पानीपत का तीसरा युद्ध अफगान आक्रांता अहमदशाह अब्दाली एवं पेशवा बालाजी बाजीराव की सेनाओं के बीच हुआ। इस युद्ध में मराठा शक्ति प्रमुख भूमिका में थी किंतु रणनीतिक कमजोरियों के कारण मराठे युद्ध हार गए।
अहमदशाह अब्दाली द्वारा मराठों की दुर्दशा किये जाने से पेशवा बालाजी बाजीराव को अत्यधिक दुःख हुआ। उसने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ को एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर भेजा। इस अभियान का औपचारिक नेतृत्व पेशवा के बड़े पुत्र विश्वासराव को सौंपा गया। सदाशिवराव भाऊ पराक्रमी सेनापति था।
अहमदशाह अब्दाली की घोषणा
अहमदशाह अब्दाली ने भारतीय मुस्लिम सेनापतियों का समर्थन प्राप्त करने के लिये घोषित किया कि वह दिल्ली के मुस्लिम राज्य को मराठों की लूटमार से बचाने के लिए भारत आया है। इस घोषणा के बाद, भारत के अधिकांश मुस्लिम शासक अहमदशाह अब्दाली के साथ हो गये।
सदाशिवराव भाऊ की घोषणा
इस पर सदाशिवराव भाऊ ने घोषित किया कि वह विधर्मी विदेशियों को भारत से खदेड़ना चाहता है; इसलिये समस्त भारतीय शक्तियाँ इस कार्य में सहयोग दें किंतु मराठों की लूटमार से संत्रस्त उत्तर भारत की किसी भी शक्ति ने मराठों का साथ नहीं दिया। राजा सूरजमल को छोड़कर भारत की समस्त शक्तियों की सहानुभूति अब्दाली के साथ थी।
कहने को मराठे, मुगल बादशाह आलमगीर की तरफ से अहमदशाह अब्दाली से युद्ध लड़ रहे थे किंतु इस समय तक मुगल साम्राज्य की इतनी दुर्दशा हो चुकी थी कि बादशाह आलमगीर, अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध छोटी-मोटी सेना भी नहीं भेज सका। 7 मार्च 1760 को सदाशिवराव भाऊ दक्षिण से चला।
मराठों का पानीपत के लिए प्रस्थान
मराठे अपनी जीत के प्रति आवश्यकता से अधिक आश्वस्त थे। वे अपनी पराजय के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वे युद्ध के मैदान में अपनी पत्नियों, रखैलों और दासियों को लेकर पहुँचे। युद्ध क्षेत्र में उतरने से पहले उन्होंने पुष्कर और प्रयाग में डुबकियां लगाईं और काशी में विश्वनाथ के दर्शन किये। वे बड़ी ही लापरवाही से दिल्ली की ओर बढ़े।
अगस्त 1760 में सदाशिवराव ने अब्दाली के आदमियों से दिल्ली छीन ली तथा दिल्ली के निकट अफगानों के प्रमुख केन्द्र कुंजपुरा पर भी अधिकार कर लिया।
अब्दाली को यह समाचार मिला तो उसने यमुना पार करके मराठों पर पीछे से आक्रमण करने की योजना बनाई और पानीपत तक चला आया। सदाशिवराव भी अपनी सेना सहित पानीपत जा पहुँचा। नवम्बर 1760 में दोनों सेनाएँ आमने-सामने हो गईं।
पानीपत का तीसरा युद्ध
14 जनवरी 1761 को दोनों सेनाओं के बीच अन्तिम निर्णायक युद्ध लड़ा गया। मदमत्त मराठों ने युद्ध के सामान्य नियमों का पालन भी नहीं किया। न ही शत्रु की गतिविधियों पर दृष्टि रखी। वे सीधे ही युद्ध के मैदान में धंस गये जबकि अब्दाली ने उस मैदान के तीन तरफ अपनी सेनाएं छिपा रखी थीं। पाँच घण्टे के भीषण युद्ध के बाद ही पेशवा का पुत्र विश्वासराव, शत्रु की गोली से मारा गया।
यह सुनते ही सदाशिवराव भाऊ अपना संयम खो बैठा और अन्धाधुन्ध लड़ते हुए वह भी मारा गया। मल्हारराव होलकर आरम्भ से ही दोहरी नीति अपनाये हुए था। वह युद्ध के मैदान तक तो पहुंचा किंतु उसने युद्ध में विशेष भाग नहीं लिया और स्थिति के प्रतिकूल होते ही सेना सहित युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ।
अहमदशाह अब्दाली, हाथ आये हुए शत्रु को इस तरह बच कर नहीं जाने दे सकता था। उसकी सेना ने भागते हुए मराठों का पीछा किया तथा एक लाख मराठे काट डाले। मराठों के अनेक प्रसिद्ध सेनापति इस युद्ध में मारे गये। भागते हुए हजारों मराठों को बन्दी बना लिया गया। बचे हुए मराठे जान हथेली पर रखकर राजपूताना होते हुए महाराष्ट्र की तरफ भागे।
मार्ग में लोगों ने उन्हें लूटना और मारना आरम्भ किया। मराठा सैनिकों की ऐसी दुर्दशा देखकर भरतपुर के जाटों की राजमाता किशोरी देवी ने घोषणा की कि मराठा सैनिक मेरे बच्चे हैं। राजमाता ने समस्त भारतीयों और भारतीय राजाओं का आह्वान किया कि वे मराठा सैनिकों के प्राणों की रक्षा करें और उन्हें शरण प्रदान करें।
युद्ध के परिणाम
(1.) मराठा सैन्य शक्ति का पराभव
एक लाख मराठा सैनिकों के मारे जाने के कारण मराठों की सैन्य शक्ति का बहुत ह्रास हुआ। यदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘इस भयंकर संघर्ष में मराठों को बुरी तरह मार खानी पड़ी। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में शायद ही कोई ऐसा सैनिक परिवार बचा हो, जिसने पानीपत के इस पवित्र संघर्ष में अपना एक सदस्य न खोया हो।’
(2.) मराठा सरदारों में बिखराव
एक लाख मराठा सैनिकों को काट डाले जाने के बाद पूरा महाराष्ट्र विधवा मराठनों के करुण क्रंदन से गूंज उठा। मराठों की इस भारी पराजय से पेशवा बालाजी बाजीराव का हृदय टूट गया। 23 जून 1761 को वह हृदयाघात से मर गया। उसका पुत्र विश्वासराव पहले ही मारा जा चुका था, ऐसी स्थिति में मराठा सरदारों पर नियंत्रण रखने वाला कोई नहीं रहा। वे अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे।
(3.) मुगल सत्ता का पराभव
मुगलों की सत्ता अपने पतन के चरम पर थी किंतु पानीपत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद मुगल सत्ता का नैतिक पतन भी हो गया। विजय मद में चूर अब्दाली ने हाथी पर बैठकर दिल्ली में प्रवेश किया। उसने आलमगीर को एक साधारण कोठरी में बंद कर दिया।
अब्दाली तथा उसके सैनिकों ने बादशाह आलमगीर तथा उसके अमीरों की औरतों और बेटियों को लाल किले में निर्वस्त्र करके दौड़ाया और उन पर दिन-दहाड़े बलात्कार किये। निकम्मा आलमगीर, अब्दाली के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका। जब अहमदशाह अब्दाली, लाल किले का पूरा गर्व धूल में मिलाकर अफगानिस्तान लौट गया तब मुगल शाहजादियाँ पेट की भूख मिटाने के लिये दिल्ली की गलियों में फिरने लगीं।
अब्दाली के जाते ही उसके वजीर इमाद ने बादशाह की हत्या करवाकर शव नदी तट पर फिंकवा दिया तथा यह प्रचारित कर दिया कि बादशाह पैर फिसलने से मर गया। इस प्रकार पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद मुगल सल्तनत का लगभग अन्त हो गया। मुगलों, मराठों तथा अफगानों के पराभव ने अँग्रेजों के लिये मैदान साफ कर दिया।
मराठों का पुनरुत्थान
मराठा इतिहासकार सरदेसाई का मत है- ‘यह सोचना कि पानीपत के युद्ध ने मराठों की उठती हुई शक्ति को कुचल दिया, ठीक नहीं होगा। क्योंकि नई पीढ़ी के लोग शीघ्र ही पानीपत में हुई क्षति की पूर्ति करने के लिये उठ खड़े हुए।’
मराठों ने बहुत कम समय में अपनी क्षति को पूरा कर लिया। 1769 ई. में उन्होंने पुनः नर्मदा को पार किया और राजपूतों, रोहिल्लों, जाटों आदि से कर वसूल किया। बाद में सिन्धिया कुछ समय के लिये मुगल बादशाह का संरक्षक भी रहा परन्तु फिर भी, मराठे भारत की राजनीति में दुबारा से स्थायी प्रभाव जमाने में सफल नहीं हुए।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अँग्रेजों के भारत आगमन के समय लगभग पूरे देश में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी। चारों ओर लूटमार का वातावरण था। औरंगजेब की नीतियों के कारण केन्द्रीय सत्ता कमजोर चुकी थी तथा उसकी मृत्यु के बाद देश में विभिन्न अर्द्धस्वतंत्र एवं स्वायत्तशासी राज्यों का उदय हो चुका था।
मुगलों के पतन से उत्पन्न हुई राजनीतिक शून्यता को भरने के लिये मराठे सामने आये। इसी दौरान हुए अफगानी आक्रमणों ने तथा मराठों की आपसी फूट ने मराठा शक्ति को कमजोर कर दिया।
मूल आलेख – यूरोपियन जातियों के आगमन के समय भारत की स्थिति
पानीपत का तीसरा युद्ध



