Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 39 – दक्षिण भारत का मन्दिर स्थापत्य (अ)

महाबलिपुरम् के कोरोमण्डल तट पर सात मंदिर या प्राचीन स्मारक हैं, वे ऐसी असाधारण रचनाएं हैं जिनके लिए यह सरलता से कहा जा सकता है कि वे मानव दक्षता और प्रवीणता के स्तर में बहुत विशिष्ट स्थान रखते हैं। – प्रो. हीरेन।

सामान्यतः नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित भूभाग को दक्षिण भारत कहा जाता है किंतु दक्षिण भारत को भी भौगोलिक आधार पर दो भागों में रखा जाता है- दक्षिणा-पथ और सुदूर दक्षिण। नर्बदा और कृष्णा नदियों के बीच के क्षेत्रों को दक्षिणा-पथ कहा जाता है और कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के दक्षिण के समस्त प्रायद्वीप को सुदूर दक्षिण कहा जाता है।

गुप्तकाल तक दक्षिण भारत में अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु दक्षिण में मन्दिर-कला का वास्तविक विकास गुप्त-साम्राज्य के पतन के बाद अर्थात् छठी शताब्दी ईस्वी से आरम्भ हुआ। गुप्तों के पतन के बाद दक्षिणा-पथ में चालुक्यों और राष्ट्रकूटों की शक्ति का उदय हुआ।

इसी प्रकार सुदूर-दक्षिण में पल्लव, चोल, पाण्ड्य और चेर शक्तिशाली राज्य स्थापित हुए। इन राज्यों में मन्दिर-स्थापत्य की अच्छी प्रगति हुई जो कि मध्य-काल तक निरन्तर चलती रही।

दक्षिण भारत की मंदिर वास्तुकला उत्तर भारत की वास्तुकला से शैलीगत भिन्नताएं लिए हुए है। उत्तर भारत की मंदिर शैली को आर्य मंदिर शैली एवं नागर शैली कहा जाता था तथा दक्षिण भारत की मंदिर शैली द्रविड़़ मन्दिर शैली कहलाती थी। दोनों शैलियों के मिश्रण से निर्मित मन्दिर-शैली को बेसर शैली कहते थे।

यद्यपि इन शैलियों का उदय क्षेत्रीयता के आधार पर हुआ था किंतु इनकी सीमाएं अनुल्लंघनीय नहीं थीं। द्रविड़़ शैली के मन्दिर उत्तर भारत में भी मिले हैं और नागर शैली के मन्दिर दक्षिण भारत में। उदाहणार्थ, वृन्दावन का विशाल वैष्णव मन्दिर द्रविड़ शैली का है। इसी प्रकार बेसर शैली भी अपनी सीमाएं भेदकर दक्षिण भारत में चली गई।

बेसर शैली के मन्दिर चालुक्य नरेशों ने कन्नड़ प्रदेश में और होयसल राजाओं ने मैसूर में बनवाए। इनके स्थापत्य में ब्राह्मण, बौद्ध या जैन-धर्म का भेद नहीं रखा गया है। मंदिरों का विधान धर्म विशेष से पूरी तरह सम्बन्धित नहीं है।

कुछ वास्तुविदों ने बेसर शैली को पश्चात्वर्ती चालुक्य शैली कहा है परन्तु यथार्थतः यह आरम्भिक चालुक्य मन्दिरों की ही शैली है। होयसल मन्दिरों की भी यही शैली है। इन कारणों से इसे मात्र चालुक्य शैली कहना उचित नहीं होगा। वस्तुतः इस दिशा में होयसलों ने अधिक प्रयास किया। बेसर शैली के सुन्दरतम उदाहरण मैसूर राज्य में हलेबिद और वेलूर में हैं।

द्रविड़ शैली

द्रविड़़ शैली के मन्दिरों का निर्माण ऊँची जगति पर किया गया है तथा गर्भगृह और मण्डप साथ-साथ बनाए गए हैं। दक्षिण के अधिकांश मन्दिर शैव हैं, इसलिए मुख्य मण्डप के सामने नन्दी मण्डप को स्थान दिया गया है जिसमें गर्भगृह की ओर मुख किए हुए नन्दी की बैठी प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं।

तल-विन्यास की दृष्टि से द्रविड़़ शैली के मन्दिर गर्भगृह, मण्डप और नन्दी मण्डप एक प्राकार से आवेष्ठित होते हैं जिसमें बने प्रवेश द्वार को गोपुर कहते हैं। इस प्रकार द्रविड़़ शैली के प्रारम्भिक मन्दिरों में पांच अंग मिलते हैं- (1.) गर्भगृह (2.) मण्डप (3.) ननदी मण्डप (4.) प्राकार (5.) गोपुर।

