हुमायूँ का चरित्र उसकी अच्छाइयों एवं कमजोरियों का सम्मिश्रण था। मूलतः वह एक अच्छा इंसान था किंतु साथ ही प्रमादी अर्थात् आलसी प्रवृत्ति का भी था।
हुमायूँ की अच्छाइयाँ
(1.) सुशिक्षित एवं सभ्य
व्यक्ति के रूप में हुमायूँ सरल हृदय, सहज विश्वासी, परिवार से प्रेम करने वाला, सुशिक्षित तथा सभ्य व्यक्ति था। वह उच्च कोटि का साहित्यानुरागी था और साहित्यकारों को आदर की दृष्टि से देखता था। उसकी बहिन गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा लिखा तथा उसके समकालीन मिर्जा हैदर ने तारीखे रशीदी नामक ग्रंथ लिखा।
हुमायूँ को भूगोल, गणित, ज्योतिष तथा मुस्लिम धर्मशास्त्र में अच्छी रुचि थी। हुमायूँ ने दिल्ली में एक सुन्दर पुस्तकालय का निर्माण करवाया था जिसे दीनपनाह कहते थे। वह उच्च कोटि का दानशील था। उसकी उदारता से उसके शत्रु भी लाभान्वित हो जाते थे। इन सब गुणों से स्पष्ट होता है कि हुमायूँ का चरित्र उच्च था।
(2.) उपकार मानने वाला
बादशाहों में उपकार मानने और कृतज्ञता अनुभव करने की भावना प्रायः कम ही होती है किंतु हुमायूँ ने अपना उपकार करने वालों के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया। जिस भिश्ती ने कर्मनाशा नदी में हुमायूँ को डूबने से बचाया, उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये हुमायूँ ने उसे आधे दिन के लिये आगरा के तख्त पर बैठाया। उसने बैरमखाँ की सेवाओं का सम्मान करते हुए उसके शिया होते हुए भी उसे कन्दहार का शासक नियुक्त किया।
(3.) वचन का पक्का
हुमायूँ ने अपने पिता को दिये हुए वचन की पालना करने के लिये सदैव अपने विद्रोही भाइयों को क्षमा किया। हुमायूँ ने विद्रोही हिन्दाल को क्षमा करके अपने साथ मिला लिया। हुमायूँ ने फारस वालों को मिर्जा अस्करी सौंपने से मना कर दिया। जब हुमायूँ के अमीर कामरान के प्राण लेने की सलाह दे रहे थे, हुमायूँ ने उसे अंधा करके हज पर जाने की अनुमति दे दी। उसने अस्करी को भी मक्का चले जाने की अनुमति दे दी।
(4.) विलासी व्यक्ति
हुमायूँ विलासी प्रवृत्ति का शासक था। वह जीत के मैदान में ही जश्न मनाने लग जाता था। अफीम का शौकीन था। स्त्रियों के प्रति अनुरक्त रहता था। उसने कई विवाह किये। उसने हिन्दाल के विरोध के बावजूद हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री हमीदा बानू से विवाह किया जो उम्र में बहुत छोटी थी तथा उसके कंधों तक भी मुश्किल से पहुँचती थी। हुमायूँ ने फारस के शाह की बहिन की पुत्री से भी विवाह किया जो शिया मुसलमान थी। इससे स्पष्ट होता है कि हुमायूँ का चरित्र प्रमाद एवं विलास से ग्रस्त था।
(5.) उत्साही योद्धा
अपनी परिस्थतियों एवं दुर्भाग्य के बावजूद हुमायूँ में सैनिक प्रतिभा विद्यमान थी। पानीपत के प्रथम युद्ध में वह सेना के एक पक्ष का सेनापति था और उसने सफलतापूर्वक युद्ध किया था। वह भारत के अन्य युद्धों में भी अपने पिता की तरफ से लड़ा। बाबर की मृत्यु के उपरान्त भी उसने राजपूतों तथा अफगानों से बड़ी सफलतापूर्वक युद्ध किये।
