रामानंद की शिष्य मण्डली के प्रमुख सदस्य नरहरि आनंद के शिष्य तुलसीदास, अकबर के समकालीन संत हुए। उनका जन्म ई.1532 के लगभग हुआ। उन्होंने रामचरित मानस, गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका, एवं हनुमान बाहुक आदि ग्रंथों की रचना की।
उन्होंने भारत की जनता को धनुर्धारी दशरथ-नदंन श्रीराम की भक्ति करने की प्रेरणा दी जो धरती, ब्राह्मण, गाय तथा देवताओं की रक्षा के लिए मनुष्य का शरीर धारण करते हैं- ‘गो द्विज धेनु देव हितकारी, कृपासिंधु मानुष तनुधारी।’ तथा जो जनता को सुखी करने वाले, वैदिक धर्म की रक्षा करने वाले एवं दुष्टों का विनाश करने वाले हैं- ‘जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।’
तुलसी ने जनसामान्य को भगवान में विश्वास रखने की प्रेरणा देते हुए कहा- हे परमात्मा, आप ही मेरे स्वामी, गुरु, पिता और माता हैं, आपके चरण-कमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ- ‘मोरे तुम प्रभु गुर पितु माता, जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता।’
तुलसीदास ने जनसामान्य को सद्ग्रंथों का पठन करने का आह्वान किया तथा विभिन्न गुरुओं द्वारा फैलाए जाने वाले पंथों और मार्गों को निंदनीय बताया ताकि हिन्दू-धर्म को एकता के सूत्र में पिरोए रखा जा सके तथा धर्म-भीरु प्रजा को दुष्ट व्यक्तियों द्वारा धर्म के नाम पर उत्पन्न की जा रही भूल-भुलैयाओं में भटकने से रोका जा सके।
तुलसी ने पाखण्डी गुरुओं को चेतावनी देते हुए कहा- ‘हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।’ अर्थात् जो गुरु, शिष्य के शोक को नहीं हरता अपितु उसका धन हड़पता है, वह घनघोर नर्क में पड़ता है। उन्होंने राजाओं को भी अपनी अच्छी प्रजा अर्थात् सज्जनों के पालन का निर्देशन करते हुए कहा- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुःखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।’
उन्होंने ‘कोउ नृप होहु हमें का हानि’ की मानसिकता को दास-दासियों की मानसिकता बताया। तुलसी की रामचरित मानस घर-घर पहुँच गई। करोड़ों लोगों को इसकी चौपाइयां कण्ठस्थ हो गईं तथा घर-घर पाठ होने लगे। रामचरित मानस के श्रीराम पर विश्वास हो जाने से सैंकड़ों वर्षों से दबे-कुचले कोटि-कोटि जनसमुदाय के मन में नवीन साहस का संचार हुआ। लोग ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखनकर अपने धर्म पर अडिग बने रहे।
तुलसीदास द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय के प्रयास: दिल्ली सल्तनत (13वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी) एवं मुगलों के शासन काल (16वीं-18वीं शताब्दी ईस्वी) में हिन्दू-धर्म के शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों के बीच कटुता का वातावरण था। यहाँ तक कि सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच भी कटुता व्याप्त थी। सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बी अपने-अपने मत को श्रेष्ठ बताकर दूसरे के मत को बिल्कुल ही नकारते थे।
गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस के माध्यम से इस कटुता को समाप्त करने का सफल प्रयास किया। इस ग्रंथ में तुलसी ने शैवों के आराध्य देव शिव तथा विष्णु के अवतार राम को एक दूसरे का स्वामी, सखा और सेवक घोषित किया।
राम भक्त तुलसी ने ‘सेवक स्वामि सखा सिय-पिय के, हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के’ कहकर शंकर की स्तुति की। इतना ही नहीं तुलसी ने अपने स्वामी राम के मुख से- ‘औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउं कर जोरि, संकर भजन बिना नर भगति न पावई मोर’ कहलवाकर राम-भक्तों को शिव की पूजा करने का मार्ग दिखाया एवं राम-पत्नी सीता के मुख से शिव-पत्नी गौरी की स्तुति करवाकर शाक्तों एवं वैष्णवों को निकट लाने में सफलता प्राप्त की- ‘जय जय गिरिबर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।’
तुलसी ने ‘सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा’ कहकर सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया। तुलसी ने भक्तिमार्गियों एवं ज्ञानमार्गियों के बीच की दूरी समाप्त करते हुए कहा- ‘भगतहि ज्ञानही नहीं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।’
तुलसीदास ब्राह्मणों की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे किंतु उनके राम जन-जन के राम थे जिन्होंने शबर जाति की स्त्री के घर बेर खाए, गृध्र जाति के जटायु का उद्धार किया, निषादराज को अपना मित्र बनाया तथा केवट एवं अहिल्या का उद्धार किया। तुलसी के राम ने ताड़का-वध, शूर्पनखा की नासिका कर्तन तथा सिंहका का वध करके यह स्पष्ट संदेश दिया कि स्त्री यदि अच्छे गुणों से युक्त हो तभी वह पूज्य है, दुष्ट स्त्री उसी प्रकार वध के योग्य है जिस प्रकार बुरा पुरुष।
तुलसी के प्रयासों को बाद में आने वाले अन्य संतों ने भी बल दिया जिसके परिणाम स्वरूप शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों तथा इन सम्प्रदायों के भीतर उपस्थित विभिन्न विचारधाराओं के अनुयाइयों के बीच की दूरियां कम हुई और हिन्दू-धर्म, विदेशी धरती से आने वाले धर्मों के समक्ष साहस पूर्वक खड़ा हो गया। ई.1623 (वि.सं.1680) में तुलसी का देहान्त हो गया।