द्रविड़ मंदिर शैली का चरमात्कर्ष चोल मन्दिर स्थापत्य कला में हुआ। चोलों ने पल्लवों और पाण्ड्यों का स्थान लिया था। इसलिए चोलों ने पल्लवों और पाण्ड्यों की स्थापत्य कला को ही आगे बढ़ाया।
चोल मूर्तिकला
चोल शिल्पी अपने समय के उत्कृष्टतम वास्तुकार एवं मूर्तिकार थे। उनकी शैली में सरलता और भव्यता का अपूर्व समन्वय था। उनके द्वारा निर्मित कांस्य मूर्तियाँ अद्वितीय हैं। चोल शिल्पियों ने विशाल मूर्तियों को बनाने के लिए धातु गलाने की उच्च-कोटि की तकनीक विकसित की।
पल्लव और चोल मन्दिर स्थापत्य कला में अंतर
मन्दिर वास्तु के संयोजन की दृष्टि से पल्लव और चोल मन्दिर स्थापत्य कला में कोई विशेष भेद नहीं है परन्तु स्थानीय शैलीगत विशेषताओं के कारण चोल मन्दिर स्थापत्य कला का विशिष्टि महत्त्व है।
चोल मन्दिर स्थापत्य कला का कालखण्ड
चोल मन्दिरों का निर्माण ई.850 से 1200 तक निरन्तर होता रहा। इन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है-
(1.) प्रारम्भिक मन्दिर- जिनकी रचना ई.850 से 985 के बीच हुई,
(2.) उत्तरवर्ती मन्दिर – जिनकी रचना ई.985 से 1200 के बीच हुई।
उत्तरवर्ती चोल काल (ई.1070-1250) में भी मन्दिरों का निर्माण उसी गति से होता रहा। इन मन्दिरों में दो प्रमुख हैं-
(1.) तंजौर जिले में स्थित कंपहेश्वर (त्रिभुवनाविरेश्वर) का मन्दिर और
(2.) तंजौर जिले में ही दारासुरम का एरावतेश्वर मन्दिर।
चोल मन्दिर स्थापत्य कला के प्रमुख उदाहरण
प्रारम्भिक चोल मन्दिरों में (1.) विजयालय (2.) भुवनकोणम् (3.) मुकुंदेश्वर (4. कदम्बर (5.) बाला सुब्रह्मण्य (6.) नत्तमलई (7.) कलियपट्टी (8.) त्रिचण्डीश्वर (9.) सुन्दरेश्वर (10.) नागेश्वर (11.) कोरंगनाथ और (12.) अगस्तेश्वर मन्दिर अधिक प्रसिद्ध हैं।
साढ़े तीन सौ साल के चोलों के दीर्घकालीन शासन में समूचा तमिल प्रदेश छोटे-बड़े मन्दिरों से भर गया। चोलों के शासन काल में प्रारम्भ में पत्थरों के भवन एवं बाद में ईंटों के भवन बने। इनमें सबसे पहला चिगलपट्ट जिले का तरूक्कलुक्कुनरम है। इसकी वास्तुकला परवर्ती-पल्लव या पूर्ववर्ती-चोल शैली से मिलती है।
इसके खम्भों के निचले अर्ध-भाग में पैर मोड़कर बैठे सिंह की आकृतियां हैं और खम्भों के शीर्ष पर मोटे शीर्ष-फलक हैं। चोल युग के प्रारम्भ में अपेक्षाकृत लघु मन्दिर बने थे। उनकी बनावट कांची के मुक्तेश्वर एवं बाहुर मन्दिरों के समान है। इसके बाद परांतक (प्रथम) से लेकर राजराजा (प्रथम) के शासन काल तक चोल मन्दिरों का भव्य स्वरूप सामने आया।
इन मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि इनमें मुख्य मंदिर शेष उपमन्दिरों पर आच्छादित सा प्रतीत होता है। इन मंदिरों में गर्भगृह के सामने का ‘अन्तराल’ मुख्य मन्दिर का ही समन्वित अंग है। ‘अन्तराल’ अपने वास्तविक अर्थों में गर्भगृह और सामने के महामण्डप के बीच आने-जाने का मार्ग है। इन मन्दिरों में ‘विमान’ गर्भगृह के ऊपर उठता गया है।
‘उपपीठ’ में कुमुदय का प्रारम्भ अष्ट-भुजा से होता है। बाद में यही ऊपर जाकर गोलाकार हो जाता है। मंदिरों के स्तम्भों में दण्ड और शीर्ष के बीच ‘पद्मबन्ध’ है। शीर्ष में नीचे की ओर ‘कलश’ है। स्तम्भों के ‘शीर्ष-फलकों’ का विस्तार होता है जिन पर छत टिकती है।
एक वर्गाकार मोटा पत्थर जिसके साथ नीचे की ओर पंखुड़ी की बनावट भी रहती है, स्तम्भ की मुख्य विशेषता हो जाती है। चोल शासक आदित्य (प्रथम) ने कई शैव मन्दिर बनवाए जिनमें सुन्दरेश्वर मन्दिर, कुम्भकोणम का नागेश्वर तथा परान्तक (प्रथम) द्वारा निर्मित निवास नल्लूर का कोरंगनाथ मन्दिर बहुत प्रसिद्ध हुए।
कोरंगनाथ का मन्दिर
परान्तक (प्रथम) के समय का सबसे प्राचीन मन्दिर त्रिचनापल्ली जिले के श्रीनिवासनल्लूर में है। इसे कोरंगनाथ का मन्दिर कहते हैं। इस मन्दिर की लम्बाई 50 फुट है। इसमें 25 फुट गुणा 25 फुट का गर्भगृह और 25 फुट गुणा 25 फुट का मण्डप है। गर्भगृह के ऊपर 20 फुट ऊंचा शिखर है। विमान पर ऊभरी हुई मूर्तियों का प्रचुर अलंकरण है।
इन मूर्तियों में सबसे प्रसिद्ध मूर्ति काली की है। इसके एक ओर सरस्वती एवं दूसरी ओर लक्ष्मी की मूर्ति है। काली के नीचे एक असुर की मूर्ति उत्कीर्ण है। पल्लव कला में सिंह-मुखों के स्थान पर कुछ विचित्र पशुओं के मुख उत्कीर्ण किए गए हैं।
चोल मन्दिरों के दूसरे वर्ग में तीन मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है- तंजौर का राजराजेश्वर, गंगईकोण्ड चोलपुरम् का वृहदीश्वर तथा दारासुरम का एरावतेश्वर। ये तीनों मन्दिर द्रविड़ शैली और चोल कला के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं।
बृहदीश्वर मन्दिर
चोल शासक राजराज महान् ने तंजौर में बृहदीश्वर नाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था जो बाद में ‘राजराजेश्वर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दक्षिण के मन्दिरों में यह सबसे बड़ा तथा ऊंचा है। यह मन्दिर अपने गर्भगृह, मुख्य मण्डप, अर्ध मण्डप और नन्दी मण्डप के साथ 500 फुट लम्बे और 250 फुट चैड़े प्रांगण में स्थित है। सम्पूर्ण मन्दिर एक प्राकार के भीतर बना हुआ है।
इसका ‘गोपुरम्’ पूर्व दिशा में है। ‘मदिल’ से सटी स्तम्भों की पंक्तियां हैं। मंदिर परिसर में 35 उपमन्दिर स्थित हैं। इसका जाति-विमान 190 फुट ऊंचा है और इसका शिखर जंघा के ऊपर बने तेरह तलों में निर्मित है। क्षैतिज रूप में शिखर के प्रत्येक तल पर कूट, शाला और पंजर प्रकृति के लघु शिखरों का हार बना हुआ है। अन्तिम तल के हार पर चार नन्दी भी बने हुए हैं।
विमान की ग्रीवा अष्टकोणीय है और उस पर विशाल एकाश्म किंतु अष्टकोणीय स्तूपी प्रतिष्ठित है। शिखर का शीर्ष भाग गोले के समान है। इसके चारों ओर चार पंखदार ताक बनाए गए हैं। मन्दिर का जाति विमान आकाश को छूता हुआ प्रतीत होता है। कला की दृष्टि से यह मन्दिर उच्च कोटि का है। द्रविड़़ कला शैली के मन्दिरों में सम्भवतः यह सर्वश्रेष्ठ है।
गंगैकेाण्ड-चोलपुर मन्दिर
राजराज महान् के पुत्र राजेन्द्र चोल ने अपनी नवनिर्मित राजधानी गंगैकोण्ड चोलपुर में एक बृहदीश्वर मन्दिर का निर्माण कराया। यह मंदिर 25 वर्षों में बनकर तैयार हुआ। देखने में यह तंजौर के बृहदीश्वर मन्दिर के सदृश्य है। इसलिए पर्सी ग्राउन ने इसे ‘तंजोर की संगिनी’ की संज्ञा दी है।
दोनों में अन्तर केवल अधिक विस्तार, अलंकरण और ब्यौरे का है। मन्दिर आयताकार है, जिसकी भुजाएं 340 फुट गुणा 100 फुट हैं। इसका शिखर 150 फुट ऊंचा है। मन्दिर को मुख्य रूप से पांचा भागों में बांटा जा सकता है- (1.) गर्भगृह, (2.) अन्तराल (3.) मण्डप (4.) अर्धमण्डप और
(5.) बहिर्भाग। इसका मण्डप 175 फुट लम्बा और 95 फुट चैड़ा है। मण्डप के उत्तर और दक्षिणी सिरों पर दो भव्य द्वार हैं जिनके दोनों ओर ‘द्वारपालों’ की प्रभावशाली मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह के सम्मुख विशाल मण्डप बना हुआ है जो 240 स्तम्भों पर खड़ा है। यह कक्ष एक चपटी छत से ढका है जिसकी धरती से ऊंचाई 18 फुट है। मन्दिर का विमान 160 फुट ऊंचा है।
इसका आधार 100 फुट गुणा 100 फुट है जो बीच में बनी एक भारी कार्निस के द्वारा दो भागों में विभक्त है। गर्भगृह की दीवारों की ऊंचाई 35 फुट है। इसमें दो मंजिल हैं। विमान का आकार पिरामिडनुमा है। इसमें आठ मंजिलें (तल) हैं। ऊपर की प्रत्येक मंजिल नीचे की मंजिल से छोटी है। तंजौर के मंदिर में मध्य भाग की रेखा सीधी है परन्तु गंगैकोण्ड चोलपुर के मन्दिर के मध्य भाग की रेखा वक्र है।
परिणास्वरूप यह मन्दिर देखने में अधिक सुन्दर लगता है परन्तु इसकी मजबूती कम हो गई है। तंजौर के मन्दिर में शक्ति सन्तुलन और गाम्भीर्य अधिक है। इस मन्दिर में सौन्दर्य और विलास अधिक है।
दारासुरम का मन्दिर
दारासुरम का मन्दिर चोल-पाण्ड्यकालीन है। इस समय तक चोल मन्दिर संरचना विशाल आकार के प्रतीक प्रतिबद्ध न होकर नए तत्त्वों का अन्वेषण करती प्रतीत होती है। इसलिए दारासुरम का मन्दिर न तो अधिक विशाल है और न प्राकार से घिरा हुआ है। इस मन्दिर की कल्पना एक ऐसे रथ के रूप में की गई है जिसे हाथी खींच रहे हैं। इसका जाति-विमान पंचतल है और ऊपरी तल पत्थर के स्थान पर ईंटों से निर्मित है।
दक्षिण का मन्दिर स्थापत्य
दक्षिण का मन्दिर स्थापत्य एवं द्रविड़ शैली
राष्ट्रकूट मन्दिर स्थापत्य कला
चोल मन्दिर स्थापत्य कला