Thursday, April 18, 2024
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क्यों नहीं हो सकती भारत से दोस्ती?

3 जून 1947 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में माउंटबेटन योजना को स्वीकार करते समय भारत-विभाजन की योजना को अस्थाई समाधान बताया गया तथा आशा व्यक्त की गई कि जब नफरत की आंधी थम जाएगी तो भारत की समस्याओं को सही दृष्टिकोण से देखा जाएगा और फिर द्विराष्ट्र का ये झूठा सिद्धांत हर किसी के द्वारा अस्वीकार कर दिया जाएगा। जिन्ना के कराची चले जाने के बाद सरदार पटेल ने कहा था कि- ‘मुसलमानों की जड़ें, उनके धार्मिक स्थान और केंद्र भारत में हैं, मुझे पता नहीं कि वे पाकिस्तान में क्या करेंगे। बहुत जल्दी वे हमारे पास लौट आयेंगे।’ पाकिस्तान बन जाने के बाद महर्षि अरविंद ने कहा था कि भारत फिर से अखण्ड होगा, यह विभाजन अप्राकृतिक है, यह रह नहीं सकता।

गांधीजी ने कहा था- ‘पाकिस्तान का भारत से अलग होना ठीक वैसा ही है जैसे घर का कोई सदस्य घर से अलग होकर अपने स्वयं के घर में चला गया हो। हमें पाकिस्तानियों का दिल जीतने की जरूरत है न कि उसे मूल परिवार से अलग-थलग करने की।’

तमाम हिन्दूवादी शक्तियां जो हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र मानती आई हैं, वे भी पाकिस्तान के बनने के बाद से अखण्ड भारत के पुनर्निर्माण का स्वप्न देख रही हैं किंतु विगत 72 वर्षों से भारत एवं पाकिस्तान के बीच जैसा विषाक्त वातावरण बना हुआ है, उससे लगता नहीं है कि अखण्ड भारत के पुनर्निर्माण की कल्पना कभी सत्य सिद्ध होगी या भारत एवं पाकिस्तान के बीच कभी दोस्ती जैसा कोई सम्बन्ध विकसित होगा।

भारत-पाकिस्तान के सम्बन्ध सामान्य नहीं होने के वही कारण आज भी मौजूद हैं जो उनके अलग होने के समय मौजूद थे। एक दूसरे के प्रति घृणा और अविश्वास आज भी बना हुआ है। भारत और पाकिस्तान की जनता के बीच स्थाई रूप से विद्यमान इस घृणा को पाकिस्तानी राजनेता ‘कभी न एक्सपायर होने वाले तथा बार-बार एनकैश किए जा सकने वाले चैक’ की तरह भुनाते हैं। भारत-पाकिस्तान में दोस्ती क्यों नहीं हो सकती, इस विषय पर अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने लिखा है- ‘भारत और पाकिस्तान की साझा विरासत के बारे में किसी भी बातचीत को सीधे तौर पर पाकिस्तान की बुनियाद पर हमला माना गया, इसे एक अलग राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान की पहचान को खत्म करने की साजिश समझा गया।’

यह कैसी विचित्र विडम्बना है कि यदि दोनों में से किसी भी तरफ, भारत और पाकिस्तान को एक समझने या एक बताने का प्रयास किया जाता है तो दोनों तरफ से विरोध होता है और यदि इन्हें अलग-अलग बताने का प्रयास किया जाता है तो भी दोनों तरफ से विरोध होता है। इस मामले में जवाहरलाल नेहरू का दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट जान पड़ता है। जनवरी 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए गए एक भाषण में जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि- ‘भारत पाकिस्तान के अलग देश होने के सम्बन्ध में सवाल खड़े नहीं करता। यदि आज किसी भी तरीके से मुझे भारत और पाकिस्तान को फिर से एक करने का मौका दिया जाए तो मैं इसे तुरंत ठुकरा दूंगा, वजह बिल्कुल साफ है। मैं मुश्किलों से भरे पाकिस्तान की दुश्वारियों का बोझ नहीं उठाना चाहता। मेरे पास अपने मुल्क की बहुत समस्याएं हैं। किसी भी तरह का करीबी सहयोग एक सामान्य तरीके से पैदा होना चाहिए और ऐेसे दोस्तान ढंग से जिसमें पाकिस्तान एक राज्य के तौर पर खत्म न किया जाए अपितु उसे एक बड़े संघ में बराबर का साझीदार बनाया जा सके जिसमें दूसरे कई देश भी जुड़ सकें।’