बाद में बने द्रविड़़ मंदिरों की शैली में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं। बाद के मन्दिर बहुत बड़े क्षेत्र में बनाए जाने लगे। इन मंदिरों में चारों दिशाओं के मध्य में एक-एक द्वार बनाया जाता था। सबसे बाहर के प्राकार के प्रवेशद्वार (गोपुर) भव्य और ऊँचे होते थे।

इनकी तुलना में मूल विमान बहुत छोटा प्रतीत होता था। इन मन्दिरों के चारों ओर विशाल प्रांगण में अनेक प्रकार के भवन, पाठशालाएं और बाजार भी होते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार द्रविड़़ शैली के इन विशाल मन्दिरों को ‘मन्दिर-नगर’ कहना अधिक उचित होगा।

द्रविड़ शैली के मन्दिर गर्भगृह पर निर्मित विशाल पिरामिडनुमा शिखर के कारण दूर से ही पहचाने जाते हैं। द्रविड़़ शैली के मन्दिर में पाश्र्व से देखने में, ऊँचाई की दृष्टि से, पांच भाग दिखाई देते हैं। सबसे नीचे का भाग एक ऊँचा अधिष्ठान (प्लेटफॉर्म या जगती) है जिस पर गर्भगृह और मण्डप बनाए गए हैं। अधिष्ठान के ऊपर वर्गाकार गर्भगृह की दीवारें उठाई गई हैं।

दीवारों वाला लम्बवत् भाग जंघ कहलाता है जो तलवत् तीन भागों में विभक्त होता है, दीवार या जंघ के इन तीनों भागों में गवाक्ष बनाकर देव-प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। गर्भगृह की दीवारों के ऊपर पिरामिडाकार शिखर का उठान प्रारम्भ होता है। यह शिखर क्रमशः ऊपर उठते हुए तथा निरंतर संकरा होते हुए अनेक तलों के योग से अपना स्वरूप प्राप्त करता है।

पिरामिडाकार शैली में प्रत्येक तल सिमटते हुए अन्त में आधार तल का एक तिहाई रह जाता है। जाति-विमान के प्रत्येक तल को चारों ओर से लघु विमानों की पंक्ति से इस प्रकार अलंकृत किया जाता है कि कोनों पर कूट (वर्गाकार लघु विमान) और उसके बाद शाला (आयताकार पृष्ठ लघु विमान) और कूटों के रूप में क्रम से लगाए जाते हैं।

प्रत्येक तल पर इन लघु विमानों की पंक्ति एक मेखला के रूप में दिखाई देती है। शिखर के शीर्ष भाग पर, ग्रीवा के ऊपर, षड्कार विशाल पत्थर होता है जिसे ‘द्राविड़ी’ या ‘स्तूपी’ कहा जाता है। स्तूपी के ऊपर कलश स्थापित होता है। इस प्रकार गर्भगृह के ऊपर निर्मित शिखर दूर से ही दिखाई दे जाता है।

गर्भगृह के आगे स्तम्भों पर आधारित खुला या बन्द मण्डप बनाया जाता है जिसकी छत सपाट होती है। मुख्य मण्डप के आगे बना हुआ नन्दी मण्डप भी स्तम्भों पर आधारित सपाट छत से युक्त खुला मण्डप होता है। इस प्रकार द्रविड़ शैली के मन्दिर में नीचे से ऊपर की ओर जाति विमान के पांच भाग होते हैं- (1.) कलश, (2.) स्तूपी (3.) शिखर (अनेक तलों से युक्त) (4.) जंघा और (5.) अधिष्ठिान।

पश्चवर्ती-काल में गोपुरम् को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा। यह मंदिर के आंगन का मुख्य द्वार होता है तथा प्रायः इतना ऊंचा होता है कि वह प्रधान मन्दिर के शिखर को छिपा देता है। आयताकार भूमि पर बना गोपुरम् ऊपर की ओर पतला होता हुआ अनेक मंजिलों में निर्मित ऐसी वास्तु-रचना है जिसके शिखर का मस्तक हाथी की पीठ के समान होता है।

इस पर तीन से ग्यारह तक कलश बैठाये जाते हैं। इसके नीचे के भाग में प्रवेश के लिए स्थान बना होता है। गोपुरम् का सौन्दर्य इसके तलों पर बनी असंख्य मूर्तियों के कारण प्रकट होता है। मदुरै के मीनाक्षी मन्दिर का गोपुरम् विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

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