वह मालवा तथा गुजरात के प्रचुर साधन सम्पन्न प्रान्तों के शासक बहादुरशाह को खदेड़ता ही चला गया था और उसके सम्पूर्ण राज्य पर अधिकार कर लिया था। उसने पूर्व के अफगानों को भी नतमस्तक कर दिया था। प्रारम्भ में शेर खाँ को भी हुमायूूूँ से लड़ने का साहस नहीं हुआ था और हुमायूँ तेजी से विजय करता हुआ गौड़ तक पहुँच गया किंतु चुनार को जीतने में विलम्ब तथा हिन्दाल के विद्रोह के कारण हुमायूँ को चौसा के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा।
(6.) हारी हुई बाजी जीतने वाला
फारस पहुँचकर भी हुमायूँ चुप नहीं बैठा। उसने फिर से भारत विजय की योजना बनाई तथा फारस के शाह की बहिन की सहायता से फारस से सैन्य सहायता प्राप्त की। जब हुमायूँ को फारस के शाह से सैन्य सहायता प्राप्त हो गई तब उसे कन्दहार जीतने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
उसने फारस वालों की अनुचित मांगें अस्वीकार करके अपने बल पर काबुल तथा बदख्शाँ को जीतते हुए भारत में प्रवेश किया। अफगास्तिान से दिल्ली तक के मार्ग में उसने स्थान-स्थान पर अफगान सेनाओं से युद्ध किये। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि हुमायूँ में सैनिक गुणों का अभाव नहीं था और वह हारी हुई बाजी को फिर से जीतने का हौंसला रखता था।
हुमायूँ की भूलें
हुमायूँ जीवन भर एक के बाद एक भूल करता रहा जिनके गंभीर परिणाम निकले।
(1.) साम्राज्य का बंटवारा
हुमायूँ ने सबसे बड़ी भूल अपने भाइयों में साम्राज्य का बंटवारा करके की। इससे आर्थिक आय का आधार समाप्त हो गया। सैनिक शक्ति कमजोर हो गई तथा भाई स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करने लगे।
(2.) साम्राज्य का असमान बंटवारा
हुमायूँ ने दूसरी भूल राज्य का असमान बंटवारा करके की। कामरान को उसने पंजाब, काबुल तथा कांधार जैसे विस्तृत प्रदेश दे दिये जबकि उसने अस्करी को सम्भल एवं हिन्दाल को अलवर का राज्य दिया। इस असमान वितरण से कामरान अत्यधिक शक्तिशाली हो गया और वह हुमायूँ से प्रतिस्पर्धा करने लगा। दूसरी ओर अस्करी एवं हिन्दाल छोटी जागीरें मिलने से असंतुष्ट हो गये।
(3.) मिर्जाओं को भाग जाने का अवसर देना
हुमायूँ ने असंतुष्ट एवं विद्रोही मिर्जाओं को भागकर गुजरात के बादशाह से मिल जाने का अवसर दिया। इससे बहादुरशाह की ताकत बहुत बढ़ गई। हुमायूँ ने यदि विद्रोही मिर्जाओं पर समय रहते नियंत्रण पा लिया होता तो उसे आगे चलकर इतने बुरे दिन नहीं देखने पड़ते।
(4.) कालिंजर अभियान
हुमायूँ का कालिंजर अभियान उसकी असफलताओं की शुरुआत कहा जा सकता है। इस अभियान से कोई परिणाम नहीं निकला। राज्य की सामरिक शक्ति क्षीण हुई, बादशाह की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। कालिंजर के राजा को अधीन नहीं किया जा सका। यहाँ तक कि उसे मित्र भी नहीं बनाया जा सका।
(5.) चुनार का दुर्ग शेर खाँ को सौंपना
हुमायूँ ने ही शेर खाँ को पनपने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई तथा उसकी बातों में आकर चुनार का दुर्ग उसी को सौंप दिया। इससे शेर खाँ एक सामान्य जागीरदार से विशेष सेनानायक बन गया।
(6.) चित्तौड़ की सहायता नहीं करना
गुजरात के शासक बहादुरशाह के विरुद्ध चित्तौड़ की सहायता का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना, हुमायूँ की बड़ी भूल थी। इससे उसने राजपूतों को मित्र बनाने का अवसर खो दिया।
(7.) चम्पानेर का धन बर्बाद करना
चम्पानेर से हुमायूँ को पर्याप्त धन मिला था किंतु हुमायूँ ने उस धन को दावतें देने तथा आमोद-प्रमोद में नष्ट कर दिया।
(8.) सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाना
हुमायूँ ने कन्नौज में अपना सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाया। उसके दुर्भाग्य से मई के महीने में भी तेज बारिश हो गई और उसका सैनिक शिविर पानी से भर गया।
(9.) हमीदा बानू से विवाह
हमीदा बानू, हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री थी। इसलिये हिन्दाल नहीं चाहता था कि हुमायूँ उससे विवाह करे किंतु हुमायूँ ने उसकी बात नहीं मानी और हिन्दाल नाराज होकर हुमायूँ का साथ छोड़ गया। हुमायूँ की लम्पटता देखकर अन्य साथी भी हुमायूँ का साथ छोड़ गये। इसका परिणाम यह हुआ कि हुमायूँ को उसके ही भाइयों ने भारत से बाहर भाग जाने पर विवश कर दिया।
(10.) कमजोर प्रशासक
हुमायूँ अपने शासन के आरम्भिक दस वर्षों में युद्धों में इतना व्यस्त रहा कि उसने प्रजा को अच्छा शासन देकर अपने अधिकारियों एवं जन सामान्य का विश्वास जीतने का प्रयास ही नहीं किया। जब वह दुबारा भारत का बादशाह बना तब तक शेरशाह ने ऐसे संगठित तथा व्यवस्थित शासन की स्थापना कर दी थी कि हुमायूं को प्रशासकीय प्रतिभा दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उसकी अकाल मृत्यु ने भी उसे इससे वंचित कर दिया।
इस प्रकार हुमायूँ एक कमजोर प्रशासक सिद्ध हुआ। अतः स्पष्ट होता है कि हुमायूँ का चरित्र अच्छाइयों एवं दुर्बलताओं का सम्मिश्रण था।
हुमायूँ का दुर्भाग्य
हुमायूँ का शाब्दिक अर्थ होता है सौभाग्यशाली परन्तु वास्तव में वह सौभाग्यशाली नहीं था। उसके भाग्य ने बहुत कम अवसरों पर उसका साथ दिया।
लेनपूल ने लिखा है- ‘एक बादशाह के रूप में वह असफल रहा। उसके नाम का अर्थ है सौभाग्यशाली परन्तु कोई भी दुर्भाग्यशाली व्यक्ति इतने गलत नाम से नहीं पुकारा गया है।’
भारत में उसके पिता ने जिस नये साम्राज्य की स्थापना की थी उसे खो देने का अपयश हुमायूँ को ही मिला। यद्यपि बाबर से हुमायूँ को एक सुसंगठित साम्राज्य प्राप्त नहीं हुआ था परन्तु उसे अपने पिता से मुगलों की विशाल एवं कुशल सेना अवश्य प्राप्त थी जिसकी सहायता से वह अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य को न केवल सुरक्षित रख सकता था अपितु उसमें वृद्धि भी कर सकता था।
बाबर ने अफगानों तथा राजपूतों की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया था परन्तु हुमायूँ अपने पिता के साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सका और अफगानों ने उसे परास्त करके एक बार फिर से भारत में अफगान राज्य की स्थापना कर दी थी।
निष्कर्ष
हुमायूँ के सम्पूर्ण जीवन वृत्त को देखने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हुमायूँ की विफलता का कारण उसकी प्रतिकूल परिस्थियतियाँ ही थीं जिनको वह अपने अनुकूल नहीं बना सका। यह उसका बहुत बड़ा दुर्भाग्य था।
फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त कर लिया किंतु दुर्भाग्य ने अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ा और दिल्ली पर अधिकार करने के छः माह पश्चात् ही वह सीढ़ियों से गिरकर बुरी तरह घायल हो गया और मर गया।
मूल आलेख – मुगल सल्तनत की अस्थिरता का युग
हुमायूँ का पलायन एवं भारत वापसी
हुमायूँ का चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन



