इस्लाम का जन्म (Birth of Islam) अरब में हुआ था। अरब के मुसलमानों ने इस्लाम को पूरी दुनिया में फैलाने का बीड़ा उठाया किंतु वे जल्दी ही थक गए। इस पर तुर्की गुलाम (Turkish slave) इस्लाम को भारत ले आए!
आठवीं सदी के आरम्भ में अरबों ने थल मार्ग से आकर सिन्ध प्रदेश (Sindh Region) को जीता था। लगभग दो सौ साल तक अरब के लोग इस्लाम को दूर-दूर तक फैलाने में लगे रहे किंतु उसके बाद अरबों का धार्मिक उत्साह शिथिल पड़ने लगा। इस अवधि में वे काफी समृद्ध हो गए थे तथा युद्धभूमि में लड़ने-मरने की बजाय अपने महलों में रहना अधिक पसंद करने लगे थे।
इस कारण इस्लाम के प्रसार-कार्य (Extension of Islam) का नेतृत्व, पहले ईरानियों के पास और उसके बाद तुर्कों के पास चला गया। सिंध में अरबों के प्रथम आक्रमण के लगभग 285 वर्ष बाद उत्तर-पश्चिमी दिशा से भारत भूमि पर तुर्कों के आक्रमण आरंभ हुए। तुर्कों के भारत में प्रवेश का इतिहास जानने से पहले हमें तुर्कों के प्रारम्भिक इतिहास के बारे में कुछ जानना चाहिए।
तुर्कों के पूर्वज हूण (Hun) थे तथा वे चीन की पश्मिोत्तर सीमा से लेकर यूराल एवं अल्ताई पर्वतों के बीच के विस्तृत क्षेत्र में रहते थे। उस काल में तुर्कों का सांस्कृतिक स्तर अत्यंत निम्न श्रेणी का था। कृषि एवं शिल्प से अल्प-परिचित होने के कारण वे अंत्यत खूंखार और लड़ाकू थे। लूट-खसोट ही उनके जीवन यापन का मुख्य साधन था।
इस कारण युद्ध से उन्हें स्वाभाविक प्रेम था। जब यूराल पर्वत से लेकर अल्ताई पर्वत तक के क्षेत्र का जलवायु इंसानों के रहने योग्य नहीं रहा तो ये तुर्क उस क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में जाने लगे। जब उन्होंने अपने पश्चिम में रहने वाले शकों के क्षेत्र में प्रवेश किया तो तुर्कों के रक्त में शकों के रक्त का भी मिश्रण हो गया।
कुछ तुर्की कबीले (Turkish Tribes) ईरान एवं अफगानिस्तान के उत्तर में जा बसे जहाँ अब तुर्कमेनिस्तान (Turkmenistan) नामक अगल देश बसा हुआ है। जब अरब वालों ने तुर्कों को इस्लाम के अंतर्गत लाना चाहा तो तुर्की लोग अरबों एवं इस्लाम दोनों के शत्रु हो गए। इस पर अरबों ने हजारों तुर्कों को पकड़ कर गुलाम बना लिया तथा उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
जो तुर्की-गुलाम (Turkish slave) मुसलमान बन जाते थे तथा खलीफा के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन करते थे, उन्हें खलीफा एवं अरबी सेनापतियों का अंगरक्षक नियुक्त किया जाने लगा क्योंकि ये लोग शरीर से ताकतवर एवं स्वभाव से लड़ाका थे। धीरे-धीरे तुर्की अंगरक्षकों की हैसियत बढ़ने लगी। अरब एवं ईरान के मुसलमानों ने उन तुुर्की गुलामों को उन्नति करने के अच्छे अवसर उपलब्ध करवाए जिन्होंने अपने अरबी एवं ईरानी स्वामियों की निष्ठापूर्वक सेवा की तथा इस्लाम (Islam) को पूरी तरह अपना लिया।
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प्रारम्भ में कुछ तुर्की गुलाम(Turkish slave), खलीफाओं एवं ईरानी जनरलों की छोटी सैनिक टुकड़ियों के मुखिया भी नियुक्त किये जाने लगे तथा उनके विवाह अरबी एवं ईरानी लड़कियों के साथ किए जाने लगे। इस प्रकार तुर्की लड़ाकों में अरब तथा ईरानियों के रक्त का भी मिश्रण हो गया। धीरे-धीरे तुर्की गुलाम (Turkish slave) खलीफा की सेना में उच्च पदों पर नियुक्त होने लगे। जब खलीफा निर्बल पड़ गए तो तुर्कों ने खलीफाओं से वास्तविक सत्ता छीन ली और खलीफा (Khalifa) नाम मात्र के शासक रह गए।
