Saturday, July 27, 2024
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पाकिस्तान से आगे

लाखों लोगों के प्राणों की आहुति लेकर तथा लाखों लोगों को जीते-जी नर्क में धकेलकर पाकिस्तान तो बन गया किंतु पाकिस्तान की आगे की यात्रा आसान नहीं थी। अब तक पाकिस्तान निर्माण के लिए मुस्लिम लीग के नेताओं द्वारा अविभाजित भारत की मुस्लिम जनता को इस नाम पर जोड़े रखा गया था कि मुसलमानों का एक अलग देश होना चाहिए जहाँ भारत के समस्त मुसलमान आराम से रह सकें किंतु अब मुस्लिम लीग के नेताओं को अलग मुस्लिम देश मिल गया था और वे भारत से जा चुके थे।

भारत के अधिकांश धनी एवं शिक्षित मुसलमान अपनी इच्छा से भारत में रहे थे किंतु वे करोड़ों निर्धन एवं अशिक्षित मुसलमान जो पाकिस्तान जाना चाहते थे किंतु अपने काम-धंधों, खेतों-खलिहानों, ढोर-डंगरों और घर-नोहरों को छोड़कर जा नहीं पाए थे, उन्हें यह समझने में बहुत समय लगा कि उन्हें पाकिस्तान न तो कभी मिलना था और न मिल सकता है। निर्धन एवं अशिक्षित मुसलमानों के मन में यह भ्रम उत्पन्न किया गया था कि वे जहाँ बैठे हैं, उन्हें उनका पाकिस्तान वहीं मिल जाएगा। उन्हें यह भी कभी समझ में नहीं आया कि ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता था, न वे ये समझ पाए कि उन्हें मुस्लिम लीगी नेताओं द्वारा छला गया है।

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दूसरी ओर पाकिस्तान नामक नए मुल्क के मुसलमानों को जोड़े रखने के लिए मुस्लिम लीगी नेताओं को जो नया आधार चाहिए था, मुस्लिम लीगी नेता उससे वंचित थे। उनकी गोद में न केवल पाकिस्तान आ गिरा था अपितु कभी खत्म न होने वाली समस्याओं का एक नासूर भी उन्हें प्राप्त हो गया था। पूर्वी-पाकिस्तान और पश्चिमी-पाकिस्तान के बीच 1600 किलोमीटर की हवाई दूरी थी। एक ऐसी सरकार का ढांचा तैयार करना जो पंजाबी दबदबे वाले पश्चिमी-पाकिस्तान और बंगाली बोलने वाले पूर्वी-पाकिस्तान को एक साथ चला सके, मुश्किम काम था।

नवनिर्मित पाकिस्तान में उत्पन्न होने वाले कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण कारखाने भारत में रह गए थे। पाकिस्तान के हिस्से में विश्व के 75 प्रतिशत जूट उत्पादक क्षेत्र आए थे किंतु जूट का सामान तैयार करने वाली एक भी मिल पाकिस्तान को नहीं मिली, सारी मिलें भारत में रह गई थीं। अविभाजित भारत से पाकिस्तान को कपास के लगभग एक-तिहाई खेत मिल गए थे किंतु सूती मिलों का केवल तीसवां हिस्सा ही मिला था।

गैर मुस्लिम उद्यमी जिनका आजादी से पहले पाकिस्तान वाले क्षेत्र के व्यापार पर दबदबा था, अपने व्यापार बंद करके अपनी पूंजी के साथ भारत चले गए थे। जबकि भारत से बहुत कम मुस्लिम पूंजीपति पाकिस्तान आए थे। पूंजी के पलायन से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का दम घुटने लगा जिसे पाकिस्तान के नेताओं ने पाकिस्तान का आर्थिक तौर पर गला घोंटने की हिन्दू चाल समझा।

भारत में रह गए मुसलमानों के प्रश्न पर
जिन्ना द्वारा द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत का त्याग

पाकिस्तान निर्माण के बाद भी 3.54 करोड़ मुसलमान भारत में रह गए। अर्थात् अविभाजित भारत की कुल मुस्लिम जनसंख्या का लगभग एक तिहाई भाग। पाकिस्तान मुस्लिम लीग के अध्यक्ष खलीकउज्जमां ने लिखा है कि कराची के लिए रवाना होने से कुछ दिन पहले 1 अगस्त 1947 को मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने निवास 10 औरंगजेब रोड दिल्ली में संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों को विदाई पार्टी के लिए आमंत्रित किया।

इस अवसर पर मि. रिजवानउल्लाह ने जिन्ना से भारत में रह जाने वाले मुसलमानों के भविष्य एवं भारत में उनकी संवैधानिक स्थिति को लेकर प्रश्न पूछे। इन प्रश्नों को सुनकर जिन्ना विचलित हो गया, उसके पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था।

भावी पाकिस्तान का गवर्नर जनरल एवं पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्यक्ष घोषित किए जाने के बाद 11 अगस्त 1947 को जिन्ना द्वारा संविधान सभा में दिए गए भाषण में उसने द्विराष्ट्र के सिद्धांत को त्याग दिया। जिन्ना ने आश्चर्यजनक रूप से एकाएक सेक्यूलर घोषणा की- ‘आप देखेंगे कि वक्त के साथ देश के नागरिक की हैसियत से हिन्दू, हिन्दू नहीं रहेगा, मुसलमान मुसलमान नहीं रहेगा, धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, क्योंकि ये हर व्यक्ति का व्यक्तिगत ईमान है, बल्कि सियासी हैसियत से।’

जिन्ना की धर्म-निरपेक्षता के बदलते हुए रंगों का विश्लेषण करते हुए तारेक फतेह ने लिखा है- ‘भविष्य का पाकिस्तानी समान अधिकार, विशेषाधिकार और जिम्मेदारियों के साथ रंग, जाति, सम्प्रदाय या समुदाय से अलग केवल एक नागरिक होगा। राज्य के काम में धर्म की कोई भूमिका नहीं होगी। ये केवल किसी की व्यक्तिगत आस्था तक सीमित होगा।

….. चंद महीनों में उन्होंने (जिन्ना ने) अपना रास्ता बदल लिया और एक मध्ययुगीन अमीर की तरह बोलना शुरू कर दिया। इसमें उन्होंने अपने देश से इस्लाम की रक्षा के लिए गोलबंद होने की अपील की और इसके साथ ही अपने ही वादों की मौत का रास्ता साफ कर दिया। …… पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना सिर्फ एक साल रहे लेकिन इतने ही समय में उन्होंने एक सर्वोच्च प्रशासक के मानक तय कर दिए। लोकतांत्रिक नेताओं की बजाय मुगल शासकों की कार्य-प्रणाली अपनाकर।

……. क्या इस्लामिक राज्य का यही मॉडल था जिसका इंतजार 20वीं सदी के मुसलमान कर रहे थे? यह मनमाने तरीके से खलीफाओं के शासन जैसा था, जो गवर्नर जनरल के नाम से चलता था। इसमें विपक्ष के लिए कोई जगह नहीं थी, साथ ही धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को भी पूरी तरह छोड़ दिया गया था। जबकि कुछ ही महीने पहले इसके प्रति कटिबद्धता जताई गई थी।’

दो भाइयों का सहमति से हुआ बंटवारा था यह!

भारत-पाकिस्तान के विभाजन ने 5 से 10 लाख लोगों के प्राण ले लिए, 1.40 करोड़ लोग बे-घर हुए तथा एक करोड़ स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए किंतु भारत और पाकिस्तान दोनों ही तरफ के कुछ लोगों ने प्रेम और सहिष्णुता के नाम पर ढोंग और पाखण्ड की चादर को ओढ़े रखा। वे इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते थे कि यह दो जातियों के बीच चरम पर पहुंच चुकी नस्ली-घृणा का परिणाम था।

गांधीजी के पौत्र राजमोहन गांधी ने लिखा है- ‘बापू (गांधीजी) दोनों देशों के बीच अच्छे सम्बन्धों के लिए कम उत्साहित नहीं थे, वे मानते थे कि नया देश दो भाइयों के बीच सहमति से हुए बंटवारे से पैदा हुआ था।’

गांधीजी से उलट कुछ लोग बड़ी चतुराई से सच्चाई को स्वीकार भी करते हैं। अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने लिखा है- ‘ज्यादातर पाकिस्तानी और भारतीय एक-दूसरे को दुश्मन के तौर पर ही देखते हैं न कि हालात के चलते जुदा हुए दो भाइयों के तौर पर।

…… दोनों देशों के बीच तनाव के बीज काफी शुरुआत में पड़ गए थे। जिन्ना का मेल-मिलाप वाला रुख न तो मुस्लिम लीग में नजर आता था और न ही पाकिस्तान की सिविल और मिलिट्रि ब्यूरोक्रेसी में कहीं दिखाई पड़ता था। इन लोगों को विभाजन के दौरान पैदा हुई नफरत की भावना को बरकरार रखते हुए इस नए मुल्क को अपने अधिकार में रखना ज्यादा आसान लगता था। भारत के नेताओं, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की नए पाकिस्तान के प्रति बेरुखी के चलते खासतौर पर दोनों देशों के बीच संपत्तियों के बंटवारे के मामले में अनुदार होने से भी सम्बन्धों की सहजता कायम होना और कठिन हो गया।’

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