हक्कानी ने भारत-पाकिस्तान के बीच दोस्ती नहीं पनपने का दोष नेहरू एवं पटेल पर डाल दिया है- ‘नेहरू और उनके ताकतवर गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने हालांकि पाकिस्तान के प्रति ऐसा तिरस्कार दिखाया जैसा मुगल बादशाह अपने बागी सूबों के साथ भी नहीं दिखाते थे, पाकिस्तान को अंग्रेजों के इशारों पर इस उपमहाद्वीप के टुकड़े करने का दोषी बताने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। पटेल ने एक अलग राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान के टिके रह पाने की संभावना पर खुले आम शक जाहिर किया और इस बात पर जोर देते रहे कि देर-सवेर हम फिर से अपने राष्ट्र के प्रति अधीनता दिखाते हुए एक हो जाएंगे। साफतौर पर यह संकेत अखण्ड भारत के लिए था।’

पटेल ने दिसम्बर 1950 में अपनी मृत्यु से पूर्व भारतीयों को याद दिलाया था- ‘मत भूलो कि तुम्हारी भारत माता के अहम अंगों को काट दिया गया है।’ इनमें से किसी भी आश्वासन से पाकिस्तान के उच्च वर्ग को शांत करने में सहायता नहीं मिली। पाकिस्तानी नेता यही मानते रहे कि भारत का अंतिम रणनीतिक लक्ष्य पाकिस्तान को फिर से खुद में मिला लेना है।

हक्कानी ने इसके लिए भारत से पाकिस्तान आए नेताओं को भी दोषी बताया है- ‘नए देश की कमान संभालने वाले बहुत से नेता भारत से पालयन करके आए थे और उस क्षेत्र के निवासी नहीं थे जो कि अब पाकिस्तान बन चुका था। इस कारण उन्होंने पाकिस्तान के विचार को और अधिक मजबूत तरीके से पेश किया ताकि उससे उनका रिश्ता आसानी से जुड़ सके। उन्होंने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच कभी न खत्म हो सकने वाले टकराव और दो राष्ट्रों के सिद्धांत पर विशेष जोर दिया। उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ हरियाणा की एक छोटी सी रियासत का नवाब था, उसने बार-बार दोहराया कि पाकिस्तान ही वह देश हो सकता था जहाँ पर इस्लामी तौर-तरीके लागू किए जा सकते थे और मुसलमान अपनी काबिलियत के हिसाब से रह सकते थे। ठीक ऐसे ही विचार भारत से आए समस्त अन्य मंत्रियों ने भी प्रकट किए। प्रशासनिक सेवा के प्रमुख चौधरी मुहम्मद अली ने भी यही कहा जो जालंधर से आया था। पाकिस्तान को इस्लाम का गढ़ बताना और ‘हिन्दू-भारत’ को ‘मुस्लिम-पाकिस्तान’ से अलग बताना उन सवालों से मुँह तोड़ने का आसान तरीका था कि आखिर जो लोग यूपी, दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता जैसी जगहों पर पैदा हुए और वहाँ लगभग पूरी जिंदगी बिता दी थी, आखिर एक ऐसे देश को क्यों भाग रहे थे जहाँ ऐसी जगहें नहीं थीं।’

गुलाम मुर्तजा सईद जो कि सिंध की विख्यात शख्सियत था, उसने अपने सूबे में बाहर से आए अजनबियों को भारी तादाद में बसाए जाने की आलोचना की थी, ये अजनबी लोग बंटवारे के बाद भागकर आए पंजाबी और उर्दू बोलने वाले मोहाजिर थे, उन्हें सिंधी बोलनी नहीं आती थी। पख्तून नेता अब्दुल गफ्फार खान ने इन नेताओं की यह कहकर आलोचना की थी कि उन्होंने आम पाकिस्तानी लोगों को कब्जे में रखने के लिए उनकी जिंदगी को दंगों, हमलों और जिहाद में उलझा कर रख दिया।

हुसैन हक्कानी ने भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों की वास्तविकता बताते हुए लिखा है- ‘जब दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ सीधे तौर पर कोई गड़बड़ी नहीं करते हैं, तब दोनों परमाणु शक्ति सम्पन्न देश एक दूसरे से शीत युद्ध में लगे रहते हैं। पिछले कई सालों से दोनों देशों के नेता मौके-बेमौके मुलाकात करते रहते हैं, आमतौर पर ये मुलाकातें किसी अंतर्राष्ट्रीय बैठक के मौके पर होती हैं और इनमें आधिकारिक स्तर पर बातचीत को फिर से शुरू करने का ऐलान होता है। कुछ दिनों में भारत में एक आतंकवादी हमला होता है जिसके तार पाकिस्तान में मौजूद जिहादी गुटों से जुड़े होते हैं, यह आपसी बातचीत के इस माहौल को खत्म कर देता है, या फिर जम्मू-काश्मीर से लगी लाइन ऑफ कंट्रोल पर युद्धविराम के उल्लंघन के आरोप लगने लगते हैं।’

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