उत्तरी भारत की विजय (1299-1305 ई.)
लक्ष्य निश्चित कर लेने के उपरान्त अलाउद्दीन ने साम्राज्य विस्तार का कार्य आरम्भ किया। सर्वप्रथम उसने उत्तरी भारत को जीतने की योजना बनाई।
(1.) गुजरात पर विजय: सर्वप्रथम अलाउद्दीन की दृष्टि गुजरात के अत्यन्त धन-सम्पन्न राज्य पर पड़ी। इन दिनों गुजरात में बघेला राजा कर्ण शासन कर रहा था। उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ा थी। अलाउद्दीन ने 1299 ई. में उलूग खाँ तथा नुसरत खाँ को कर्ण बघेला पर आक्रमण करने भेजा। इन सेनापतियों ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा को घेर लिया। कर्ण भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ। मुसलमानों ने गुजरात को खूब लूटा और लूट की अपार सम्पत्ति दिल्ली लाई गई। कर्ण बघेला ने अपनी पुत्री देवल देवी के साथ देवगिरी के राजा रामचन्द्र के यहाँ शरण ली। कर्ण की रानी कमला देवी तथा मलिक काफूर नामक एक सुंदर युवक, दिल्ली की सेना के हाथ लगे। उन दोनों को सुल्तान के पास दिल्ली भेज दिया गया। अलाउद्दीन ने कमला देवी को अपने हरम में डाल लिया तथा मलिक काफूर को अप्राकृतिक संसर्ग के लिये रख लिया। जब शाही सेना गुजरात से लूट का माल लेकर दिल्ली लौट रही थी तो कुछ नव-मुसलमानांे ने इस खजाने को लूट लिया तथा तथा नुसरत खाँ के एक भाई और अलाउद्दीन के भतीजे को मारकर भाग गये। विद्रोही मंगोलों ने रणथंभौर के दुर्ग में शरण ली। शाही सेना ने बर्बरता से विद्रोहियों का दमन किया। दिल्ली में रह रहे उनके परिवारों को भी नृशंसता पूर्वक मारा गया। उनकी स्त्रियों का सतीत्व लूट लिया गया तथा बच्चों को उनकी माताओं के सामने ही टुकड़े करके फैंक दिया गया। बरनी ने अलाउद्दीन की इस क्रूरता की निंदा की है।
(2.) रणथम्भौर पर विजय: गुजरात पर अधिकार कर लेने के उपरान्त अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इन दिनों रणथम्भौर में पृथ्वीराज चौहान का वंशज हम्मीर शासन कर रहा था। उसने जालोर से शाही खजाना लूटकर भागे नव-मुस्लिमों को अपने यहाँ शरण दी थी। अलाउद्दीन खिलजी ने 1299 ई. में उलूग खाँ तथा नसरत खाँ को रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। हम्मीर ने दुर्ग के अन्दर से रक्षात्मक युद्ध करने का निश्चय किया। अलाउद्दीन के सेनापतियों ने दुर्ग का घेरा डाल दिया। घेरे का निरीक्षण करते समय अचानक नसरत खाँ को एक पत्थर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। राजपूतों ने बड़ी वीरता के साथ युद्ध करके तुर्कों के पीछे धकेल दिया। जब सुल्तान को इसकी सूचना मिली तो उसने स्वयं रणथम्भौर के लिए प्रस्थान किया। वह लगभग एक वर्ष तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। हम्मीर देव के दो मंत्रियों रणमल तथा रतनपाल ने हम्मीरदेव के साथ विश्वासघात किया जिसके काराण मुसलमान सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने में सफल हो गये और अभेद्य दुर्ग पर विजय प्राप्त कर ली। हम्मीरदेव वीरगति को प्राप्त हुआ तथा उसकी स्त्रियों ने जौहर किया। अलाउद्दीन खिलजी उलूग खाँ को रणथम्भौर सौंप कर दिल्ली लौट आया। थोड़े ही दिनों बाद उलूग खाँ बीमार पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई।
(3.) मेवाड़ पर विजय: दिल्ली सल्तनत के किसी भी सुल्तान को अब तक मेवाड़ पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ था। इन दिनों रावल रत्नसिंह मेवाड़़ में शासन कर रहा था। 1303 ई. में अलाउद्दीन एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़ पर आक्रमण करने चल दिया। अलाउद्दीन को चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार करने में पांच माह लगे। अगस्त 1303 में अलाउद्दीन का दुर्ग पर अधिकार हो गया। इसके बाद अलाउद्दीन ने दुर्ग में कत्ले आम का आदेश दिया। इस कत्ले आम में लगभग 30 हजार लोग मारे गये। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग का नाम बदल कर खिजा्रबाद कर दिया तथा उसे अपने पुत्र खिज्र खाँ को देकर स्वयं पुनः दिल्ली चला गया।
पद्मिनी की कथा: मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रंथ पद्मावत में इस आक्रमण का काव्यात्मक विवरण दिया गया है। इस विवरण के अनुसार रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपने सौन्दर्य के लिये दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। अलाउद्दीन ने पद्मिनी का अपहरण करने और मेवाड़ पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। चितौड़ का दुर्ग एक पहाड़ी पर स्थित था तथा अजेय समझा जाता था। अलाउद्दीन ने रत्नसिंह के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह दर्पण में रानी पद्मिनी की छवि दिखा दे तो अलाउद्दीन दिल्ली लौट जायेगा। रत्नसिंह अपने सैनिकों के रक्तपात को रोकने के लिये अलाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मिनी की छवि शीशे में दिखाने के लिये तैयार हो गया। जब सुल्तान पद्मिनी को देखकर लौटने लगा तब राजा रत्नसिंह उसे पहुँचाने के लिये दुर्ग से बाहर आया। पहले से ही तैयार अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों ने राजा को कैद कर लिया। अब सुल्तान ने पद्मिनी के पास यह सूचना भेजी कि जब तक वह उसके निवास में नहीं आ जायेगी तब तक वह रत्नसिंह को मुक्त नहीं करेगा। राजपूतों के लिये यह बड़े अपमान की बात थी परन्तु पद्मिनी ने बुद्धि से काम लिया और सुल्तान के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वह सात सौ डोलियों में वीर राजपूत सैनिकों को बैठाकर दिल्ली की ओर चल पड़ी। अवसर पाकर राजपूत सैनिकों ने रावल रत्नसिंह को मुक्त करा लिया। इस अवसर पर हुए युद्ध में गोरा मारा गया। राजपूत सैनिक अपने राजा तथा रानी को लेकर चित्तौड़ आ गये। इसके बाद अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खाँ के नेतृत्व में चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण हुआ। जब राजपूतों को अपनी पराजय निश्चित लगने लगी तो राजपूत स्त्रियों ने जौहर का आयोजन किया। पद्मिनी, राजपूत स्त्रियों के साथ चिता में बैठकर भस्म हो गई और राजपूत, शत्रु से लड़कर वीर गति को प्राप्त हुए। चितौड़ के दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा के. एस. लाल आदि कई इतिहासकार पद्मावत के विवरण को सही नहीं मानते। वे पद्मिनी की कथा को काल्पनिक मानते हैं। तत्कालीन इतिहासकारों इसामी, अमीर खुसरो, इब्नबतूता आदि ने इन घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है जबकि परवर्ती फारसी इतिहासकारों अबुल फजल, हाजीउद्वीर तथा फरिश्ता ने इसे सत्य माना है।
(4.) मालवा पर विजय: चितौड़ पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त अलाउद्दीन ने 1305 ई. में ऐनुल्मुल्क मुल्तानी को मालवा अभियान का दायित्व सौंपा। इन दिनों मालवा में मलहकदेव शासन कर रहा था। राजपूतों ने बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया परन्तु अन्त में मलहकदेव परास्त हुआ तथा युद्ध क्षेत्र में मारा गया। मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
(5.) उत्तरी भारत की अन्य विजयें: सुल्तान ने 1305 ई. में मालवा पर विजय प्राप्त की। इसके थोड़े ही दिन बाद उसने मांडू, उज्जैन, धारानगरी तथा चन्देरी आदि नगरों को जीत लिया। इस प्रकार 1305 ई. तक उत्तर भारत के अधिकांश राज्य अलाउद्दीन के अधीन हो चुके थे। केवल मारवाड़ अब तक अछूता था। 1306 ई. में अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत का विजय अभियान आरम्भ किया।
(6.) सिवाना पर विजय: अभी तक मारवाड़ प्रदेश के किसी भी शासक ने तुर्कों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया था। 1308 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सिवाना पर अभियान किया। सिवाना पर उन दिनों सातलदेव का शासन था जो जालोर के चौहान शासक कान्हड़देव का भतीजा था तथा उसी की ओर से सिवाना दुर्ग पर नियुक्त था। अलाउद्दीन की सेना ने दो साल तक सिवाना दुर्ग पर घेरा डाले रखा। 1310 ई. में अलाउद्दीन स्वयं सिवाना आया। उसके द्वारा किये गये निर्णायक हमले में सातलदेव सम्मुख युद्ध में मारा गया। उसका राज्य दिल्ली के अमीरों में बाँट दिया गया।
(7.) जालौर पर विजय: जालौर पर चौहान शासक कान्हड़देव शासन कर रहा था। उसने अलाउद्दीन खिलजी की सेना को सोमनाथ आक्रमण के समय अपने राज्य से होकर गुजरने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिये अलाउद्दीन खिलजी ने कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में जालोर के विरुद्ध सेना भेजी। 1314 ई. में कान्हड़देव परास्त हो गया और जालौर पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। कुछ इतिहासकार 1311 ई. में अलाउद्दीन का जालोर पर अधिकार होना मानते हैं।
उत्तर भारत पर विजय के परिणाम
उत्तर भारत पर अधिकार स्थापित कर लेने के उपरान्त अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत पर अभियान आरम्भ किया परन्तु उत्तरी भारत की विजय स्थायी सिद्ध न हुई। उसके जीवन के अन्तिम भाग में राजपूताना में विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और अनेक स्थानों में राजपूतों ने अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त कर लिया परन्तु राजपूत पूर्ववत् असंगठित ही बने रहे। वे तुर्की सल्तनत को उन्मूलित न कर सके।
दक्षिण की विजय (1306-1313 ई.)
अलाउद्दीन का उद्देश्य सम्पूर्ण भारत पर अपना एक-छत्र प्रभुत्व स्थापित करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उत्तर भारत पर विजय के बाद, दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करना आवश्यक था। दक्षिण की विपुल सम्पत्ति भी अलाउद्दीन को आकृष्ट करती थी। उत्तर भारत के अभियानों के कारण सेना तथा शासन का व्यय बहुत बढ़ गया था। उत्तर भारत को जीतने में हुए इस व्यय के मुकाबले उसे धन की प्राप्ति बहुत कम हुई थी। इसकी पूर्ति दक्षिण के धन से हो सकती थी। अलाउद्दीन यह भी चाहता था कि उसकी सेना किसी न किसी अभियान में संलग्न रहे ताकि सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह न कर सके। इन सब कारणों से उसने दक्षिण भारत के विरुद्ध अभियान आरम्भ किया। दक्षिण की भौगोलिक असुविधाओं तथा उत्तरी भारत से दूरी के कारण अब तक कोई अन्य सुल्तान दक्षिण भारत पर अभियान करने का साहस नहीं कर सका था। 1305 ई. तक मारवाड़ को छोड़कर लगभग शेष उत्तरी भारत के राज्यों को जीत लिया गया था। इसलिये 1306 ई. में दक्षिण विजय का अभियान आरम्भ किया गया। अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण विजय का कार्य अपने गुलाम मलिक काफूर को सौंपा जिसे नसरत खाँ खम्भात से लाया था। अलाउद्दीन ने मलिक काफूर को दक्षिण अभियान के लियेएक विशाल सेना प्रदान की।
इस समय दक्षिण भारत में चार प्रमुख हिन्दू राज्य थे- (1.) देवगिरी राज्य जिस पर यादवों का शासन था, इसकी राजधानी देवगिरि (दौलताबाद) थी। (2.) तेलंगाना राज्य जहाँ काकतीय वंश का शासन था, इसकी राजधानी वारंगल थी। (3.) होयसल राज्य जहाँ होयसल वंश का शासन था, इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। (4.) मदुरा का राज्य जहाँ पांड्य वंश का शासन था, इसकी राजधानी मदुरा थी।
(1.) वारंगल पर पहला आक्रमण (1302 ई.): वारंगल, तेलंगाना की राजधानी थी जहाँ काकतीय वंश का राजा प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) शासन करता था। मुसलमान इतिहासकारों ने उसे लदर देव के नाम से पुकारा है। अलाउद्दीन वारंगल को अपने राज्य में सम्मिलित नहीं करना चाहता था। उसका लक्ष्य केवल धन प्राप्त करना था। वारंगल पर पहला आक्रमण अलाउद्दीन के आदेश से 1302 ई. में नुसरत खाँ के भतीजे छज्जू तथा फखरुद्दीन जूना (जो बाद में मुहम्मद तुगलक कहलाया) के नेतृत्व में किया गया। इस युद्ध में राजा प्रताप रुद्रदेव ने शाही सेना को परास्त कर दिया। मुस्लिम इतिहासकारों ने इस युद्ध का उल्लेख तक नहीं किया है।
(2.) देवगिरी पर पहला आक्रमण (1306 ई.): कड़ा का गवर्नर रहते हुए अलाउद्दीन देवगिरि को जीतकर लूट चुका था। सुल्तान बनने के बाद अलाउद्दीन ने मलिक काफूर को फिर से देवगिरि के विरुद्ध अभियान पर भेजा। इसके दो प्रमुख कारण थे। पहला तो यह कि देवगिरि के राजा रामचन्द्र ने पूर्व में दिये गये अपने वचन के अनुसार दिल्ली को कर नहीं भेजा था और दूसरा यह कि रामचन्द्र ने गुजरात के राजा राय कर्ण तथा उसकी पुत्री देवलदेवी को अपने यहाँ शरण दी थी। अलाउद्दीन खिलजी देवलदेवी को प्राप्त करना और देवगिरि पर फिर से अपनी सत्ता स्थापित करना चाहता था। मलिक काफूर तथा अल्प खाँ की संयुक्त सेनाओं ने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। राय कर्ण दो महीने तक बड़ी वीरता के साथ मुसलमानों का सामना करता रहा परन्तु मुसलमानों की विशाल सेना के समक्ष उसके पैर उखड़ गये। देवलदेवी की रक्षा नहीं हो सकी। वह अल्प खाँ के हाथ पड़ी और दिल्ली के रनिवास में भेज दी गई। कुछ दिन बाद शहजादे खिज्र खाँ से उसका विवाह कर दिया गया। मलिक काफूर ने सम्पूर्ण देश को उजाड़ दिया। विवश होकर राजा रामचन्द्र को सन्धि करनी पड़ी। काफूर ने रामचन्द्र को दिल्ली भेज दिया। सुल्तान ने उसके साथ अच्छा व्यवहार किया तथा उसे राय रय्यन की उपाधि दी। इस उदार व्यवहार के कारण रामचन्द्र ने फिर कभी अलाउद्दीन के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया।
(3.) वारंगल पर दूसरा आक्रमण (1310 ई.): इसके बाद 1310 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को वारंगल पर आक्रमण करने भेजा। अलाउद्दीन ने काफूर को आदेश दिया कि यदि प्रताप रुद्रदेव सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ले और अपना कोष, घोड़े तथा हाथी देने को कहे तो उससे सन्धि कर ली जाये और उसका राज्य न छीना जाये। काफूर ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण के लिए प्रस्थान किया। सबसे पहले वह देवगिरि गया। राजा रामचन्द्र ने उसकी बड़ी सहायता की। देवगिरि से काफूर ने वारगंल के लिये प्रस्थान किया और वारगंल के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह घेरा कई महीने तक चलता रहा। इस दौरान बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मारा गया तथा उनकी सम्पत्ति का विनाश किया गया। जब प्रताप रुद्रदेव को यह ज्ञात हुआ कि तुर्क केवल धन प्राप्त करने के लिए ऐसा विध्वंस मचा रहे हैं तब वह उन्हें धन देकर शांति स्थापित करने के लिये तैयार हो गया। बरनी के कथनानुसार प्रताप रुद्रदेव ने तुर्कों को 100 हाथी, 700 घोड़े, बहुत सा सोना-चाँदी तथा अनेक अमूल्य रत्न दिये। सम्भवतः कोहीनूर हीरा भी काफूर को यहीं से मिला था। प्रताप रुद्रदेव ने सुल्तान को वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया। काफूर 1310 ई. में देवगिरि तथा धारा होते हुए दिल्ली लौट गया।
(4.) द्वारसमुद्र पर आक्रमण (1311 ई.): वारंगल विजय के बाद अलाउद्दीन ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण की योजना बनाई। इन दिनों द्वारसमुद्र में होयसल राजा वीर वल्लभ (तृतीय) शासन कर रहा था उसे बल्लाल (तृतीय) भी कहते हैं। वह योग्य तथा प्रतापी शासक था। दुर्भाग्य से इन दिनों होयसल तथा यादव राजाओं में घातक प्रतिद्वन्द्विता चल रही थी और दोनों एक दूसरे को उन्मूलित करने का प्रयत्न कर रहे थे। अलाउद्दीन ने इस स्थिति से लाभ उठाने के लिये 1311 ई. में मलिक काफूर को द्वारसमुद्र पर आक्रमण करने भेजा। बल्लाल, मलिक काफूर की विशाल सेना के समक्ष नहीं टिक सका तथा विवश होकर मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली। काफूर ने द्वारसमुद्र के मन्दिरों की अपार सम्पत्ति को जी भर कर लूटा। इस अपार सम्पत्ति के साथ मलिक काफूर दिल्ली लौट गया।
(5.) मदुरा पर आक्रमण (1311 ई.): द्वारसमुद्र विजय के उपरान्त अलाउद्दीन ने मदुरा पर आक्रमण की योजना बनाई। इन दिनों मदुरा में पांड्य-वंश शासन कर रहा था। दुर्भाग्यवश इन दिनों सुन्दर पांड्य तथा वीर पांड्य भाइयों में घोर संघर्ष चल रहा था। वीर पांड्य ने सुन्दर पांड्य को मार भगाया और स्वयं मदुरा का शासक बन गया। निराश होकर सुन्दर पांड्य ने दिल्ली के सुल्तान से सहायता मांगी। सुल्तान ऐसे अवसर की खोज में था। 1311 ई. में मलिक काफूर मदुरा पहुँच गया। काफूर ने आने की सूचना पाकर वीर पांड्य राजधानी छोड़कर भाग गया। काफूर ने मदुरा के मन्दिरों को खूब लूटा और मूर्तियों को तोड़ा। 1311 ई. में वह अपार सम्पत्ति लेकर दिल्ली लौट गया।
(6.) देवगिरि पर दूसरा आक्रमण (1312 ई.): रामचन्द्र की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र शंकर देव देवगिरि का राजा हुआ। उसने दिल्ली के सुल्तान को कर देना बन्द कर दिया। शंकरदेव ने होयसल राजा के विरुद्ध भी मुसलमानों की सहायता करने से इन्कार कर दिया। इस पर अलाउद्दीन ने मलिक काफूर की अध्यक्षता में एक सेना शंकरदेव के विरुद्ध भेजी। युद्ध में शंकरदेव पराजित हो गया और वीरगति को प्राप्त हुआ। 1315 ई. में हरपाल देव को देवगिरि का शासन सौंपकर मलिक काफूर दिल्ली लौट गया।
दक्षिण में अलाउद्दीन की सफलता के कारण
अलाउद्दीन की सेना मलिक काफूर के नेतृत्व में दक्षिण भारत में विजय पताका फहराने में पूर्ण रूप से सफल रही। इस सफलता के कई कारण थे-
(1) दक्षिण के राज्यों का पारस्परिक संघर्ष: जिस समय मलिक काफूर ने दक्षिण अभियान आरम्भ किया, उस समय दक्षिण के राज्यों में परस्पर वैमनस्य अपने चरम पर था और वे एक दूसरे से संघर्ष करके शक्ति नष्ट कर रहे थे। वे संगठित होकर शत्रु का सामना करने के स्थान पर, अपने पड़ोसियों के विरुद्ध शत्रु की ही सहायता करने लगते थे।
(2) अलाउद्दीन की सेना की योग्यता: अलाउद्दीन के सैनिक सुधारों के कारण उसकी सेना में उत्साह था। सेना के पास पर्याप्त संसाधन थे तथा उसे अच्छा वेतन दिया जा रहा था।
(3) अलाउद्दीन के साम्राज्य विस्तृत नहीं करने की नीति: अलाउद्दीन विन्ध्य-पर्वत के दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार नहीं चाहता था। उसकी सेना धन लूटने तथा हिन्दुओं के धार्मिक स्थल नष्ट करने के उद्देश्य से दक्षिण अभियान कर रही थी।
अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति
अलाउद्दीन ने उत्तरी भारत में जिस नीति का अनुसरण किया था, दक्षिण भारत में उससे भिन्न नीति का अनुसरण किया। उसकी दक्षिण नीति की प्रमुख बातें इस प्रकार थीं-
(1.) दक्षिण की सम्पत्ति लूटने की नीति: दक्षिण भारत में अलाउद्दीन का एक मात्र लक्ष्य दक्षिण की विपुल सम्पत्ति को लूटना था। ताकि वह अपनी विशाल सेना का व्यय चला सके और अपने शासन को सुव्यवस्थित रख सके।
(2.) आधिपत्य स्वीकार कराने की नीति: अलाउद्दीन यह जानता था कि सुदूर दक्षिण पर दिल्ली से शासन करना असंभव था। अतः उसने देवगिरि, तेलंगाना, द्वारसमुद्र तथा मदुरा पर विजय तो प्राप्त की परन्तु उन्हें अपने साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न नहीं किया। जब पराजित राज्यों के शासक उसका आधिपत्य स्वीकार करने को तैयार हो जाते थे तो वह उनके राज्य लौटा देता था और पराजित राजा को अथवा पराजित राजा के वंश के अन्य व्यक्ति को राज्य दे देता था।
(3.) विजित राजाओं से उदारता की नीति: यद्यपि अलाउद्दीन स्वभाव से क्रूर तथा निर्दयी था और अपने शत्रुओं तथा विरोधियों के साथ बुरा व्यवहार करता था परन्तु दक्षिण के राजाओं के साथ उसने उदारता का व्यवहार किया। इसी कारण देवगिरि के राजा रामचन्द्र तथा होयलस के राजा बल्लाल (तृतीय) ने दक्षिण विजय में अलाउद्दीन की बड़ी सहायता की।
(4.) सेनापतियों के माध्यम से विजय की नीति: अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली से अनुपस्थित रहने के दुष्परिणामों से परिचित था। उसे अमीरों के विद्रोहों तथा मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था। इसलिये उसने राजधानी को कभी असुरक्षित नहीं छोड़ा तथा दक्षिण-विजय का कार्य अपने सेनापतियों को दिया।
(5.) सेनापतियों पर नियंत्रण रखने की नीति: यद्यपि सुल्तान अलाउद्दीन, मलिक काफूर पर विश्वास करता था और उसी को प्रत्येक बार प्रधान सेनापति बना कर भेजा करता था परन्तु वह उस पर अपना पूरा नियन्त्रण रखने का प्रयास करता था। वह उसके साथ अल्प खाँ आदि अन्य सरदारों को भी भेजता था जिससे काफूर को विश्वासघात करने का अवसर न मिल सके। सुल्तान जब काफूर को दक्षिण भारत के अभियान पर भेजता था, तब वह उसे विस्तृत आदेश देता था। काफूर के लिये उन आदेशों की पालना करना अनिवार्य था।
अलाउद्दीन की दक्षिण नीति की समीक्षा
कुछ इतिहासकार अलाउद्दीन की दक्षिण नीति को असफल मानते हैं। उनके अनुसार वह दक्षिण भारत को अपने अधीन बनाये रखने में विफल रहा। देवगिरि तथा होयसल राज्यों ने तो पराजय स्वीकार करके अलाउद्दीन से सहयोग किया किंतु तेलंगाना ने कभी सहयोग तो कभी विरोध किया। पाण्ड्य राज्य ने तो अधीनता ही स्वीकार नहीं की। रामचंद्र देव के कारण शंकर देव का भी व्यवहार बदल गया और मलिक काफूर को पुनः दक्षिण राज्यों के विरुद्ध अभियान पर भेजना पड़ा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलाउद्दीन की दक्षिण नीति सफल रही क्योंकि वह दक्षिण भारत को अपने प्रत्यक्ष शासन में नहीं रखना चाहता था, वह उन राज्यों से धन लूटने तथा उन्हें करद राज्य बनाकर उनसे कर वसूलना चाहता था। अपने इस उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल रहा।
अलाउद्दीन के साम्राज्य की सीमाएं
अलाउद्दीन का उद्देश्य सम्पूर्ण भारत पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना था। उसे इस उदे्श्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। अपने सेनापतियों की सहायता से उसने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत पर विजय प्राप्त करके लगभग सम्पूर्ण देश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसका साम्राज्य उत्तर में मुल्तान, लाहौर तथा दिल्ली से लेकर दक्षिण में द्वारसमुद्र तथा मदुरा तक, पूर्व में लखनौती तथा सौनार गाँव से लेकर पश्चिम में थट्टा तथा गुजरात तक विस्तृत हो गया था।
यह भी देखें-
सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी – खिलजी वंश का संस्थापक
अलाउद्दीन खिलजी – खिलजी वंश का चरमोत्कर्ष
अलाउद्दीन खिलजी : साम्राज्य विस्तार