Wednesday, September 17, 2025
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बैरम खाँ का विद्रोह

हुमायूँ ने बैरम खाँ को अल्पवय अकबर का संरक्षक नियुक्त किया था। बैरम खाँ ने ही अकबर को उसके पिता का खोया हुआ राज्य फिर से दिलवाया था किंतु जैसे ही अकबर वयस्क हुआ, उसने बैरम खाँ से छुटकारा पाने का प्रयास किया। बैरम खाँ का विद्रोह मूलतः इसी कारण हुआ था।

बैरम खाँ से संघर्ष

बैरम खाँ ने अपने चार वर्षों के शासन काल में अकबर को न केवल उसकी समस्त प्रारम्भिक कठिनाइयों से मुक्त करके उसकी स्थिति को अत्यन्त सुदृढ़ बना दिया था अपितु उसके राज्य का विस्तार करके उसे काबुल से जौनपुर तथा कश्मीर से अजमेर तक बढ़ा दिया था। ग्वालियर जीत लिया गया था और रणथम्भौर तथा मालवा को नत-मस्तक करने का पूरा प्रयत्न किया गया था। इस प्रकार बैरमखाँ ने संकट-काल में बादशाह की बड़ी श्लाघनीय सेवाएँ की थीं।

बैरम खाँ से संघर्ष के कारण

अकबर और बैरम खाँ के बीच संघर्ष के कई कारण थे-

(1.) अकबर की महत्वाकांक्षा

अल्पवयस्क होने के कारण अकबर अब तक बैरम खाँ के निर्देशन में ही कार्य करता आया था किंतु जब वह साढ़े सत्रह वर्ष का हुआ तो उसमें स्वतंत्र रूप से राज्य-कार्य करने की इच्छा बलवती होने लगी।

(2.) बैरम खाँ की स्वतंत्र प्रकृति

बैरम खाँ स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति था। वह अपने निर्णय स्वयं लेता था तथा उन्हें लागू करता था। अकबर इसे सहन नहीं कर पाता था।

(3.) बैरम खाँ की सफलताएँ

लगातार मिलती जा रही सफलताओं के कारण शासन की वास्तविक शक्ति बैरमखाँ में केन्द्रित होकर रह गई थी। यह बात अकबर से सहन नहीं होती थी।

(4.) अमीरों की महत्वाकांक्षाएँ

बैरम खाँ की स्वतंत्र प्रवृत्ति से तुर्की अमीर, असंतुष्ट एवं भयभीत रहते थे। वे शासन में हिस्सेदारी चाहते थे। बैरमखाँ उनके मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट था इसलिये वे बैरमखाँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे।

(5.) हरम की महत्वाकांक्षाएँ

बैरम खाँ की स्वतंत्र प्रवृत्ति से बादशाह की धायतें और हरम की बेगमें अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर पाती थीं। उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि प्रधानमन्त्री बैरम खाँ उनकी उपेक्षा करता था और उन्हें खर्च के लिए पर्याप्त धन नहीं देता था।

(6.) शिया होने का आरोप

बैरम खाँ के विरुद्ध आरोप था कि वह शिया होने के कारण शिया मुसलमानों को राज्य में ऊँचे-ऊँचे पद देता था। इससे सुन्नी अमीर असन्तुष्ट थे।

(7.) पीर मुहम्मद का निर्वासन

इसी समय बैरम खाँ ने पीर मुहम्मद खाँ शर्वानी को पदच्युत करके उसे निर्वासित कर दिया और उसके स्थान पर एक ईरानी को नियुक्त कर दिया। इससे तुर्की सुन्नी अमीरों में खलबली मच गई और उन्होंने बादशाह के कान भरे। अकबर ने बैरम खाँ के इस कार्य पर असन्तोष प्रकट किया। क्योंकि किसी अमीर को पदच्युत करने तथा नियुक्त करने का अधिकार बादशाह के पास ही था। इस कारण अकबर ने बैरम खाँ को पदच्युत करने का निश्चय कर लिया।

(8.) अकबर तथा असंतुष्ट अमीरों में गठबंधन

अकबर तथा तुर्की अमीरों में बैरम खाँ की सत्ता को समाप्त करने केे लिए गठबन्धन हो गया।

18 मार्च 1560 को अकबर ने आखेट के बहाने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। 27 मार्च को वह दिल्ली पहुँचा। अकबर ने दिल्ली से एक फर्मान निकाल कर बैरमखाँ को पदच्युत कर दिया और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जब बैरम खाँ को इसकी सूचना मिली तो वह आश्चर्य चकित रह गया।

बैरम खाँ का विद्रोह

बैरम खाँ ने अकबर से मिलने का प्रयास किया परन्तु अकबर ने मिलने से मना कर दिया। विवश होकर बैरम खाँ ने विद्रोह कर दिया। वह आगरा से बीकानेर चला गया जहाँ से वह पंजाब गया। पंजाब में उसका शाही सेना से संघर्ष हुआ जिसमें बैरम खाँ परास्त होकर शिवालिक की पहाड़ियों में भाग गया। अकबर ने स्वयं उसका पीछा किया। निराश होकर अक्टूबर 1560 में बैरमखाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया।

बैरम खाँ को क्षमादान

बैरम खाँ ने अकबर तथा उसके परिवार की जो सेवाएँ की थीं वे अकबर के हृदय पटल पर अंकित थीं। इसलिये जब मुनीम खाँ, बैरमखाँ को पकड़कर अकबर के सामने लाया तो अकबर ने बड़े सम्मान के साथ अपने संरक्षक का आलिंगन किया तथा उसे अपने दाहिनी ओर बैठाकर उसे अपने राजसी वस्त्र से पुरस्कृत किया। बादशाह के इस सद्व्यवहार से बैरमखाँ के नेत्रों से आँसू बहने लगे।

फरिश्ता के अनुसर अकबर ने बैरम खाँ के समक्ष तीन प्रस्ताव रखे- (1.) बैरमखाँ कालपी तथा चन्देरी की सूबेदारी स्वीकार कर ले। (2.) बैरमखाँ बादशाह के दरबार में सम्मानपूर्वक रहे। (3.) बैरमखाँ मक्का की यात्रा पर चला जाये जिसके लिए धन तथा संरक्षकों से उसकी सहायता की जायेगी।

मक्का जाने का निश्चय

बैरम खाँ साम्राज्य का प्रधानमंत्री, खान-ए-खानान तथा सर्वेसर्वा रह चुका था इसलिये उसे प्रथम दो प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुए, उसने बादशाह के तीसरे प्रस्ताव को स्वीकार करके मक्का जाने का निश्चय किया।

बैरम खाँ की हत्या

अकबर ने बैरम खाँ की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था कर दी परन्तु बैरम खाँ के भाग्य में मक्का पहुँचना नहीं लिखा था। जब वह गुजरात में पाटन नामक स्थान पर पहुँचा तब 31 जनवरी 1569 को मुबारक खाँ लोहानी नामक एक अफगान ने, जिसके पिता की हत्या बैरम खाँ ने की थी, अपने कुछ साथियों के साथ बैरम खाँ पर आक्रमण कर दिया।

मुबारक ने छल से बैरम खाँ को छुरा भोंक दिया और उसके एक साथी ने बैरम खाँ के सिर को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार बैरम खाँ की जीवन लीला समाप्त हो गई और अकबर का स्वतन्त्र शासन आरम्भ हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल आलेख – मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापनाजलालुद्दीन मुहम्मद अकबर

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