं समस्त सम्बन्धित पक्षों के लिए निन्दनीय हैं…….हिन्दुओं के लिए उनकी भीरूता के लिए, क्योंकि उन्होंने मन्दिरों के अपवित्रीकरण, मूर्तियों के खण्डन तथा स्त्रियों के अपहरण के विरुद्ध बल-प्रयोग नहीं किया, स्थानीय मुस्लिम जनता के लिए नीच व्यक्तियों के बाहुल्य के कारण और अँग्रेजी सरकार के लिए इस कारण कि उसके शासन में इस प्रकार की घटनाएँ बिना रोक-टोक के बहुत दिनों तक होती रहीं।’
उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के हाथों अंग्रेजों की उनकी ही राजधानी कलकत्ता में शिकस्त
बंग-भंग आंदोलन के दौरान लॉर्ड कर्जन ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी, जो उत्तरोतर गहरी होती गई और देश में साम्प्रदायिकता की भयानक समस्या उत्पन्न हो गई। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान अनेक स्थानों पर दंगे हुए तथा हिन्दुओं के साथ घोर अन्याय किया गया। अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर ई.1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई।
उदारवादी कांग्रेसी, गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व में तथा उग्रवादी कांग्रेसी, बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में अलग हो गये। उदारवादी गुट स्वयं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहने लगा जबकि उग्रवादी गुट द्वारा स्वयं को राष्ट्रीय पार्टी कहा गया। इस सम्मेलन के बाद सरकार ने बालगंगाधर तिलक, अरविंद घोष, लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल आदि को गिरफ्तार करके बंग-भंग आंदोलन को विफल करने का प्रयास किया।
ई.1909 में भारत सरकार ने मार्ले-मिण्टो एक्ट के माध्यम से बंग-भंग आंदोलन की हवा निकालनी चाही। वायसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को स्थान दिया गया, प्रान्तों के गवर्नरों की कार्यकारिणी में भारतीयों की संख्या बढ़ाई गई तथा विधान सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि करके मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व दिये गये। आरम्भ में नरम पंथी नेताओं ने इन सुधारों का स्वागत किया।
गोखले की धारणा थी कि सरकार का यह कदम निःसन्देह उदार एवं उचित है। वे अनुरोध कर रहे थे कि जनता उनको स्वीकार करे और सरकार का अभिनन्दन करे किंतु गर्मपंथी नेताओं का कहना था कि ये सुधार भारतीयों को मूर्ख बनाने के लिए किये गए थे।
शीघ्र ही उदारवादी नेता भी गर्मपंथी नेताओं से सहमत हो गए और कांग्रेस के ई.1910 के इलाहाबाद अधिवेशन में उदारवादी नेताओं द्वारा भी मार्ले-मिण्टो सुधार की कड़ी आलोचना की गई तथा उसे हिन्दुओं एवं मुसलमानों में फूट डालने वाला एवं साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने वाला बताया गया।
इस प्रकार बंग-भंग आन्दोलन चलता रहा। अंत में ई.1911 में अँग्रेज सरकार ने बंग-भंग को निरस्त करके इस आंदोलन को समाप्त करवाया। इस प्रकार राष्ट्रवादी भारतीयों ने अंग्रेजों को उन्हीं की राजधानी कलकत्ता में गहरी शिकस्त दे दी। इसलिए अंग्रेज उसी वर्ष अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली ले आए। यह भारतीयों की बड़ी जीत थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता