Saturday, August 16, 2025
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चालुक्य मन्दिर स्थापत्य कला

चालुक्य मन्दिर स्थापत्य कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे- एहोल, वातापी (बादामी) और पट्टडकल। एहोल में लगभग 70 मन्दिर मिले हैं जिनके कारण इस नगर को ‘मन्दिरों का नगर’ कहते हैं। समस्त मन्दिर गर्भगृह और मण्डपों से युक्त हैं परन्तु छतों की बनावट अलग-अलग है।

कुछ मन्दिरों की छतें चपटी हैं तो कुछ की ढलवां। ढलवां छतों पर शिखर भी हैं। स्थापत्य की दृष्टि से ये मंदिर अधिक परिपूर्ण नहीं हैं। चैलुक्यों के प्रारम्भिक मन्दिरों में लालाखां का मन्दिर और दुर्गा मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं।

वातापी (बादामी) में चालुक्य वास्तुकला का निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। यहाँ पहाड़ को काटकर चार मण्डप बनाए गए हैं जो स्तम्भ युक्त हॉल के समान है। इनमें एक मण्डप जैनियों का है और शेष तीन मण्डप हिन्दू-धर्म के हैं। इनके तीन मुख्य भाग हैं- गर्भगृह, मण्डप और अर्धमण्डप।

पट्टडकल के मन्दिर स्थापत्य की दृष्टि से अधिक सुन्दर हैं। पट्टडकल में आर्य शैली के चार मन्दिर और द्रविड़ शैली के छः मन्दिर बने हुए हैं। आर्य शैली का सर्वाधिक सुन्दर ‘पापनाथ का मन्दिर’ है। द्रविड़ शैली का सर्वाधिक आकर्षक मन्दिर ‘विरूपाक्ष का मन्दिर’ है।

पापनाथ का मन्दिर 90 फुट लम्बा है। मन्दिर के गर्भगृह और मण्डप के मध्य का अन्तराल भी एक मण्डप जैसा प्रतीत होता है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है, जो ऊपर की तरफ संकरा होता चला गया है। मन्दिर की बनावट काफी सुन्दर है। विरूपाक्ष मन्दिर चालुक्य मंदिर शैली का अच्छा उदाहरण है। यह 120 फुट लम्बा है। मन्दिर के गर्भगृह और मण्डप के मध्य का अन्तराल काफी छोटा है। मन्दिर के विभिन्न भागों को मूर्तियों से सजाया गया है। हैवेल ने इस मन्दिर के स्थापत्य की प्रशंसा की है।

चालुक्य राजा पुलकेशिन (प्रथम) ने अपनी राजधानी बादामी को अनेक नवीन भवनों एवं मन्दिरों से सजाया। उसके भाई मंगलेश ने कुछ गुहा-मन्दिरों का निर्माण करवाया। विजयादित्य के शासन काल में कला को खूब प्रोत्साहन मिला। उसने पट्टडकल में भगवान शिव का एक सुन्दर मन्दिर बनवाया। कल्याणी के जयसिंह (द्वितीय) ने अपनी राजधानी कल्याणी को सुन्दर भवनों एवं मन्दिरों से सजाया।

सोमेश्वर (प्रथम) ने भी कल्याणी में अनेक निर्माण करवाए। विक्रमादित्य (षष्ठम्) ने ‘विक्रमपुर’ नामक नवीन नगर की स्थापना की और एक विशाल एवं भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया। इस प्रकार चालुक्य राजाओं ने स्थापत्य कला को निरन्तर प्रोत्साहन दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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