नौंवी शताब्दी ईस्वी के आते-आते इस्लाम के प्रचार के लिए, तुर्क कई शाखाओं में बँट गए। समानी वंश के तुर्कों ने ई.874 से 943 के बीच पूर्व में स्थित खुरासान, आक्सस नदी पार के देशों तथा अफगानिस्तान के विशाल भू-भागों पर अधिकार कर लिया। तुर्कों की एक शाखा ईरान को पार करके ईरान के पश्चिमोत्तर में स्थित एशिया माइनर में जा बसी जिसे एशिया कोचक, एशिया माइनर (Asia Minor or Anatolia) एवं तुर्की (Turkey) भी कहा जाता था। इन तुर्कों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य (Roman Empire) की राजधानी कुस्तुंतुनिया (Kustuntuniya) पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम बदलकर इस्ताम्बूल कर दिया। जब अरब के खलीफाओं की विलासिता के कारण इस्लाम के प्रसार का काम मंदा पड़ गया तब मध्यएशिया के तुर्क ही इस्लाम (Islam) को दुनिया भर में फैलाने के लिए आगे आए। उन्होंने 10वीं शताब्दी के आरम्भ में बगदाद एवं बुखारा में अपने स्वामियों अर्थात् खलीफाओं के तख्ते पलट दिए और ई.943 में अर्थात् दसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में, मध्यएशिया के विशाल भूभागों के साथ-साथ दक्षिण एशिया में स्थित अफगानिस्तान में भी अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। तुर्की कबीलों में कुछ परम्पराएं बड़ी विचित्र थीं। तुर्की सरदार अपने दरबार तथा अपने निजी महलों में तुर्की गुलामों को नियुक्त करते थे।
इन गुलामों को अपनी प्रतिभा के अनुसार उन्नति करने के अवसर मिलते थे। यदि कोई तुर्की गुलाम (Turkish slave) अत्यधिक प्रतिभाशाली होता था तो तुर्की सरदार उसके साथ अपनी शहजादियों के विवाह भी कर देते थे। कई बार ऐसा भी होता था कि ये तुर्की गुलाम अन्य तुर्की शहजादों के बराबर ही उत्तराधिकार का हक रखते थे।
दसवीं शताब्दी ईस्वी में अफगानिस्तान में गजनी (Ghazni) नामक एक छोटा सा प्राचीन दुर्ग था जिसका निर्माण किसी समय भारत के यदुवंशी भाटियों के राजा गजसिंह ने किया था। इस दुर्ग में ई.943 में तुर्की गुलाम अलप्तगीन ने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। अलप्तगीन अफगानिस्तान के समानी वंश के तुर्क शासक ‘अहमद’ का तुर्की गुलाम था। अलप्तगीन का वंश ‘गजनवी वंश’ कहलाया।
गजनी का राज्य स्थापित करने के बाद तुर्क, भारत की ओर आकर्षित हुए। ई.977 में अलप्तगीन (Alp Tegin) के तुर्की गुलाम (Turkish slave) एवं दामाद सुबुक्तगीन (Sabuktigin) ने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। उस समय भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर हिन्दूशाही वंश (Hindu Shahi Dynasty) का राजा जयपाल शासन कर रहा था। उसका राज्य पंजाब से लेकर हिन्दूकुश पर्वत तक विस्तृत था। गजनी के सुल्तान सुबुक्तगीन (Sabuktigin) ने एक विशाल सेना लेकर पंजाब प्रांत पर आक्रमण किया। राजा जयपाल को उससे संधि करनी पड़ी।
जयपाल ने सुबुक्तगीन (Sabuktigin) को 50 हाथी देने का वचन दिया किंतु बाद में जयपाल ने संधि की शर्तों का पालन नहीं किया। इस पर सुबुक्तगीन ने भारत पर दुबारा आक्रमण करके लमगान तक के प्रदेश को लूट लिया। सुबुक्तगीन का वंश गजनी वंश कहलाता था। ई.997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई।
इस प्रकार तुर्की गुलामों (Turkish slave) ने भारत में इस्लाम (Islam) के प्रवेश का रास्ता फिर से खोल दिया तथा जो काम अरबों ने अधूरा छोड़ दिया था, उसे तुर्कों ने आगे बढ़ाया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता




