इतिहासकारों की दृष्टि में अकबर का स्थान बहुत ऊँचा है। चाहे भारतीय इतिहासकार हों या विदेशी इतिहासकार सभी ने अकबर के शासन की प्रशंसा की है।
इतिहासकारों की दृष्टि में अकबर
मध्यकालीन इतिहासकारों से लेकर आधुनिक इतिहासकारों ने अकबर के बारे में बहुत कुछ लिखा है। बदायूनी जैसे अधिकांश लेखकों ने भावनाओं के साथ बहकर लेखन किया गया है। आधुनिक यूरोपीय एवं भारतीय इतिहासकारों ने भी स्वयं को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिये अकबर को काल्पनिक गुणों का स्वामी बताया है। इस सारे मिथ्या लेखन के बीच अकबर के वास्तविक चरित्र एवं सफलताओं का विश्लेषण करना कठिन हो जाता है।
यहाँ अकबर के सम्बन्ध में कुछ इतिहासकारों के विचार दिये जा रहे हैं-
विन्सेट स्मिथ ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘वह मनुष्य का जन्मजात शासक था और इतिहास में परिज्ञात सर्वशक्तिशाली शासकों में स्थान पाने का वस्तुतः अधिकारी है। यह अधिकार निःसंदेह उसके अलौकिक एवं प्राकृतिक गुणों, उसके मौलिक विचारों तथा उसकी शानदार सफलताओं पर आधारित है।’
के. टी. शाह ने अकबर के बारे में लिखा है- ‘मुगलों में अकबर सबसे महान् था और यदि मौर्यों के काल से नहीं तो कम से कम एक सहò वर्षों में वह सबसे बड़ा भारतीय शासक था।’
लेनपूल ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘वह भारत का भद्रतम शासक था…..वह साम्राज्य का सच्चा संस्थापक तथा संगठनकर्ता था…..वह मुगल साम्राज्य के स्वर्ण-युग का प्रतिनिधित्व करता है।’
एडवडर््स तथा गैरेट ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी योग्यता को सिद्ध कर दिया है। वह एक निर्भीक सैनिक, एक महान् सेनानायक, एक बुद्धिमान प्रबन्धक, एक उदार शासक और चरित्र का सही मूल्यांकन करने वाला था। वह मनुष्यों का जन्मजात नेता था और इतिहास का सर्वशक्तिमान् शासक कहलाने का वास्तव में अधिकारी है।’
हेग ने अकबर की प्रशंसा करने हुए लिखा है, ‘वास्तव में वह एक महान् शासक था क्योंकि वह जानता था कि अच्छा शासक वही है जिसका उसकी प्रजा आज्ञा-पालन के साथ-साथ आदर-सम्मान और प्यार करती हो न कि भयभीत रहती हों। वह ऐसा राजकुमार था जिसे समस्त लोग प्यार करते थे, जो महान् व्यक्तियों के साथ दृढ़, निम्न-स्थिति के लोगों के प्रति उदार और जो छोटे-बड़े परिचित अपरिचित समस्त लोगों के साथ न्याय करता था।’
मुगल सल्तनत का वास्तविक संस्थापक
मुगल सल्तनत का आरम्भिक संस्थापक बाबर था परन्तु इसका वास्तविक संस्थापक अकबर ही था। यह सत्य है कि पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को और खनवा के युद्ध में राणा सांगा को परास्त करके बाबर ने भारत में मुगल सल्तनत की स्थापना कर दी थी परन्तु न तो अफगानों को और न राजपूतों की ही शक्ति को पूर्ण रूप से नष्ट-भ्रष्ट कर सका था।
अफगान लोग बगाल एवं बिहार में और राजपूत लोग राजस्थान में अपनी बिखरी हुई शक्ति को संगठित करने में संलग्न थे। उन्होंने अपने को इतना प्रबल बना लिया कि वे नव-निर्मित मुगल सल्तनत के लिये भयानक चुनौती बन गये।
बाबर की भारतीय विजय कोरी सैनिक विजय थी। उसने अपने सैनिक बल तथा रण-कौशल से भारतीय साम्राज्य को प्राप्त किया था। यह साम्राज्य शक्ति पर आधारित था और शक्ति द्वारा ही यह सुरक्षित रखा तथा स्थायी बनाया जा सकता था। बाबर में अलौकिक सैनिक प्रतिभा थी और नेतृत्व ग्रहण करने की अदभुत् क्षमता थी।
अतः जब तक वह जीवित रहा तब तक वह अपने भारतीय साम्राज्य को सुरक्षित रख सका। परन्तु दुर्भाग्यवश वह केवल चार वर्ष तक जीवित रहा और उसके आँख बंद करते ही शक्ति का पलड़ा उलट गया। अब शक्ति अफगानों के हाथ में चली गई और वे संगठित होकर मुगलों का सामना करने के लिए उद्यत हो गये।
बाबर में सैनिक प्रतिभा तो थी परन्तु उसमें प्रशासकीय प्रतिभा की कमी थी। वह अपने साम्राज्य को संगठित तथा सुव्यवस्थित नहीं बना सका। न उसने शासन सम्बन्धी कोई सुधार किये और न वह नई शासन संस्थाओं की स्थापना कर सका। अतः उसके द्वारा निर्मित साम्राज्य निराधार तथा निर्मूल था जो स्थायी सिद्ध नहीं हो सकता था।
साम्राज्य को स्थायी बनाने के लिये आर्थिक सुदृढ़ता की आवश्यकता होती है। अर्थ शक्ति का बहुत बड़ा स्रोत होता है। शक्ति से साम्राज्य को स्थायित्व प्राप्त होता है। अभाग्यवश बाबर की आर्थिक नीति अदूरदर्शिता पूर्ण थी। उसने धन का अपव्यय कर अपना कोष खाली कर दिया जिससे साम्राज्य का आधार कमजोर पड़ गया था।
बाबर की भारतीय विजय नैतिक-बल से भी रिक्त थी। मुगल लोग भारत में विदेशी, बर्बर एवं रक्त-पिपासु समझे जाते थे। अफगान तथा हिन्दू दोनों ही उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा दोनों ही मुगल सल्तनत को उन्मूलित करने की ताक में रहते थे। भारतीय प्रजा की सहानुभूति मुगलों के साथ नहीं थी।
भारतीय प्रजा मुगलों को उन्मूलित करने में किसी के भी साथ सहयोग कर सकती थी। इस प्रकार नैतिक-बल विहीन नव-निर्मित मुगल साम्राज्य रेत के दुर्ग के समान था जिसे एक हल्का सा आघात नष्ट कर सकता था।
रशब्रुक विलियम्स ने लिखा है- ‘बाबर ने अपने पुत्र को ऐसा साम्राज्य प्रदान किया जो केवल युद्ध की परिस्थितियों में चल सकता था और शान्ति के समय के लिए निर्बल तथा निराधार था।’
इस दुर्बलता के कारण इस साम्राज्य का नष्ट हो जाना अनिवार्य था। हुमायूँ के तख्त पर बैठते ही विद्राहों की भंयकर आँधियाँ चलने लगीं और मुगल सल्तनत की जड़ें हिलने लगीं। हुमायूँ का अफगानों के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हो गया जिसका अन्तिम परिणाम यह हुआ कि जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की थी वह उन्मूलित हो गया और उसके स्थान पर द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना हो गई।
शेरशाह ने बाबर के समस्त पुत्रों को हिन्दुस्तान से मार भगाया। हुमायूँ ने भागकर फारस के शाह के यहाँ शरण ली और उसके अन्य भाई अफगानिस्तान भाग गये और वहीं शासन करने लगे। मुगल सल्तनत को उन्मूलित करने के बाद पन्द्रह वर्षों तक अफगानों ने फिर भारत पर शासन किया।
पन्द्रह वर्ष बाद हुमायूँ ने फारस के शाह की सहायता से भारत की पुनर्विजय का प्रयत्न किया। पहले उसने अपने भाइयों को नत-मस्तक किया। इसके बाद उसने अफगानों को परास्त कर दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार एक बार फिर वह भारत में मुगल सत्ता स्थापित करने में सफल हो गया।
हुमायूँ ने अपने पिता के साम्राज्य को खो देने के लांछन को तो धो दिया परन्तु जिस साम्राज्य की उसने पुनर्स्थापना की वह पहले से अधिक निर्बल था। पंजाब में अभी असन्तोष की आग व्याप्त थी। दिल्ली तथा आगरा पर भी दृढ़ता से मुगलों की शक्ति स्थापित न हो पाई थी।
अफगान लड़ाके चारों और सक्रिय थे और अपनी सत्ता की पुनर्स्थापना के लिये संग्राम लड़ रहे थे। इन्ही परिस्थितियों में हुमायूँ का निधन हो गया। न वह अपने राज्य को संगठित कर सका और न शासन की समुचित व्यवस्था कर सका। वह अकबर के लिए असुरक्षित, अव्यवस्थित तथा असंगठित राज्य छोड़ गया जो विपत्ति के एक ही झोंके में समाप्त हो सकता था। अतः हुमायूँ को भी मुगल सल्तनत का वास्तविक संस्थापक नहीं कहा जा सकता।
वस्तुतः मुगल साम्राज्य की वास्तविक स्थापना का भार अकबर के ही कन्धों पर पड़ा जिसकी अवस्था उस समय केवल तेरह वर्ष चार महीने थी। यद्यपि अकबर अल्प-वयस्क, अनुभव शून्य तथा साधनहीन था परन्तु सौभाग्य से उसे बैरम खाँ जैसे योग्य, स्वामिभक्त, अनुभवी तथा सैनिक एवं प्रशासकीय प्रतिभा-सम्पन्न संरक्षक की सेवाएँ प्राप्त हो गईं।
बैरम खाँ की सहायता से अकबर ने दिल्ली तथा आगरा पर दृढ़ता से अधिकार स्थापित कर लिया। इसके बाद उसने साम्राज्य निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया। उसने एक अत्यन्त सुसज्जित तथा सुसंगठित सेना का निर्माण करके उत्तरी-भारत के बहुत बड़े भाग पर प्रभुत्व स्थापित किया। उसने इस विशाल साम्राज्य की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की।
अकबर की विजयें कोरी सैनिक विजयें न थीं। उसने अत्यंत संगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की व्यवस्था भी की। उसने ऐसी लोकप्रिय शासन व्यवस्था स्थापित की जिसने उसके साम्राज्य को सुदृढ़ बना दिया। उसने राजनीति में नये सिद्धान्तों का प्रयोग किया जिससे वह अत्यन्त लोकप्रिय बन गया। उसने राजनीति में उदारता, सहिष्णुता, धार्मिक स्वतंत्रता, न्याय एवं निष्पक्षता की नीति का अनुसरण किया जिससे उसका शासन लोकप्रिय बन गया।
अकबर का साम्राज्य शक्ति अथवा भय पर आधारित नहीं था। उसने अपनी प्रजा के हृदय पर विजय प्राप्त कर उसकी शुभकामनायें प्राप्त कर लीं। इससे अकबर के साम्राज्य को नैतिक-बल प्राप्त हो गया। इससे अकबर का राज्य स्थाई हो गया। लगभग तीन सौ वर्षों तक उसके वंशज भारत में शासन करते रहे। अतः अकबर को ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मानना चाहिए।
पेन ने लिखा है- ‘मुगल सल्तनत का आरोपण सर्वप्रथम बाबर ने किया था। शेरशाह ने उसे ने उसे उन्मूलित कर दिया, हुमायूँ ने उसे फिर आरोपित किया और अन्त में अकबर ने उसे वास्तव में अच्छी प्रकार आरोपित किया।’
स्मिथ ने लिखा है- ‘यह नहीं कहा जा सकता कि सिंहासनारोहण के समय अकबर के पास कोई साम्राज्य था। यह अकबर की अलौकिक प्रतिभा तथा बैरमखाँ की स्वामि-भक्ति थी जिसने एक विशाल सल्तनत की प्राप्ति की।’
जेम्स टॉड ने लिखा है- ‘मुगलों के साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अकबर था जिसने सर्वप्रथम राजपूतों की स्वतन्त्रता पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त की……..वह उस रज्जु को तैयार कर सका जिसमें उसने उसको बांध दिया।’
हण्टर ने लिखा है- ‘जब 1556 ई. में अकबर तख्त पर बैठा तब भारत उसे छोटे-छोटे हिन्दू तथा मुसलमान राज्यों में विभक्त मिला जिनमें संघर्ष व्याप्त था। 1605 ई. में जब वह मरा तो एक संगठित साम्राज्य छोड़ गया।’
पनिक्कर ने लिखा है- ‘जब अकबर मरा तब अपने पुत्र के लिए एक व्यवस्थित साम्राज्य और राजवंश के प्रति भक्ति रखने वाली प्रजा छोड़ गया।’